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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    को वो॒ वर्षि॑ष्ठ॒ आ न॑रो दि॒वश्च॒ ग्मश्च॑ धूतयः । यत्सी॒मन्तं॒ न धू॑नु॒थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः । वः । वर्षि॑ष्ठः । आ । न॒रः॒ । दि॒वः । च॒ । ग्मः । च॒ । धू॒त॒यः॒ । यत् । सी॒म् । अन्त॑म् । न । धू॒नु॒थ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    को वो वर्षिष्ठ आ नरो दिवश्च ग्मश्च धूतयः । यत्सीमन्तं न धूनुथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कः । वः । वर्षिष्ठः । आ । नरः । दिवः । च । ग्मः । च । धूतयः । यत् । सीम् । अन्तम् । न । धूनुथ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (कः) प्रश्ने (वः) युष्माकं मध्ये (वर्षिष्ठः) अतिशयेन वृद्धः (आ) समन्तात् (नरः) नयन्ति ये ते नरस्तत्संबुद्धौ (दिवः) द्योतकान् सूर्यादिलोकान् (च) समुच्चये (ग्मः) प्रकाशरहितपृथिव्यादिलोकान्। ग्मेतिपृथिवीनामसु पठितम्। निघं० १।१। अत्र गमधातोर्बाहुलकादौणादिक आप्रत्यय उपधालोपश्च। (च) तत्संबंधितश्च (धूतयः) धून्वन्ति ये ते (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (अन्तम्) वस्त्रप्रान्तम् (न) इव (धूनुथ) शत्रून् कम्पयत ॥६॥

    अन्वयः

    पुनरेतेभ्योप्रजाराजजनाभ्यां किं किं कार्य्यं ज्ञातव्यं चेत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे धूतयो नरो विद्वांसो मनुष्या यद्ये यूयं दिवः सूर्यादिप्रकाशकाँल्लोकाँस्तत्सम्बन्धिनोऽन्याँश्च ग्मः ग्मपृथिवीस्तत्संबंधिन इतराँश्च सीं सर्वतस्तृणवृक्षाद्यवयवान् कंपयन्तो वायवो नेव शत्रुगणानामन्तं यदाधूनुथ समन्तात्कम्पयत तदा वो युष्माकं मध्ये को वर्षिष्ठो विद्वान्न जायेत ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। विद्वद्भी राजपुरुषैर्यथाकश्चिद्बलवान्मनुष्यो निर्बलं केशान् गृहीत्वा। कम्पयति यथा च वायवः सर्वान् लोकान् धृत्वा कम्पयित्वा चालयित्वा स्वं स्वं परिधिं प्रापयन्ति तथैव सर्वं शत्रुगणं प्रकम्प्य तत्स्थानात्प्रचाल्य प्रजा रक्षणीया ॥६॥ मोक्षमूलरोक्तिः। हे मनुष्या युष्माकं मध्ये महान् कोस्ति यूयं कंपयितार आकाशपृथिव्योः। यदा यूयं धारितवस्त्रप्रान्तकम्पनवत् तान् कम्पयत। अन्तशब्दार्थं सायणाचार्योक्तं न स्वीकुर्वे किंतु विलसनाख्यादिभिरुक्तमित्यशुद्धमिति। कुतः। अत्रोपमालंकारेण यथा राजपुरुषाः शत्रूनितरे मनुष्यास्तृणकाष्ठादिकं च गृहीत्वा कम्पयन्ति तथा वायवोऽग्निपृथिव्यादिकं गृहीत्वा कम्पयन्तीत्यर्थस्य विदुषां सकाशान्निश्चयः कार्य इत्युक्तत्वात्। यथा सायणाचार्येण कृतोर्थो व्यर्थोस्ति तथैव मोक्षमूलरोक्तोऽस्तीति विजानीमः ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इन पवनों से मनुष्यों को क्या-२ करना वा जानना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो ! (धूतयः) शत्रुओं को कंपानेवाले (नरः) नीतियुक्त (यत्) ये तुम लोग (दिवः) प्रकाशवाले सूर्य आदि (च) वा उनके संबन्धी और तथा (ग्मः) पृथिवी (च) और उनके संबन्धी प्रकाश रहित लोकों को (सीम्) सब ओर से अर्थात् तृण वृक्ष आदि अवयवों के सहित ग्रहण करके कम्पाते हुए वायुओं के (न) समान शत्रुओं का (अन्तम्) नाश कर दुष्टों को जब (आधूनुथ) अच्छे प्रकार कम्पाओ तब (वः) तुम लोगों के बीच में (कः) कौन (वर्षिष्ठः) यथावत् श्रेष्ठ विद्वान् प्रसिद्ध न हो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। विद्वान् राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे कोई बलवान् मनुष्य निर्बल मनुष्य के केशों का ग्रहण करके कम्पाता और जैसे वायु सब लोकों का ग्रहण तथा चलायमान कर के अपनी-२ परिधि में प्राप्त करते हैं वैसे ही सब शत्रुओं को कम्पा और उनके स्थानों से चलायमान कर के प्रजा की रक्षा करें ॥६॥ मोक्षमूलर साहिब का अर्थ कि हे मनुष्यो तुम्हारे बीच में बड़ा कौन है तथा तुम आकाश वा पृथिवी लोक को कम्पानेवाले हो जब तुम धारण किये हुए वस्त्र का प्रान्त भाग कंपने समान उनको कंपित करते हो। सायणाचार्य के कहे हुए अन्त शब्द के अर्थ को मैं स्वीकार नहीं करता किन्तु विलसन आदि के कहे हुए को स्वीकार करता हूँ। यह अशुद्ध और विपरीत है क्योंकि इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे राजपुरुष शत्रुओं और अन्य मनुष्य तृणकाष्ठ आदि को ग्रहण करके कम्पाते हैं वैसे वायु भी हैं इस अर्थ का विद्वानों के सकाश से निश्चय करना चाहिये इस प्रकार कहे हुए व्याख्यान से । जैसा सायणाचार्य का किया हुआ अर्थ व्यर्थ है वैसा ही मोक्षमूलर साहिब का किया हुआ अर्थ अनर्थ है ऐसा हम सब सज्जन लोग जानते हैं ॥६॥

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    विषय

    फिर इन पवनों से मनुष्यों को क्या-क्या करना वा जानना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे धूतयः नरः विद्वांसो मनुष्याः यद् यूयं दिवः [सूर्यादि] प्रकाशकान् लोकान् तत् सम्बन्धिनः अन्यान् च ग्मः [पृथिवीः] तत्सम्बन्धिनः इतरान् च सीं [ सर्वतः ] तृणवृक्षाद्यवयवान् कम्पयन्तः वायवः न (इव) शत्रुगणानाम् अन्तं यदा धूनुय (समन्तात् कम्पयत) तदा वः (युष्माकम् ) मध्ये कः वर्षिष्ठ विद्वान् न जायेत ?

    पदार्थ

    हे (धूतयः) धून्वन्ति ये ते=शत्रुओं को कंपानेवाले वे जो,  (नरः) नयन्ति ये ते नरस्तत्संबुद्धौ=जो ले जाते हैं, वे (विद्वांसो)=विद्वान्, (मनुष्याः)=मनुष्य, (यत्) ये=जो, (यूयम्)=तुम सब,  (दिवः) सूर्यादि प्रकाशकान् लोकान्=सूर्यादि प्रकाश  लोकों के, (तत्)=उस, (सम्बन्धिनः)=सम्बन्धियों से,  (अन्यान्)=भिन्न, (च)=और, (ग्मः) पृथिवीः- प्रकाशरहितपृथिव्यादिलोकान्=प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोक हैं। (तत्)=उसके, (सम्बन्धिनः)=सम्बन्धियों से,  (इतरान्)=भिन्न, (च)=भी, (सीम्) सर्वतः=हर ओर से, (तृणवृक्षाद्यवयवान्)=पत्तियों को और वृक्ष आदि के भागों को,  (कम्पयन्तः)=कम्पाते हैं,  (वायवः)=पवनों के,  (न) इव=समान,  (शत्रुगणानाम्)=शत्रुओं के समूह की, (अन्तम्)=अन्तिम स्थिति, (यदा)=जब,  (धूनुय) समन्तात् कम्पयत=हर ओर से कम्पाते हैं,  (तदा)=तब, (वः) युष्माकं =तुम सबके, (मध्ये)=बीच में, (कः) प्रश्ने=कौन, (वर्षिष्ठः) अतिशयेन वृद्ध=अतिशय वृद्ध (विद्वान्)= विद्वान्,  (न)=न, (जायेत)=हो जाये ? ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। विद्वान् राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे कोई बलवान् मनुष्य निर्बल मनुष्य के केशों का ग्रहण करके कम्पाता और जैसे वायु सब लोकों का ग्रहण तथा चलायमान कर के अपनी- अपनी परिधि में प्राप्त करते हैं वैसे ही सब शत्रुओं को कम्पा और उनके स्थानों से चलायमान कर के प्रजा की रक्षा करें ॥६॥ 

    विशेष

    महर्षिकृत टिप्पणी का भाषानुवाद- मोक्षमूलर साहिब का अर्थ कि हे मनुष्यो तुम्हारे बीच में बड़ा कौन है तथा तुम आकाश वा पृथिवी लोक को कम्पानेवाले हो जब तुम धारण किये हुए वस्त्र का प्रान्त भाग कंपने समान उनको कंपित करते हो। सायणाचार्य के कहे हुए अन्त शब्द के अर्थ को मैं स्वीकार नहीं करता किन्तु विलसन आदि के कहे हुए को स्वीकार करता हूँ। यह अशुद्ध और विपरीत है क्योंकि इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे राजपुरुष शत्रुओं और अन्य मनुष्य तृणकाष्ठ आदि को ग्रहण करके कम्पाते हैं वैसे वायु भी हैं इस अर्थ का विद्वानों के सकाश से निश्चय करना चाहिये इस प्रकार कहे हुए व्याख्यान से । जैसा सायणाचार्य का किया हुआ अर्थ व्यर्थ है वैसा ही मोक्षमूलर साहिब का किया हुआ अर्थ अनर्थ है ऐसा हम सब सज्जन लोग जानते हैं ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (धूतयः) शत्रुओं को कम्पानेवाले वे  (नरः) जो ले जाते हैं, ऐसे (विद्वांसो)=विद्वान्, (मनुष्याः) मनुष्य (यत्) जो (यूयम्) तुम सब  (दिवः) सूर्यादि प्रकाश  लोकों के (तत्) उस (सम्बन्धिनः) सम्बन्धी से  (अन्यान्) भिन्न (च) और (ग्मः) प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोक हैं। (तत्) उसके (सम्बन्धिनः) सम्बन्धी से  (इतरान्) भिन्न (च) भी (सीम्) हर ओर से (तृणवृक्षाद्यवयवान्) पत्तियों को और वृक्ष आदि के भागों को (कम्पयन्तः) कम्पाते हैं।  (वायवः) पवनों के  (न) समान  (शत्रुगणानाम्) शत्रुओं के समूह की (अन्तम्) अन्तिम स्थिति आने तक (यदा) जब  (धूनुय) हर ओर से कम्पाते हैं,  (तदा) तब (वः) तुम सबके (मध्ये) बीच में (कः) कौन (वर्षिष्ठः) अतिशय वृद्ध (विद्वान्) विद्वान् (न) न (जायेत) हो जाये ? ॥६॥
     

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (कः) प्रश्ने (वः) युष्माकं मध्ये (वर्षिष्ठः) अतिशयेन वृद्धः (आ) समन्तात् (नरः) नयन्ति ये ते नरस्तत्संबुद्धौ (दिवः) द्योतकान् सूर्यादिलोकान् (च) समुच्चये (ग्मः) प्रकाशरहितपृथिव्यादिलोकान्। ग्मेतिपृथिवीनामसु पठितम्। निघं० १।१। अत्र गमधातोर्बाहुलकादौणादिक आप्रत्यय उपधालोपश्च। (च) तत्संबंधितश्च (धूतयः) धून्वन्ति ये ते (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (अन्तम्) वस्त्रप्रान्तम् (न) इव (धूनुथ) शत्रून् कम्पयत ॥६॥
    विषयः- पुनरेतेभ्योप्रजाराजजनाभ्यां किं किं कार्य्यं ज्ञातव्यं चेत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे धूतयो नरो विद्वांसो मनुष्या यद्ये यूयं दिवः सूर्यादिप्रकाशकाँल्लोकाँस्तत्सम्बन्धिनोऽन्याँश्च ग्मः ग्मपृथिवीस्तत्संबंधिन इतराँश्च सीं सर्वतस्तृणवृक्षाद्यवयवान् कंपयन्तो वायवो नेव शत्रुगणानामन्तं यदाधूनुथ समन्तात्कम्पयत तदा वो युष्माकं मध्ये को वर्षिष्ठो विद्वान्न जायेत ॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। विद्वद्भी राजपुरुषैर्यथाकश्चिद्बलवान्मनुष्यो निर्बलं केशान् गृहीत्वा। कम्पयति यथा च वायवः सर्वान् लोकान् धृत्वा कम्पयित्वा चालयित्वा स्वं स्वं परिधिं प्रापयन्ति तथैव सर्वं शत्रुगणं प्रकम्प्य तत्स्थानात्प्रचाल्य प्रजा रक्षणीया ॥६॥ 

    टिप्पणी (महर्षिकृतः)- मोक्षमूलरोक्तिः। हे मनुष्या युष्माकं मध्ये महान् कोस्ति यूयं कंपयितार आकाशपृथिव्योः। यदा यूयं धारितवस्त्रप्रान्तकम्पनवत् तान् कम्पयत। अन्तशब्दार्थं सायणाचार्योक्तं न स्वीकुर्वे किंतु विलसनाख्यादिभिरुक्तमित्यशुद्धमिति। कुतः। अत्रोपमालंकारेण यथा राजपुरुषाः शत्रूनितरे मनुष्यास्तृणकाष्ठादिकं च गृहीत्वा कम्पयन्ति तथा वायवोऽग्निपृथिव्यादिकं गृहीत्वा कम्पयन्तीत्यर्थस्य विदुषां सकाशान्निश्चयः कार्य इत्युक्तत्वात्। यथा सायणाचार्येण कृतोर्थो व्यर्थोस्ति तथैव मोक्षमूलरोक्तोऽस्तीति विजानीमः ॥६॥

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    विषय

    द्युलोक व भूलोक को कम्पित करना

    पदार्थ

    १. हे (नरः) - शरीर में सब इन्द्रियों का नेतृत्व करनेवाले प्राणो ! (दिवः च) - द्युलोक के अर्थात् मस्तिष्क के (ग्मः च) - और पृथिवीलोक , अर्थात् शरीर के (धूतयः) - कम्पित करनेवाले प्राणो ! (यत्) - जब (सीम्) - सदा (अन्तं न) - वस्त्रप्रान्त की भाँति (धूनुथ) - तुम इन्हें कम्पित कर निर्मल कर देते हो, अर्थात् जैसे कपड़े को झाड़कर उसपर लगी धूल को उससे पृथक् कर देते हैं, उसी प्रकार जब आप मस्तिष्क व शरीर की मैल को दूर कर देते हो तब (आ वर्षिष्ठः) - सब आनन्दों की वर्षा करनेवाला अथवा सर्वश्रेष्ठ (कः) - आनन्दस्वरूप प्रभु (वः) - आपका होता है, अर्थात् प्राणसाधना से शरीर के नीरोग व मस्तिष्क के दीप्त होने पर प्रभु का दर्शन व प्राप्ति होती है । एवं, प्रभु प्राणों के हैं, अर्थात् उन्हीं के द्वारा प्राप्य हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से द्युलोक व भूलोक - मस्तिष्क व शरीर दोनों का शोधन होकर प्रभु का दर्शन होता है । एवं, प्राणसाधना हमें प्रभु की ओर ले - चलती है । 
     

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    विषय

    वायुओं के दृष्टान्त से वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (नरः) नायक, नेता वीरजनो! (दिवः च ग्मः च) आकाश और पृथिवी, अथवा सूर्यादि लोक और पृथिवी या उनपर स्थित पदार्थों को (धूतयः) कंपा देने वाले वायुओं के समान आकाश जमीन को अपने बल पराक्रम से कंपा देने वाले हो। (वः) आप लोगों में से (वर्षिष्ठः कः) कौन सबसे बड़ा है? (यत्) जिसके बलपर आप लोग (सीम्) सदा (अन्तम्) वायुएं जिस प्रकार वृक्ष या वस्त्र के अग्रभाग, फुनगी या अंचरे को हिला डालते हैं उसी प्रकार शत्रुओं को (अहा धूनुथ) कंपा डालते हो। अथवा (नः वर्षिष्ठः) तुममें सबसे बड़ा ‘क’ प्रजापति, राजा ही है जिसके बल पर तुम सबको कंपाते हो। अध्यात्म में—ये नेतागण प्राणगण हैं। वे आत्मा के बल पर शरीर के कर चरणादि सब अंगों को हिलाते डुलाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा एखादा बलवान मनुष्य निर्बल माणसांच्या केसांना धरून हलवितो व जसे वायू सर्व गोलांना ग्रहण करून चलायमान करतो व आपले क्षेत्र काबीज करतो तसेच सर्व शत्रूंना कंपित करून विद्वान राजपुरुषांनी त्यांच्यावर कब्जा करून प्रजेचे रक्षण करावे. ॥ ६ ॥

    टिप्पणी

    मोक्षमूलर साहेबांचा अर्थ असा आहे की, हे माणसांनो ! तुमच्यामध्ये मोठे कोण आहे? तुम्ही आकाश किंवा पृथ्वीला कंपित करणारे आहात. तुम्ही धारण केलेल्या वस्त्राचे टोक कंपित होत असल्यासारखे त्यांना कंपित करता. सायणाचार्यांनी सांगितलेल्या अन्त शब्दाचा अर्थ मी स्वीकारीत नाही; परंतु विल्सन इत्यादींनी सांगितलेला स्वीकारतो. हे अशुद्ध व विपरीत आहे. कारण या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे राजपुरुष शत्रूंना व इतर माणसे तृणकाष्ठाला कंपित करतात तसे वायूही आहेत. या अर्थाचा विद्वानांच्या साह्याने निश्चय केला पाहिजे. या प्रकारच्या व्याख्येने जसा सायणाचार्यांनी केलेला अर्थ व्यर्थ आहे तसेच मोक्षमूलर साहेबांचा केलेला अर्थ अनर्थ आहे, हे आम्ही सर्व जाणतो. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ye men, energetic as the winds, movers and shakers of earth and heavens, who is the mightiest so great of you that you shake the world around you to the very end like the leaves of a tree or the hem of a gown?

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    Subject of the mantra

    Then, what should humans do with these airs and what should they know with these airs, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dhūtayaḥ)=those who shake the enemies, (naraḥ)=those who take, such, (vidvāṃso)=scholars, (manuṣyāḥ)=humans, (yat)=those, (yūyam)=all of you, (divaḥ)=in the Sun wold etc. (tat)=that, (sambandhinaḥ) =to the akin, (anyān)=different, (ca)=and, (gmaḥ)=are Earth etc. worlds which are without light, (tat)=its, (sambandhinaḥ)= from connected, (itarān)=different, (ca)=also, (sīm)=from all sides, (tṛṇavṛkṣādyavayavān)=leaves and parts of trees etc. (kampayantaḥ)=tremble, (vāyavaḥ)=of winds, (na)=like, (śatrugaṇānām)=of group of enemies, (antam)=until the end, (yadā)=when, (dhūnuya)=trembling all over, (tadā)=then, (vaḥ)=of all of you, (madhye)=between, (kaḥ)=who,(varṣiṣṭhaḥ)=very old, (vidvān)=scholar, (na)=not, (jāyeta)=Let it become ?

    English Translation (K.K.V.)

    O learned man! The one, who takes the enemies away, which is different from that akin to all of you the Sun and light worlds and earth etcetera world without light. Those other than his akin also shake the leaves and parts of trees etc. from all sides. Like the winds, when the groups of enemies shake from all sides till the final stage comes, then who among you all does not become a very old scholar?

    Footnote

    Translation of the comments by Maharshi Dayanand- Max Muller Sahib means that human who is bigger among you and you are the one who shakes the sky and the earth. When you vibrate them like the border part of the cloth you are wearing. He does not accept the meaning of the last term said by Sayanacharya but accepts what Wilson etc. have explained. It is incorrect and opposite because this mantra has simile as figure of speech. Just as, princes tremble after enemies and other human beings take straw, wood etc., so are the winds. This meaning should be decided with the help of scholars. We all gentlemen know that the meaning given by Sayanacharya is useless, similarly the meaning given by Max Muller Sahib is meaningless.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figure of speech in this mantra. Learned princes should, as a strong man trembles by grasping the hair of a weak man, and as the wind grasps and moves all the worlds and attains them in their respective circles, in the same way, by shaking all the enemies from their place should protect them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the kings and their subjects know from them is taught in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, shakers of all ignorance, you will shake your enemies to their very end, like the winds that are shakers of heaven and earth, who will not become advanced in knowledge and wisdom among you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वार्षिष्ठः) अतिशयेन वृद्धः = most advanced. ( नरः) नयन्ति ये ते नरस्तत्सम्बुद्धौ = Leaders among men.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simil used in the Mantra. Learned Officers of the State should shake all host of the enemies as a mighty person shakes or makes to tremble a weak person by catching hold of his hair or as the winds uphold, shake and move the worlds in their axis. They should protect and preserve their subjects well. Professor Maxmuller's translation as- Who, O Ye men, is the strongest among you here, shaker of heaven and earth, when you shake them like the hem of a garment." is not correct. His (Prof. M.Muller's) statement that “Antamna, literally, like an end, is explained by Sayana as the top of a tree. Roth proposes, like the hem of a garment, which I prefer etc. "is also not correct as the simile clearly shows that as the winds shake all worlds, so the workers and officers of the State shake their enemies. As a matter of fact, the meaning given by Sayanacharya and Prof. Maxmuller is erroneous.

    Translator's Notes

    It is gratifying to note that though Prof. Maxmuller takes the word "Maruts" wherever it occurs as "Storm Gods," in the translation of the Mantra he has rendered it as "O Ye men" that is consistent with the spirit of the Vedas which clearly use term 'नरः, Leading men नयन्ति ये ते

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