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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    क्व॑ नू॒नं कद्वो॒ अर्थं॒ गन्ता॑ दि॒वो न पृ॑थि॒व्याः । क्व॑ वो॒ गावो॒ न र॑ण्यन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्व॑ । नू॒नम् । कत् । वः॒ । अर्थ॑म् । गन्ता॑ । दि॒वः । न । पृ॒थि॒व्याः । क्व॑ । वः॒ । गावः॑ । न । र॒ण्य॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः । क्व वो गावो न रण्यन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्व । नूनम् । कत् । वः । अर्थम् । गन्ता । दिवः । न । पृथिव्याः । क्व । वः । गावः । न । रण्यन्ति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (क्व) कुत्र (नूनम्) निश्चयार्थे (कत्) कदा (वः) युष्माकम् (अर्थम्) द्रव्यं (गन्त) गच्छत गच्छन्ति वा। अत्र पक्षे लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसीति शपोलुक्। तत्पनप्तन० इति तवादेशो ङित्वाभावादनुनासिकलोपाभावः। द्वद्यचोतस्तिङ् इति दीर्घश्च। (दिवः) द्योतनकर्मणः सूर्यस्य (न) इव (पृथिव्याः) भूमेरुपरि (क्व) कस्मिन् (वः) युष्माकम् (गावः) पशव इन्द्रियाणि वा (न) उपमार्थे (रण्यन्ति) रणन्ति शब्दयन्ति। अत्र व्यत्ययेन शपः स्थाने श्यन् ॥२॥

    अन्वयः

    पुनस्ते कथं प्रश्नोत्तरं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    मनुष्या यूयं कन्नूनं पृथिव्या दिवो गावोऽर्थं गन्त क्व वो युष्माकमर्थं गन्त तथा वो युष्माकं गावो रण्यन्ति नेव मरुतः क्व रणन्ति ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालंकारौ। यथा सूर्यस्य किरणाः पृथिव्यां स्थितान् पदार्थान् प्रकाशयन्ति। तथा यूयमपि विदुषां समीपं प्राप्य क्व वायूनां नियोगः कर्त्तव्य इति तान् पृष्ट्वाऽर्थान् प्रकाशयत। यथा गावः स्ववत्सान् प्रति शब्दयित्वा धावन्ति तथा यूयमपि विदुषां संगं कर्त्तुं शीघ्रं गच्छत गत्वा शब्दयित्वाऽस्माकमिन्द्रियाणि वायुवत् क्व स्थित्वाऽर्थान् प्रति गच्छन्तीति पृष्ट्वा युष्माभिर्निश्चेतव्यम् ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को परस्पर किस प्रकार प्रश्नोत्तर करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (न) जैसे (कत्) कब (नूनम्) निश्चय से (पृथिव्याः) भूमि के बाष्प और (दिवः) प्रकाश कर्मवाले सूर्य की (गावः) किरणें (अर्थम्) पदार्थों को (गन्त) प्राप्त होती हैं वैसे (क्व) कहाँ (वः) तुम्हारे अर्थ को (गन्त) प्राप्त होते हो जैसे (गावः) गौ आदि पशु अपने बछड़ों के प्रति (रण्यन्ति) शब्द करते हैं वैसे तुम्हारी गाय आदि शब्द करते हुओं के समान वायु कहाँ शब्द करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में दो उपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो जैसे सूर्य की किरणें पृथिवी में स्थित हुए पदार्थों को प्रकाश करती हैं वैसे तुम भी विद्वानों के समीप जाकर, कहाँ पवनों का नियोग करना चाहिये ऐसा पूछ कर अर्थों को प्रकाश करो और जैसे गौ अपने बछड़ों के प्रति शब्द करके दौड़ती हैं वैसे तुम भी विद्वानों के सङ्ग करने को प्राप्त हो तथा हम लोगों की इन्द्रियाँ वायु के समान कहाँ स्थित होकर अर्थों को प्राप्त होती हैं ऐसा पूछ कर निश्चय करो ॥२॥

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    विषय

    फिर मनुष्यों को परस्पर किस प्रकार प्रश्नोत्तर करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    मनुष्या यूयं पृथिव्या कत् नूनं दिवो गावः अर्थं गन्त, क्व वः युष्माकम् अर्थं गन्त तथा वः युष्माकं गावः रण्यन्ति न इव मरुतः क्व रणन्ति ॥२॥
     

    पदार्थ

    (मनुष्या)=हे मनुष्यों!  (यूयम्)=तुम सब, (पृथिव्याः) भूमेरुपरि=भूमि के ऊपर, (कत्) कदा=कब, (नूनम्) निश्चयार्थे=निश्चित रूप  से, (दिवः) द्योतनकर्मणः सूर्यस्य=प्रकास करनेवाले सूर्य की,  (गावः)=किरणें, (अर्थम्) द्रव्यम्=पदार्थों को,  (गन्त) गच्छत गच्छन्ति वा=प्राप्त होती हैं। (वः) युष्माकम्=तुम्हारे,  (अर्थम्) द्रव्यं=पदार्थ, (क्व) कुत्र=कहाँ,  (गन्त) गच्छत गच्छन्ति वा=प्राप्त होते हैं,  (तथा)=वैसे ही, (वः) युष्माकम्=तुम्हारे,  (गावः) पशव इन्द्रियाणि वा=पशुओं की इन्द्रियां, (रण्यन्ति) रणन्ति शब्दयन्ति=शब्द करती हैं, (न) इव=ऐसे ही, (मरुतः)=वायु, (क्व) कुत्र=कहाँ, (रण्यन्ति) रणन्ति शब्दयन्ति=शब्द करते हैं ॥२॥
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में दो उपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो जैसे सूर्य की किरणें पृथिवी में स्थित हुए पदार्थों को प्रकाश करती हैं वैसे तुम भी विद्वानों के समीप जाकर, कहाँ पवनों का नियोग करना चाहिये ऐसा पूछ कर अर्थों को प्रकाश करो और जैसे गौ अपने बछड़ों के प्रति शब्द करके दौड़ती हैं वैसे तुम भी विद्वानों के सङ्ग करने को प्राप्त हो तथा हम लोगों की इन्द्रियाँ वायु के समान कहाँ स्थित होकर अर्थों को प्राप्त होती हैं ऐसा पूछ कर निश्चय करो ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (मनुष्या) हे मनुष्यों!  (यूयम्) तुम सब (पृथिव्याः) भूमि के ऊपर (कत्) कब (नूनम्) निश्चित रूप  से (दिवः) प्रकाश करनेवाले सूर्य की  (गावः) किरणें (अर्थम्) पदार्थों को  (गन्त) प्राप्त होती हैं। (वः) तुम्हारे  (अर्थम्) पदार्थ (क्व) कहाँ  (गन्त) प्राप्त होते हैं!  (तथा) वैसे ही (वः) तुम्हारे  (गावः) पशुओं की इन्द्रियां (रण्यन्ति) शब्द करती हैं। (न) ऐसे ही (मरुतः) वायु (क्व) कहाँ (रण्यन्ति) शब्द करते हैं!॥२॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (क्व) कुत्र (नूनम्) निश्चयार्थे (कत्) कदा (वः) युष्माकम् (अर्थम्) द्रव्यं (गन्त) गच्छत गच्छन्ति वा। अत्र पक्षे लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसीति शपोलुक्। तत्पनप्तन० इति तवादेशो ङित्वाभावादनुनासिकलोपाभावः। द्वद्यचोतस्तिङ् इति दीर्घश्च। (दिवः) द्योतनकर्मणः सूर्यस्य (न) इव (पृथिव्याः) भूमेरुपरि (क्व) कस्मिन् (वः) युष्माकम् (गावः) पशव इन्द्रियाणि वा (न) उपमार्थे (रण्यन्ति) रणन्ति शब्दयन्ति। अत्र व्यत्ययेन शपः स्थाने श्यन् ॥२॥ 
    विषयः- पुनस्ते कथं प्रश्नोत्तरं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- मनुष्या यूयं पृथिव्या कन्नूनं दिवो गावोऽर्थं गन्त, क्व वो युष्माकमर्थं गन्त तथा वो युष्माकं गावो रण्यन्ति नेव मरुतः क्व रणन्ति ॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालंकारौ। यथा सूर्यस्य किरणाः पृथिव्यां स्थितान् पदार्थान् प्रकाशयन्ति। तथा यूयमपि विदुषां समीपं प्राप्य क्व वायूनां नियोगः कर्त्तव्य इति तान् पृष्ट्वाऽर्थान् प्रकाशयत। यथा गावः स्ववत्सान् प्रति शब्दयित्वा धावन्ति तथा यूयमपि विदुषां संगं कर्त्तुं शीघ्रं गच्छत गत्वा शब्दयित्वाऽस्माकमिन्द्रियाणि वायुवत् क्व स्थित्वाऽर्थान् प्रति गच्छन्तीति पृष्ट्वा युष्माभिर्निश्चेतव्यम् ॥२॥

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    विषय

    न्यूनता कहाँ ?

    पदार्थ

    १. (न) - अब, अर्थात् प्राणसाधना होने पर (ऊनं क्व) - कमी कहाँ है ? प्राणसाधना होने पर सब न्यूनताएँ दूर हो जाती हैं । 
    २. (कत्) - कदा (वः) - तुम्हारा, अर्थात् तुम्हारी साधना करनेवाला यह प्राणसाधक (दिवः अर्थं न) - द्युलोक के अर्थ की भाँति (पृथिव्याः) - पृथिवी की (अर्थम्) - प्राप्तव्य वस्तु को भी (गन्त) - प्राप्त होगा, अर्थात् कब वह मस्तिष्करूप द्युलोक की उज्ज्वलता को तथा शरीररूप पृथिवी की दृढ़ता को सिद्ध कर पाएगा ? 
    ३. (क्व) - कहाँ व किस समय (वः) - आपकी ये (गावः) - ज्ञानेन्द्रियाँ (न रण्यन्ति) - शब्द नहीं करती, अर्थात् प्राणसाधना होने पर ये ज्ञानेन्द्रियाँ सदा ज्ञानग्रहण करती हुई प्रभु का गुणगान करती हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना सब कमियों को दूर करती है । शरीर को दृढ़ व मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाती है । इस प्राणसाधना से सब ज्ञानेन्द्रियाँ अपना कर्म उत्तमता से करती हैं । 
     

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    विषय

    मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (नूनं) निश्चय से (क्व) किस स्थान पर आप लोग (वः) अपने (अर्थम्) इष्ट प्राप्त करने योग्य ऐश्वर्य को (गन्त) प्राप्त करते हो? (दिवः) आकाश के समान (पृथिव्यः) पृथिवी के (अर्थम्) ऐश्वर्य को भी आप लोग (कद्) भला कब (गन्त) प्राप्त करते हो? (गावः न) सूर्य की किरणों के समान आप लोगों की (गावः) इन्द्रियें, वाणियें और भूमियें, भूमि वासी प्रजा ये (क्व रण्यन्ति) कहां मनोहर शब्द करती हैं? जहां विद्वान हों, जब वे अपने अभीष्ट को प्राप्त हों, जहां वे उत्तम वचन बोलें वहां उस स्थान पर उस समय उनका सत्संग करो। अथवा—(‘न’ इति निषेधार्थे) (क्व नूनम्) आप लोग कहां नहीं हो? अर्थात् आप लोग वायु के समान सर्वत्र विचरण करते हो। (पृथिव्या अर्थं कत् न गन्त) आकाश और भूमि के समस्त पदार्थों को आप कब नहीं प्राप्त करते? अर्थात् सदा ही आपको आकाश और भूमि के सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। (वः गावः क्व न रणयन्ति) आप लोगों की ज्ञान वाणियां गौओं के समान कहां नहीं ज्ञान रस धारा बहाती? अर्थात् वे सर्वत्र ज्ञान मधु का उपदेशामृत प्रदान करती हैं। वीर जनों के पक्ष में—आप लोगों की गौवों के समान वासी प्रजाएं कहा नहीं रम रही हैं? सर्वत्र रम रही हैं, भूमियां भी सर्वत्र हरी भरी हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. हे माणसांनो जशी सूर्याची किरणे पृथ्वीवरील पदार्थांना प्रकाशित करतात तसेच तुम्हीही विद्वानांजवळ जाऊन वायूचा उपयोग कुठे केला पाहिजे हे विचारून अर्थ प्रकाशित केला पाहिजे व जशा गाई हंबरून आपल्या वासरासाठी पळत सुटतात तसा तुम्ही विद्वानांचा संग करा व आमची इंद्रिये वायूप्रमाणे कुठे स्थित राहून अर्थ प्राप्त करतात हे विचारून निश्चय करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Heroes on the move, Maruts incarnate, where for sure is the end and purpose of your march, when are you going to reach it like the end and purpose of heaven and earth? Where is the place of destination whence the purpose calls you like cows lowing for their calves? Where do your mind and senses and spirits direct you?

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    Subject of the mantra

    Then, how humans should question and answer each other, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (manuṣyā)=O humans! (yūyam)=all of you, (pṛthivyāḥ)=above the earth, (kat)=when, (nūnam)=definitely, (divaḥ)=of the illuminating Sun, (gāvaḥ)=rays, (artham)=to the substances, (ganta)=get obtained, (vaḥ)=your, (artham)=substances, (kva)=where, (ganta)=get obtained, (tathā)=in the same way, (vaḥ)=your (gāvaḥ)=senses of animals, (raṇyanti)=make noise, (na)=in the same way, (marutaḥ)=air, (kva)=where, (raṇyanti)=make noise.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! When do you all definitely get the rays of the Sun that illuminate above the earth. Where do you get your substances! Similarly, the senses of your animals speak. Where do the airs make such words.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are two similes as figurative in this mantra. O humans! Just as the Sun's rays illuminate the objects located on the earth, in the same way you should go near the scholars and use the winds. Propagate the meaning by asking like this and like a cow runs towards its calves by saying words. In the same way, you also get to have the company of scholars and our senses are located somewhere like air, gets the meaning, decide by asking this.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they (Maruts) dialogue is taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, where do you attain your object like the rays of the sun reaching the earth ? Where are your speeches made as the cows make sound before their calves.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दिव:) द्योतनात्मकस्य सूर्यस्य = Of the shining sun. ( गाव:) पशव:) इन्द्रियाणि वा = The cows and other animals or senses.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There are two similes used in the Mantra. As the rays of the Sun illuminate all objects of the world, in the same manner, you should also approach learned people and ask them the proper utilization of the air and then enlighten others about it.. As the cows run to their calves after making sounds, in the same manner, you should also go quickly to the learned for keeping their company and ask them such questions as to how our senses go to external objects like the air and then decide about the matter.

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