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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र वः॒ शर्धा॑य॒ घृष्व॑ये त्वे॒षद्यु॑म्नाय शु॒ष्मिणे॑ । दे॒वत्तं॒ ब्रह्म॑ गायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । शर्धा॑य । घृष्व॑ये । त्वे॒षऽद्यु॑म्नाय । शु॒ष्मिणे॑ । दे॒वत्त॑म् । ब्रह्म॑ । गा॒य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वः शर्धाय घृष्वये त्वेषद्युम्नाय शुष्मिणे । देवत्तं ब्रह्म गायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । वः । शर्धाय । घृष्वये । त्वेषद्युम्नाय । शुष्मिणे । देवत्तम् । ब्रह्म । गायत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (प्र) प्रीतार्थे (वः) युष्माकम् (शर्धाय) बलाय (घृष्वये) घर्षन्ति परस्परं संचूर्णयन्ति येन तस्मै (त्वेषद्युम्नाय) प्रकाशमानाय यशसे द्युम्नं द्योततेर्यशोवान्नं वा। निरु० ५।५। (शुष्मिणे) शुष्यति बलयति येन व्यवहारेण स बहुर्विद्यते यस्मिँस्तस्मै। अत्र भूम्न्यर्थं इनिः। (देवत्तम्) यद्वेवेनेश्वरेण दत्तं विद्वद्भिर्वाध्यापकेन तत् (ब्रह्म) वेदम् (गायत) षड्जादि स्वरैरालपत ॥४॥

    अन्वयः

    पुनरेते वायोः कस्मै प्रयोजनाय किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे विद्वांसो मनुष्या य इमे वायवः वो युष्माकं शर्धाय घृष्वये शुष्मिणे त्वेषद्युम्नाय सन्ति तन्नियोगेन देवत्तं ब्रह्म यूयं गायत ॥४॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिर्मनुष्यैरीश्वरोक्तान् वेदानधीत्य वायु गुणान् विदित्वा यशस्वीनि बलकारकाणि कर्माणि नित्यमनुष्ठाय सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः सुखानि देयानीति ॥४॥ मोक्षमूलरोक्तिः। येषां गृहेषु वायवो देवता आगच्छन्ति हे कण्वा यूयं तेषामग्रे ता देवता स्तुत। ताः कीदृश्यः संति। उन्मत्ता विजयवत्यो बलवत्यश्च। अत्र। मं० ४। सू० १७। मं० २। इदमत्रप्रमाणमस्तीत्यशुद्धास्ति। यच्चात्र मंत्रप्रमाणंदत्तं तत्रापि तदभीष्टोर्थो नास्तीत्यतः ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे विद्वान् लोग वायु से किस-२ प्रयोजन के लिये क्या-२ करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो ! जो ये पवन (वः) तुम लोगों के (शर्धाय) बल प्राप्त करनेवाले (घृष्वये) जिस के लिये परस्पर लड़तें भिड़ते हैं उस (शुष्मिणे) अत्यन्त प्रशंसित बलयुक्त व्यवहारवाले (त्वेषद्युम्नाय) प्रकाशमान यश के लिये हैं तुम लोग उनके नियोग से (देवत्तम्) ईश्वर ने दिये वा विद्वानों नेपढ़ाये हुए (ब्रह्म) वेद को (प्रगायत) अच्छे प्रकार षड्जादि स्वरों से स्तुतिपूर्वक गाया करो ॥४॥

    भावार्थ

    विद्वान् मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर के कहे हुए वेदों को पढ़ वायु के गुणों को जान और यश वा बल के कर्मों का अनुष्ठान करके सब प्राणियों के लिये सुख देवें ॥४॥ मोक्षमूलर साहिब का अर्थ जिनके घरों में वायु देवता आते हैं हे बुद्धिमान् मनुष्यों तुम उन के आगे उन देवताओं की स्तुति करो तथा देवता कैसे हैं कि उन्मत्त विजय करने वा वेगवाले इस में चौथे मंडल सत्रहवें सूक्त दूसरे मंत्र का प्रमाण है। सो यह अशुद्ध है क्योंकि सब जगह पवनों की स्थिति के जाने आनेवाली क्रिया होने वा उनके सामीप्य के विना वायु के गुणों की स्तुति के संभव होने से और वायु से भिन्न वायु का कोई देवता नहीं है इस से तथा जो मंत्र का प्रमाण दिया है वहां भी उनका अभीष्ट अर्थ इनके अर्थ के साथ नहीं है ॥४॥

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    विषय

    फिर वे विद्वान् लोग वायु से किस-किस प्रयोजन के लिये क्या- क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वांसो मनुष्याः  ये इमे वायवः वः [ युष्माकं] शर्धाय घृष्वये शुष्मिणे त्वेषद्युम्नाय सन्ति तन्नियोगेन देवत्तं ब्रह्म यूयं गायत ।।

    पदार्थ

    हे (विद्वांसो)=विद्वान्, (मनुष्याः)=मनुष्यों,  (ये)=जो,  (इमे)=ये, (वायवः)=वायु हैं, [वे] (वः) युष्माकम्=तुम सबके, (शर्धाय) बलाय=बल के लिए, (घृष्वये) घर्षन्ति परस्परं संचूर्णयन्ति येन तस्मै=जिससे परस्पर घर्षण करते हैं, उसमें, (शुष्मिणे) शुष्यति बलयति येन व्यवहारेण स बहुर्विद्यते यस्मिँस्तस्मै=जिस से बलयुक्त होते हैं, ऐसा व्यवहार जिसमें अधिक है, (त्वेषद्युम्नाय) प्रकाशमानाय यशसे द्युम्नं द्योततेर्यशोवान्नं वा=प्रकाशमान के लिये यश से या अन्न से प्रकाशित करता है,  (सन्ति)=हैं, (तत्)=उसको, (नियोगेन)=निश्चित रूप से, (देवत्तम्) यद्वेवेनेश्वरेण दत्तं विद्वद्भिर्वाध्यापकेन तत्=जो ईश्वर  द्वारा दिये गये हैं या विद्वानों अथवा अध्यापकों द्वारा  दिये गये हैं,  (यूयम्)=तुम सब, (ब्रह्म) वेदम्= वेद के, (गायत) षड्जादि स्वरैरालपत=षड्ज आदि स्वरों का अलाप करो ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वान् मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर के कहे हुए वेदों को पढ़ वायु के गुणों को जान और यश वा बल के कर्मों का अनुष्ठान करके सब प्राणियों के लिये सुख देवें ॥४॥ 

    विशेष

    महर्षिकृत टिप्पणी का भाषानुवाद- मोक्षमूलर साहिब का अर्थ जिनके घरों में वायु देवता आते हैं हे बुद्धिमान् मनुष्यों तुम उन के आगे उन देवताओं की स्तुति करो तथा देवता कैसे हैं कि उन्मत्त विजय करने वा वेगवाले इस में चौथे मंडल सत्रहवें सूक्त दूसरे मंत्र का प्रमाण है। सो यह अशुद्ध है क्योंकि सब जगह पवनों की स्थिति के जाने आनेवाली क्रिया होने वा उनके सामीप्य के विना वायु के गुणों की स्तुति के संभव होने से और वायु से भिन्न वायु का कोई देवता नहीं है इस से तथा जो मंत्र का प्रमाण दिया है वहां भी उनका अभीष्ट अर्थ इनके अर्थ के साथ नहीं है ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वांसो) विद्वान् (मनुष्याः) मनुष्यों।  (ये) जो  (इमे) ये (वायवः) वायु हैं, [वे] (वः) तुम सबके (शर्धाय) बल के लिए, (घृष्वये) जिससे परस्पर घर्षण करते हैं, उसमें (शुष्मिणे) जिस से बलयुक्त होते हैं, ऐसा व्यवहार जिसमें अधिक है, (त्वेषद्युम्नाय) उस प्रकाशमान के लिये यश से या अन्न से प्रकाशित करते (सन्ति) हैं। (तत्) उसको (नियोगेन) निश्चित रूप से (देवत्तम्) जो ईश्वर  द्वारा दिये गये हैं या विद्वानों अथवा अध्यापकों द्वारा  दिये गये हैं,  (यूयम्) तुम सब (ब्रह्म) वेद के [उन] (गायत) षड्ज आदि स्वरों का अलाप करो ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रीतार्थे (वः) युष्माकम् (शर्धाय) बलाय (घृष्वये) घर्षन्ति परस्परं संचूर्णयन्ति येन तस्मै (त्वेषद्युम्नाय) प्रकाशमानाय यशसे द्युम्नं द्योततेर्यशोवान्नं वा। निरु० ५।५। (शुष्मिणे) शुष्यति बलयति येन व्यवहारेण स बहुर्विद्यते यस्मिँस्तस्मै। अत्र भूम्न्यर्थं इनिः। (देवत्तम्) यद्वेवेनेश्वरेण दत्तं विद्वद्भिर्वाध्यापकेन तत् (ब्रह्म) वेदम् (गायत) षड्जादि स्वरैरालपत ॥४॥
    विषयः- पुनरेते वायोः कस्मै प्रयोजनाय किं कुर्युरित्युपदिश्यते। 

    अन्वयः- हे विद्वांसो मनुष्या य इमे वायवः वो युष्माकं शर्धाय घृष्वये शुष्मिणे त्वेषद्युम्नाय सन्ति तन्नियोगेन देवत्तं ब्रह्म यूयं गायत ॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिर्मनुष्यैरीश्वरोक्तान् वेदानधीत्य वायु गुणान् विदित्वा यशस्वीनि बलकारकाणि कर्माणि नित्यमनुष्ठाय सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः सुखानि देयानीति ॥४॥ 
    टिप्पणी (महर्षिकृतः)- मोक्षमूलरोक्तिः। येषां गृहेषु वायवो देवता आगच्छन्ति हे कण्वा यूयं तेषामग्रे ता देवता स्तुत। ताः कीदृश्यः संति। उन्मत्ता विजयवत्यो बलवत्यश्च। अत्र। मं० ४। सू० १७। मं० २। इदमत्रप्रमाणमस्तीत्यशुद्धास्ति। यच्चात्र मंत्रप्रमाणंदत्तं तत्रापि तदभीष्टोर्थो नास्तीत्यतः ॥४॥

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    विषय

    घृष्वि - त्वेषद्युम्न - शुष्मी

    पदार्थ

    १. हे मनुष्यो ! (वः) - तुम्हारे (शर्धाय) - इस प्राणों के बल के लिए जोकि (घृष्वये) - शत्रुओं का धर्षण करनेवाला है, (त्वेषद्युम्नाय) - दीप्तज्ञान व यशवाला है [द्युम्नं यशः, नि०] (शुष्मिणे) - शत्रुओं के शोषक बलवाला है, (देवत्तम्) - उस महान् देव प्रभु से दिये हुए [देवेन दत्तं - देवत्तम्] ब्रह्म - स्तोत्र का गायत - खुब गान करो । 
    २. वेदों में प्राणों की महिमा का प्रतिपादन है । वेदमन्त्रों से हम उस प्राणमहिमा को समझें । प्राणों के महत्त्व को समझकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों । 
    ३. इस प्राणसाधना के होने पर हम शत्रुओं का धर्षण करनेवाले बनेंगे, दीप्तज्ञान व यशवाले होंगे और न चाहते हुए भी हमारे अन्दर आ जानेवाले कामादि का हम शोषण कर पाएँगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - वेदमन्त्रों में हम प्राणों की महिमा को देखें और प्राणसाधना करते हुए 'घृष्वी - त्वेष - द्युम्न व शुष्मी' बनें । 
     

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    विषय

    वायुओं के दृष्टान्त से वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो! (वः) आप लोग (घृष्वये) परस्पर संघर्ष, प्रतिस्पर्द्धा से उत्पन्न होने वाले (शर्धाय) बल की वृद्धि करने और (त्वेषद्युम्नये) उज्वल यश प्राप्त करने के लिये आप लोग (देवत्तं) परमेश्वर से दिये (ब्रह्म) महान् वेद मय ज्ञान-वचन का (गायत) गान करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान माणसांनी ईश्वरोक्त वेदातील वायूचे गुण जाणून यश व बल देणाऱ्या कर्माचे अनुष्ठान करून सर्व प्राण्यांना सुख द्यावे. ॥ ४ ॥

    टिप्पणी

    मोक्षमूलर साहेबांचा अर्थ - ज्यांच्या घरात वायू देवता येतात हे बुद्धिमान माणसांनो! तुम्ही त्यांच्यासमोर त्या देवतांची स्तुती करा व देवता कशा आहेत? उन्मत्त विजय करविणाऱ्या व बलवान, वेगवान असणाऱ्या यासाठी चौथ्या मंडलाच्या सतराव्या सूक्ताच्या दुसऱ्या मंत्राचे प्रमाण आहे. हे अशुद्ध आहे. कारण जो मंत्र प्रमाण म्हणून दिलेला आहे तेथेही त्याचा अभीष्ट अर्थ याच्या अर्थासारखा नाही. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For your strength, for your refinements, for light and prosperity, for health, food and plenty, study the divine gift of the winds and sing in thanks and praise of the sacred hymns of the Veda.

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    Subject of the mantra

    Then what should those learned people do with the air for what purpose, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃso)= learned, (manuṣyāḥ)=men, (ye)=those, (ime)=these, (vāyavaḥ)=air are, [ve]=they, (vaḥ)=to you all, (śardhāya)=for strength, (ghṛṣvaye)=with which cause friction, in that, (śuṣmiṇe)=which are forceful, a conduct which has more, (tveṣadyumnāya+santi) For that light, they illuminate with fame or food. (tat)=to that, (niyogena)=definityeely, (devattam)=which are given by God or given by scholars or teachers, (yūyam)=all of you, (brahma)=of Vedas, [una]=those, (gāyata)=recite ṣaḍja etcetera Vedic accents.

    English Translation (K.K.V.)

    O learned men! Those who are these airs, for the strength of all of you, with which they rub against each other, with which they are strong, such conduct which is more in which, that illuminates with fame or food for that luminous. Those who have been given by God or have been given by scholars or teachers, all of you should chant those mantras etc. of the Vedas.

    Footnote

    Translation of the comments by Maharshi Dayanand- Max Muller Sahib means that in whose houses the wind deity comes, O wise men! You praise those deities in front of them and what kind of deities are there that they are frenzied conquerors or speedy, this is the proof of the fourth mandal, seventeenth hymn, second mantra. So it is incorrect, because it is possible to praise the qualities of the wind without its presence or proximity to the stage of the winds and there is no deity of the wind other than the wind. Due to this and the evidence given of the mantras, their intended meaning is not compatible with their actual meaning.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Learned people should read the Vedas spoken by God, know the qualities of air and give happiness to all living beings by performing rituals of deeds of fame and power.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the learned persons do with the air is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, by the proper application of the winds which are endowed with terrible vigor and strength and make you illustrious, sing the Vedic Mantras revealed or given by God with Shadja and other tunes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Learned persons after studying the Vedas and knowing the attributes of the air should give happiness to all beings by doing glorious mighty deeds. Prof. Maxmuller's translation of the Mantra as “Sing forth the God-given prayer to the wild host of your Maruts (storm Gods) endowed with terrible vigor and strength.” is not correct.

    Translator's Notes

    Prof. Maxmuller takes Maruts to be "Storm Gods" which is wrong as pointed out before. The word means learned priests, brave soldiers or Monsoon wind etc. देवत्तं ब्रह्म गायत which clearly shows that the Vedas are Revealed has been wrongly translated by Prof. Maxmuller simply as "God given prayer." It is still more surprising to find that Sayanacharya has taken ब्रह्म used in the Mantra for ब्रह्म हविर्लक्षणम् अन्नम् or food in the form of oblation instead of taking it in the sense of the well-known sense of the Veda, for which there are clear authorities like- ब्रह्म वौ ऋक् [कौषीतकी ब्रा० ७.१०] ब्रह्म वै मन्त्रः [शतपथ ब्रा० ६.१.१.५] वेदो ब्रह्म [जेमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणै ४.२५.३]

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