ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 7
नि वो॒ यामा॑य॒ मानु॑षो द॒ध्र उ॒ग्राय॑ म॒न्यवे॑ । जिही॑त॒ पर्व॑तो गि॒रिः ॥
स्वर सहित पद पाठनि । वः॒ । यामा॑य । मानु॑षः । द॒ध्रे । उ॒ग्राय॑ । म॒न्यवे॑ । जिही॑त । पर्व॑तः । गि॒रिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि वो यामाय मानुषो दध्र उग्राय मन्यवे । जिहीत पर्वतो गिरिः ॥
स्वर रहित पद पाठनि । वः । यामाय । मानुषः । दध्रे । उग्राय । मन्यवे । जिहीत । पर्वतः । गिरिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(नि) निश्चयार्थे (वः) युष्माकम् (यामाय) यथार्थव्यवहारप्रापणाय। अर्त्तिस्तुसु० उ० १।१३९#। इति याधातोर्मप्रत्ययः। (मानुषः) सभापतिर्मनुजः (दध्रे) धरति। अत्र लडर्थे लिट्। (उग्राय) तीव्रदण्डाय (मन्यवे) क्रोधरूपाय (जिहीत) स्वस्थानाच्चलति। अत्र लडर्थे लिङ्। (पर्वतः) मेघः (गिरिः) यो गिरति जलादिकं गृणाति महतः शब्दान् वा सः ॥७॥ #[वै० यं० मुद्रित द्वितीयावृत्तौ ‘१।१४०’ एषा संख्या वर्त्तते।]
अन्वयः
पुनाराजप्रजाजनैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे प्रजासेनास्था मनुष्या भवन्तो यस्य सेनापतेर्भयाद्वायोः सकाशाद्गिरिः पर्वत इव शत्रुगणो जिहीत पलायते स मानुषो वो युष्माकं यामाय मन्यव उग्राय च राज्यं दध्र इति विजानन्तु ॥७॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोलंकारः। हे प्रजासेनास्था मनुष्याः युष्माकं सर्वे व्यवहारा राज्यव्यवस्थयैव वायुवद्व्यवस्थाप्यन्ते। स्वनियमविचलितेभ्यश्च युष्मभ्यं वायुरिवसभाध्यक्षो भृशं दण्डं दद्यात् यस्य भयाच्छत्रवश्च वायोर्मेघाइव प्रचलिता भवेयुस्तं पितृवन्मन्यध्वम् ॥७॥ मोक्षमूलरोक्तिः। हे वायवो युष्माकमागमनेन मनुष्यस्य पुत्रः स्वयमेव नम्रो भवति युष्माकं क्रोधात् पलायत, इति व्यर्थास्ति कुतोऽत्र गिरिपर्वतशब्दाभ्यां मेघो गृहीतोस्ति मानुषशब्दोर्थो निदध्रे इति क्रियायाः कर्त्तास्त्यतो नात्र बालकशिरो नमनस्य ग्रहणं यथा सायणाचार्यस्य व्यर्थोर्थः तथैव मोक्षमूलरस्यापीति वेद्यम्। यदि वेदकर्त्तेश्वर एव नैव मनुष्याः सन्तीत्येतावत्यपि मोक्षमूलरेण न स्वीकृतं तर्हि वेदार्थज्ञानस्य तु का कथा ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे राजा और प्रजाजन कैसे होने चाहियें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे प्रजासेना के मनुष्यो ! जिस सभापति राजा के भय से वायु के बल से (गिरिः) जल को रोकने गर्जना करनेवाले (पर्वतः) मेघ शत्रु लोग (जिहीत) भागते हैं वह (मानुषः) सभाध्यक्ष राजा (वः) तुम लोगों के (यामाय) यथार्थ व्यवहार चलाने और (मन्यवे) क्रोधरूप (उग्राय) तीव्र दण्ड देने के लिये राज्यव्यवस्था को (दध्रे) धारण कर सकता है ऐसा तुम लोग जानो ॥७॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे प्रजा सेनास्थ मनुष्यों तुम लोगों के सब व्यवहार वायु के समान राजव्यवस्था ही से ठीक-२ चल सकते हैं और जब तुम लोग अपने नियमोपनियमों पर नहीं चलते हो तब तुम को सभाध्यक्ष राजा वायु के समान शीघ्र दण्ड देता है और जिसके भय से वायु से मेघों के समान शत्रुजन पलायमान होते हैं उसको तुम लोग पिता के समान जानो ॥७॥ मोक्षमूलर कहते हैं कि हे पवनों आपके आने से मनुष्य का पुत्र अपने आपही नम्र होता है तथा तुम्हारे क्रोध से डर के भागता है। यह उनका कथन व्यर्थ हैं, क्योंकि इस मंत्र में गिरि और पर्वत शब्द से मेघ का ग्रहण किया है। तथा मानुष शब्द का अर्थ धारण क्रिया का कर्त्ता है और न इस मंत्र में बालक के शिर के नमन होने का ग्रहण है। जैसा कि सायणाचार्य का अर्थ व्यर्थ है वैसा ही मोक्षमूलर का भी जानना चाहिये। वेद का करनेवाला ईश्वर ही है मनुष्य नहीं इतनी भी परीक्षा मोक्षमूलर साहिब ने नहीं की पुनः वेदार्थज्ञान की तो क्या ही कथा है ॥७॥
विषय
फिर वे राजा और प्रजाजन कैसे होने चाहियें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे प्रजासेनास्था मनुष्याः भवन्तः यस्य सेनापतेः भयाद् वायोः सकाशाद् गिरिः पर्वतः इव शत्रुगणः जिहीत पलायते स मानुषः वः (युष्माकम्) यामाय मन्यवे उग्राय च राज्यं दध्र इति विजानन्तु ॥७॥
पदार्थ
हे (प्रजासेनास्था)=प्रजा और सेना में स्थित, (मनुष्याः)=मनुष्यों! (भवन्तः)=आप, (यस्य)=जिस, (सेनापतेः)=सेनापति के, (भयाद्)=भय से, (वायोः)=पवन, (सकाशाद्)=निकट से, (गिरिः) यो गिरति जलादिकं गृणाति महतः शब्दान् वा सः=जो गिरता है और जल आदि को ग्रहण करते हुए बहुत ऊँचे शब्द करता है, (पर्वतः) मेघः=ऐसे बादल के, (इव)=समान, (शत्रुगणः)=शत्रुगण, (जिहीत) स्वस्थानाच्चलति=अपने स्थान से चल पड़ते है, (पलायते)=पलायन कर जाते हैं। (सः)=वह, (मानुषः) सभापतिर्मनुजः=सभापति मनुष्य, (वः) युष्माकम्=तुम सबको, (यामाय) यथार्थव्यवहारप्रापणाय=यथार्थ व्यवहार की प्राप्ति के लिए, (मन्यवे) क्रोधरूपाय=क्रोधरूपी, (उग्राय) तीव्रदण्डाय=तीव्र दण्ड के लिए, (च)=भी, (राज्यम्)=राज्य को, (दध्रे) धरति=धारण करता है, (इति)=ऐसा, (विजानन्तु)=विशेषरूप से जानो ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे प्रजा सेनास्थ मनुष्यों तुम लोगों के सब व्यवहार वायु के समान राजव्यवस्था ही से ठीक-ठीक चल सकते हैं और जब तुम लोग अपने नियमोपनियमों पर नहीं चलते हो तब तुम को सभाध्यक्ष राजा वायु के समान शीघ्र दण्ड देता है और जिसके भय से वायु से मेघों के समान शत्रुजन पलायमान होते हैं उसको तुम लोग पिता के समान जानो ॥७॥
विशेष
महर्षिकृत टिप्पणी का भाषानुवाद- मोक्षमूलर कहते हैं कि हे पवनों आपके आने से मनुष्य का पुत्र अपने आपही नम्र होता है तथा तुम्हारे क्रोध से डर के भागता है। यह उनका कथन व्यर्थ हैं, क्योंकि इस मंत्र में गिरि और पर्वत शब्द से मेघ का ग्रहण किया है। तथा मानुष शब्द का अर्थ धारण क्रिया का कर्त्ता है और न इस मंत्र में बालक के शिर के नमन होने का ग्रहण है। जैसा कि सायणाचार्य का अर्थ व्यर्थ है वैसा ही मोक्षमूलर का भी जानना चाहिये। वेद का करनेवाला ईश्वर ही है मनुष्य नहीं इतनी भी परीक्षा मोक्षमूलर साहिब ने नहीं की पुनः वेदार्थज्ञान की तो क्या ही कथा है ॥७॥
अनुवादक की टिप्पणी- मन्त्र में “शत्रुगण” शब्द जल को रोकने, गर्जन करनेवाले मेघ रूपी पर्वतों के लिये प्रयोग किया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (प्रजासेनास्था) प्रजा और सेना में स्थित (मनुष्याः) मनुष्यों! (भवन्तः) आप (यस्य) जिस (सेनापतेः) सेनापति के (भयाद्) भय से (वायोः) पवन के (सकाशाद्) निकट से (गिरिः) जो गिरता है और जल आदि को ग्रहण करते हुए बहुत ऊँचे शब्द करता है, (पर्वतः) ऐसे बादल के (इव) समान (शत्रुगणः) शत्रुगण (जिहीत) अपने स्थान से चल पड़ते है [और] (पलायते) पलायन कर जाते हैं। (सः) वह (मानुषः) सभापति मनुष्य (वः) तुम सबको (यामाय) यथार्थ व्यवहार की प्राप्ति के लिए (मन्यवे) क्रोधरूपी (उग्राय) तीव्र दण्ड के लिए (च) भी (राज्यम्) राज्य को (दध्रे) धारण करता है, (इति) ऐसा (विजानन्तु) विशेषरूप से जानो ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नि) निश्चयार्थे (वः) युष्माकम् (यामाय) यथार्थव्यवहारप्रापणाय। अर्त्तिस्तुसु० उ० १।१३९#। इति याधातोर्मप्रत्ययः। (मानुषः) सभापतिर्मनुजः (दध्रे) धरति। अत्र लडर्थे लिट्। (उग्राय) तीव्रदण्डाय (मन्यवे) क्रोधरूपाय (जिहीत) स्वस्थानाच्चलति। अत्र लडर्थे लिङ्। (पर्वतः) मेघः (गिरिः) यो गिरति जलादिकं गृणाति महतः शब्दान् वा सः ॥७॥ #[वै० यं० मुद्रित द्वितीयावृत्तौ '१।१४०' एषा संख्या वर्त्तते।]
विषयः- पुनाराजप्रजाजनैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे प्रजासेनास्था मनुष्या भवन्तो यस्य सेनापतेर्भयाद्वायोः सकाशाद्गिरिः पर्वत इव शत्रुगणो जिहीत पलायते स मानुषो वो युष्माकं यामाय मन्यव उग्राय च राज्यं दध्र इति विजानन्तु ॥७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र लुप्तोलंकारः। हे प्रजासेनास्था मनुष्याः युष्माकं सर्वे व्यवहारा राज्यव्यवस्थयैव वायुवद्व्यवस्थाप्यन्ते। स्वनियमविचलितेभ्यश्च युष्मभ्यं वायुरिवसभाध्यक्षो भृशं दण्डं दद्यात् यस्य भयाच्छत्रवश्च वायोर्मेघाइव प्रचलिता भवेयुस्तं पितृवन्मन्यध्वम् ॥७॥
टिप्पणी (महर्षिकृतः)- मोक्षमूलरोक्तिः। हे वायवो युष्माकमागमनेन मनुष्यस्य पुत्रः स्वयमेव नम्रो भवति युष्माकं क्रोधात् पलायत, इति व्यर्थास्ति कुतोऽत्र गिरिपर्वतशब्दाभ्यां मेघो गृहीतोस्ति मानुषशब्दोर्थो निदध्रे इति क्रियायाः कर्त्तास्त्यतो नात्र बालकशिरो नमनस्य ग्रहणं यथा सायणाचार्यस्य व्यर्थोर्थः तथैव मोक्षमूलरस्यापीति वेद्यम्। यदि वेदकर्त्तेश्वर एव नैव मनुष्याः सन्तीत्येतावत्यपि मोक्षमूलरेण न स्वीकृतं तर्हि वेदार्थज्ञानस्य तु का कथा ॥७॥
विषय
पर्वत का हिल जाना
पदार्थ
१. (मानुषः) - एक विचारशील ज्ञानी पुरुष (यामाय) - सब इन्द्रियों व चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए तथा (उग्राय मन्यवे) - तेजस्वितायुक्त ज्ञान के सम्पादन के लिए (वः) - हे प्राणो ! आपको (निदध्रे) - निश्चय से धारण करता है, अर्थात् आपके धारण से जहाँ चित्तवृत्तियों का निरोध होता है वहाँ उनके निरोध के परिणामस्वरूप तेजस्विता प्राप्त होती है और ज्ञान की भी वृद्धि होती है ।
२. इन प्राणों का निरोध होने पर , अर्थात् प्राणसाधना से प्राणसंयम सिद्ध होने पर (गिरः) - सब अच्छाइयों को निगीर्ण करनेवाली (पर्वतः) - पञ्च पर्वोंवाली अविद्या (जिहीत) - [गच्छेत् - सा०] नष्ट हो जाती है । प्राणसंयम से अन्तः करण प्रभु के प्रकाश से चमक उठता है, सब अविद्यान्धकार नष्ट हो जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणनिरोध से चित्तवृत्तियों का निरोध होता है, तेजस्विता व ज्ञान प्राप्त होता है, अविद्यान्धकार नष्ट हो जाते हैं ।
विषय
वायुओं के दृष्टान्त से वीरों का वर्णन ।
भावार्थ
हे वीर पुरुषा! (वः) आप लोगों के (यामाय) नियन्त्रण करने और (उग्राय मन्यवे) आप लोगों के अति भयकारी क्रोध को वश करने के लिये ही (मानुषः) मननशील, विचारवान् राजा (निदध्रे) आप लोगों को अपने अधीन व्यवस्था में रखता है जिससे (पर्वतः) पर्वत के समान अचल और (गिरिः) मेघ के समान शस्त्रास्त्र वर्षण या गर्जनशील शत्रु भी (जिहीत) कांप जाता है। अथवा—आप लोगों को (उग्राय यामाय, उग्राय मन्यवे) उग्र, अति भयंकर प्रयाण, और अति तीव्र क्रोध के लिये ही रखता है जिससे शत्रु भी कांप जाता है। अध्यात्म में—ज्ञानी पुरुष तुम प्राणगण को (यामाय) इन्द्रियों के दमन और बलवान् (मन्यवे) ज्ञान प्राप्त करने के लिये (निदध्रे) वश करता है जिससे (पर्वतः) पर्ववान् मेरुदण्ड और (गिरिः) शब्दोच्चारण कारी मुख्य प्राण भी कम्पित होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे सैनिकांनो ! तुमचे सर्व व्यवहार वायूप्रमाणे राज्यव्यवस्थेनुसारच चालतात. जेव्हा तुम्ही आपल्या नियमोपनियमाप्रमाणे वागत नाही तेव्हा तुम्हाला सभाध्यक्ष राजा वायूप्रमाणे तात्काळ दंड देतो. वायूमुळे जसे मेघ पळतात तसे ज्याच्या भयाने शत्रू पळून जातात त्या राजाला तुम्ही पित्यासमान माना. ॥ ७ ॥
टिप्पणी
मोक्षमूलर म्हणतात की, हे वायूंनो ! तुमच्या येण्या-जाण्याने माणसाचा पुत्र स्वतःच नम्र होतो व तुमच्या क्रोधाने, भयाने पळून जातो. हे त्यांचे कथन व्यर्थ आहे. कारण या मंत्रात गिरी व पर्वत या शब्दांनी मेघाचा अर्थ घेतलेला आहे व मानुष शब्दाचा अर्थ धारणक्रियेचा कर्ता आहे. या मंत्रात बालकाच्या मस्तकाला नमन होण्याचा अर्थ ग्रहण केलेला आहे. जसा सायणाचार्यांचा अर्थ व्यर्थ आहे तसाच मोक्षमूलरचाही आहे हे जाणले पाहिजे. वेदाचा कर्ता ईश्वरच आहे माणूस नाही. एवढीही परीक्षा मोक्षमूलर साहेबांनी केलेली नाही. पुन्हा वेदार्थज्ञानाची तर काय कथा! ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The mightiest great man among you sustains your passionate morale and directs your might and main for the onward march of life. Shake the clouds. Cross the mountains.
Subject of the mantra
Then, what kind of those kings and subjects should be, this has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (prajāsenāsthā)=present in the persons of army, (manuṣyāḥ)=humans! (bhavantaḥ)=you, (yasya)=which, (senāpateḥ)= of the commander, (bhayād)=with fear, (vāyoḥ)=of the wind, (sakāśād)=from close quarters, (giriḥ)=one who falls down and creates loud words while taking water etc., (parvataḥ)=of such cloud, (iva)=like, (śatrugaṇaḥ)=enemies, (jihīta)=move along with, [aura]=and, (palāyate)=escape, (saḥ)=thar, (mānuṣaḥ)=chairperson, (vaḥ)=to all of you, (yāmāya)=to achieve realistic practice, (manyave)=wrathful, (ugrāya)=for severe punishment, (ca)=also, (rājyam)= to the state, (dadhre)=holds, (iti)=such, (vijānantu)=know this in particular.
English Translation (K.K.V.)
O humans present in the persons of army! Fearing the commander, who falls from near the wind and creates loud words while receiving water et cetera, the enemies of such a cloud move from their place and flee. Know this, especially that the presiding person holds the state even for severe punishment in the form of anger for you all to attain correct conduct.
Footnote
Comments of Maharshi Dayanand on Max Muller’s commentary- Max Muller says, “O winds! By your coming the son of man automatically humbles himself and runs away in fear of your anger.” This statement of his is futile, because in this mantra the words "giri" and "mountain" have been interpreted as the cloud. And the meaning of the word mānuṣa is the doer of the act of wearing and neither is there an eclipse of bowing down to the child's head in this mantra. Just as Sayanacharya's meaning is meaningless, Max Muller's should also be known in the same way. God is the doer of Vedas, not man, Max Muller Sahib did not even test this much, then what is the narration of knowledge of Vedas. TRANSLATOR’S COMMENTS- In the mantra, the word “śatrugaṇa” has been used for stopping the water, roaring cloud-like mountains.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is latent vocal simile as a figure of speech in this mantra. O people and men in the army! All your conduct can go well with the state system like wind and when you do not follow your rules and by-laws, then the king punishes you quickly like wind and because of whose fear the enemies flee like clouds from the wind, you know him as a father.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the kings and subjects be is taught further in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O people of the State and men of the army, you should know that the brave commander of the army by whose fear, the host of enemies flies away and begins to tremble like the cloud before the wind, upholds the State in order to lead you to noble conduct, for punishing the wicked severely, showing indignation towards all evil doers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
Prof. Maxmuller's translation of the Mantra as "At your approach the son of man holds himself down; the gnarled cloud fled at your fierce anger" is not correct. The words गिरि and पर्वत stand here for the clouds and not for the mountain, as explained by Sāyanacharya बहुविधपर्वयुक्तो गिरिः शिखरः The verb used in the Mantra is f which means "Certainly upholds." Therefore it is wrong on the part of Prof. Maxmuller to say that it expresses the holding down of the head or the cowering attitude of man. So both the interpretations given by Sayanacharya and Prof. Maxmuller are wrong. How could Prof. Maxmuller know the real meaning of the Vedic Mantras, when he did not believe in the Revelation of the Vedas ? (यामाय) यथार्थव्यवहारप्रापणाय । प्रतिस्तु सुधृक्षिक्षु मायावापदियक्षिनीभ्यो मन् ( उणा० १.१३९) इति या धातोर्मप्रत्ययः । (मानुषः) सभापतिर्मनुजः । = Man here as President of the Assembly.( पर्वतः ) मेघ: = Cloud. ( गिरिः ) यो गिरति जलादिकं, गृणाति महतः शब्दान् = Which rains down water and roars.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men of the army and other subjects of the State, all your dealings are organized and ordained by the proper system of administration. When you go astray from your appointed right path, the President of the Assembly who is powerful like the wind gives you severe punishment. You should treat him as your father, by whose fear enemies begin to shake like the roaring clouds before the strong wind.
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