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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    कद्ध॑ नू॒नं क॑धप्रियः पि॒ता पु॒त्रं न हस्त॑योः । द॒धि॒ध्वे वृ॑क्तबर्हिषः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कत् । ह॒ । नू॒नम् । क॒ध॒ऽप्रि॒यः॒ । पि॒ता । पु॒त्रम् । न । हस्त॑योः । द॒धि॒ध्वे । वृ॒क्त॒ऽब॒र्हि॒षः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कद्ध नूनं कधप्रियः पिता पुत्रं न हस्तयोः । दधिध्वे वृक्तबर्हिषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कत् । ह । नूनम् । कधप्रियः । पिता । पुत्रम् । न । हस्तयोः । दधिध्वे । वृक्तबर्हिषः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (कत्) कदा। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इत्याकारलोपः। (ह) प्रसिद्धम् (नूनम्) निश्चयार्थे (कधप्रियः) ये कधाभिः कथाभिः प्रीणयन्ति ते। अत्र वर्णव्यत्ययेन थकारस्य धकारः। ङ्यापोः संज्ञाछन्दसोर्बहुलम्। अ० ६।३।६३। अनेन ह्रस्वः। (पिता) जनकः (पुत्रम्) औरसम् (न) इव (हस्तयोः) बाह्वोः (दधिध्वे) धरिष्यथ। अत्र# लोडर्थे लिट्। (वृक्तबर्हिषः) ऋत्विजो विद्वांसः ॥१॥ #[लृडर्थे। सं०]

    अन्वयः

    तत्रादिमे मंत्रे वायुरिव मनुष्यैर्भवितव्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे कधप्रिया वृक्तबर्हिषो विद्वांसः पिता हस्तयोः पुत्रं न मरुतो लोकानिव कद्ध नूनं यज्ञकर्म दधिध्वे ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा पिता हस्ताभ्यां स्वपुत्रं गृहीत्वा शिक्षित्वा पालयित्वा सत्कार्येषु नियोज्य सुखी भवति तथैव ये मनुष्या मरुतो लोकानिव विद्यया यज्ञं गृहीत्वा युक्त्या संसेवन्ते त एव सुखिनो भवन्तीति ॥१॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब अड़तीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मंत्र में वायु के समान मनुष्यों को होना चाहिये, इस विषय का वर्णन अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (कधप्रियाः) सत्य कथाओं से प्रीति करानेवाले (वृक्तबर्हिषः) ऋत्विज् विद्वान् लोगो ! (न) जैसे (पिता) उत्पन्न करनेवाला जनक (पुत्रम्) पुत्र को (हस्तयोः) हाथों से धारण करता है, और जैसे पवन लोकों को धारण कर रहे हैं वैसे (कद्ध) कब प्रसिद्ध से (नूनम्) निश्चय करके यज्ञ कर्म को (दधिध्वे) धारण करोगे ॥१॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमा और वाचक लुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पिता हाथों से अपने पुत्र को ग्रहण कर शिक्षापूर्वक पालना तथा अच्छे कार्यों में नियुक्त करके सुखी होता और जैसे पवन सब लोकों को धारण करते हैं वैसे* विद्या से यज्ञ का ग्रहण कर युक्ति से अच्छे प्रकार सेवन करते हैं वे ही सुखी होते हैं ॥१॥ *सं० भा० के अनुसार यहाँ- जो मनुष्य इतना और होना चाहिये। सं०

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात वायूच्या दृष्टांताने विद्वानांचे गुणवर्णन करण्याने पूर्वीच्या सूक्ताबरोबर या सूक्ताची संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे पिता स्वतः पुत्राला शिक्षण देऊन पालन करतो व चांगल्या कार्यात नियुक्त करतो व सुखी होतो. जसे पवन सर्व गोलांना धारण करतात तसा विद्येने यज्ञाचे ग्रहण करून युक्तीने जे चांगल्या प्रकारे स्वीकार करतात तेच सुखी होतात. ॥ १ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Heroes of yajna, lovers of the stories of life and nature, you have collected the sacred grass for the yajna vedi. When for sure are you going to take the work of the nation in hand like a father taking up the child in arms for its nurture and nourishment?

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