ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
एमा॒शुमा॒शवे॑ भर यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॒त॒यन्म॑न्द॒यत्स॑खम्॥
स्वर सहित पद पाठआ । ई॒म् । आ॒शुम् । आ॒शवे॑ । भ॒र॒ । य॒ज्ञ॒ऽश्रिय॑म् । नृ॒ऽमाद॑नम् । प॒त॒यत् । म॒न्द॒यत्ऽस॑खम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत्सखम्॥
स्वर रहित पद पाठआ। ईम्। आशुम्। आशवे। भर। यज्ञऽश्रियम्। नृऽमादनम्। पतयत्। मन्दयत्ऽसखम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
किमर्थः स इन्द्रः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे इन्द्र परमेश्वर ! तव कृपयाऽस्मदर्थमाशव आशुं यज्ञश्रियं नृमादनं पतयत्स्वामित्वसम्पादकं मन्दयत्सखं विज्ञानादिधनं भर देहि॥७॥
पदार्थः
(आ) अभितः (ईम्) जलं पृथिवीं च। ईमिति जलनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) पदनामसु च। (निघं०४.२) (आशुम्) वेगादिगुणवन्तमग्निवाय्वादिपदार्थसमूहम्। आश्वित्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) कृवापा०। (उणा०१.१) अनेनाशूङ्धातोरुण् प्रत्ययः। (आशवे) यानेषु सर्वानन्दस्य वेगादिगुणानां च व्याप्तये (भर) सम्यग्धारय प्रदेहि (यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्तिराज्यादेर्महिम्नः श्रीर्लक्ष्मीः शोभा। राष्ट्रं वा अश्वमेधः। (श०ब्रा०१३.१.६.३) अनेन यज्ञशब्दाद्राष्ट्रं गृह्यते। यज्ञो वै महिमा। (श०ब्रा०६.२.३.१८) (नृमादनम्) माद्यन्ते हर्ष्यन्तेऽनेन तन्मादनं नृणां मादनं नृमादनम् (पतयत्) यत्पतिं करोतीति पतित्वसम्पादकं तत्। तत् करोति तदाचष्टे इति पतिशब्दाण्णिच्। (मन्दयत्सखम्) मन्दयन्तो विद्याज्ञापकाः सखायो यस्मिंस्तत्॥७॥
भावार्थः
ईश्वरः पुरुषार्थिनो मनुष्यस्योपरि कृपां दधाति नालसस्य। कुतः? यावन्मनुष्यः स्वयं पूर्णं पुरुषार्थं न करोति, नैव तावदीश्वरकृपाप्राप्तान् पदार्थान् रक्षितुमपि समर्थो भवति। अतो मनुष्यैः पुरुषार्थवद्भिर्भूत्वेश्वरकृपैष्टव्येति॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर प्रार्थना करने योग्य क्यों है, यह विषय अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है-
पदार्थ
हे इन्द्र परमेश्वर ! आप अपनी कृपा करके हम लोगों के अर्थ (आशवे) यानों में सब सुख वा वेगादि गुणों की शीघ्र प्राप्ति के लिये जो (आशुम्) वेग आदि गुणवाले अग्नि वायु आदि पदार्थ (यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्ति राज्य के महिमा की शोभा (ईम्) जल और पृथिवी आदि (नृमादनम्) जो कि मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द देनेवाले तथा (पतयत्) स्वामिपन को करनेवाले वा (मन्दयत्सखम्) जिसमें आनन्द को प्राप्त होने वा विद्या के जनानेवाले मित्र हों, ऐसे (भर) विज्ञान आदि धन को हमारे लिये धारण कीजिये॥७॥
भावार्थ
ईश्वर पुरुषार्थी मनुष्य पर कृपा करता है, आलस करनेवाले पर नहीं, क्योंकि जब तक मनुष्य ठीक-ठीक पुरुषार्थ नहीं करता तब तक ईश्वर की कृपा और अपने किये हुए कर्मों से प्राप्त हुए पदार्थों की रक्षा में समर्थ कभी नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्यों को पुरुषार्थी होकर ही ईश्वर की कृपा के भागी होना चाहिये॥७॥
विषय
सोम - भरण
पदार्थ
१. गतमन्त्र की समाप्ति 'प्रभु के आनन्द में हम हों' इस भाव से हुई थी । उस प्रभु की प्राप्ति के लिए प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि (आशवे) [अशुङ् व्याप्तौ] सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होनेवाले उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (ईम्) - निश्चय से (आशुम्) - सम्पूर्ण रुधिर में , दही में घृत की भाँति तथा तिलों में तेल की भाँति व्याप्त होनेवाले इस सोम को वीर्य को आभर - सब प्रकार से अपने में धारण करने का प्रयत्न कर ।
२. (यज्ञश्रियम्) - यह सोम ["पुरुषो वाव यज्ञः"] इस यज्ञरूप पुरुष की श्री का कारण है , इसी के कारण शरीर की सारी शोभा है ।
३. (नृमादनम्) - यह उन्नतिशील नरों को आनन्दित करनेवाला है , अर्थात् इसके शरीर में व्याप्त होने पर मनुष्य सब क्षेत्रों में उन्नति कर पाता है और आनन्दमय मनोवृत्तिवाला बना रहता है , चिड़चिड़े स्वभाव का नहीं होता ।
४. (पतयत्) [पतयन्तम् - कर्मणि व्याप्नुवन्तम् - सा०] सोम के शरीर में व्याप्त होने पर मनुष्य क्रियाशील होता है , सोम की रक्षा ही पुरुष को कर्मशूर बनाती है ।
५. (मन्दयत् सखम्) - उस आनन्दित करनेवाले प्रभु में यह सोम सखिभूत है , अर्थात् परमात्मप्राप्ति का यह प्रमुख साधन बनता है और प्रभु - प्राप्ति द्वारा अद्भुत आनन्द प्राप्त करानेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - सोम शरीर में व्याप्त होता है तो प्रभुप्राप्ति का साधन बनता है , यज्ञरूप पुरुष की शोभा का कारण होता है , उन्नति का साधन होते हुए आनन्दित करता है । यह सोम मनुष्य को कर्मशूर बनाता है और आनन्दित करनेवाले प्रभु का सखिभूत है ।
विशेष / सूचना
सूचना - 'यज्ञश्रियम्' यह विशेषण इस बात की सूचना दे रहा है कि सोम की रक्षा करने पर मनुष्य का जीवन यज्ञमय होता है , ये यज्ञ उसके जीवन की शोभा का कारण बनते हैं ।
विषय
परमेश्वर प्रार्थना करने योग्य क्यों है, यह विषय इस मन्त्र में प्रकाशित किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र परमेश्वर ! तव कृपया अस्मदर्थम् आशव आशुं यज्ञश्रियं नृमादनं पतयत्स्वामित्वसम्पादकं मन्दयत्सखं विज्ञानादिधनं भर देहि॥७॥
पदार्थ
हे (इन्द्र)=परमेश्वर! (तव)=आपका, (कृपया)= कृपया, (अस्मदर्थम्)=हमारे लिए, (आशवे) यानेषु सर्वानन्दस्य वेगादिगुणानां च व्याप्तये= यानों में सब सुख वा वेगादि गुणों की शीघ्र प्राप्ति के लिये, (यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्तिराज्यादेर्महिम्नः श्रीर्लक्ष्मीः शोभा= चक्रवर्त्ति राज्य के महिमा की शोभा, (आशुम्) वेगादिगुणवन्तमग्निवाय्वादिपदार्थसमूहम्= वेग आदि गुणवाले अग्नि वायु आदि पदार्थों का समूह, (नृमादनम्) माद्यन्ते हर्ष्यन्तेऽनेन तन्मादनं नृणां मादनं नृमादनम्=मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द देनेवाले, (पतयत्) यत्पतिं करोतीति पतित्वसम्पादकं तत्=स्वामित्व के धर्म को पूरा करने के लिए, (मन्दयत्सखम्) मन्दयन्तो विद्याज्ञापकाः सखायो यस्मिंस्तत्= जिसमें आनन्द को प्राप्त होने वा विद्या के जनानेवाले मित्र हों, ऐसे, (विज्ञानादि)=विशेष ज्ञान आदि, (धनम्)= धन को, (भर) सम्यग्धारय प्रदेहि=अच्छी तरह से धारण करके प्रदान करो॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
ईश्वर पुरुषार्थी मनुष्य पर कृपा करता है, आलस करनेवाले पर नहीं, क्योंकि जब तक मनुष्य ठीक-ठीक पुरुषार्थ नहीं करता तब तक ईश्वर की कृपा और अपने किये हुए कर्मों से प्राप्त हुए पदार्थों की रक्षा में समर्थ कभी नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्यों को पुरुषार्थी होकर ही ईश्वर की कृपा के भागी होना चाहिये॥७॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी भाषा में- जिसके हाथ में चक्र के रूप में कमल के आकार के चिह्न हों, ऐसे समुद्र को घेरे हुई समस्त भूमि के स्वामी को चक्रवर्त्ती कहते हैं। ऐसा राज्य चक्रवर्त्ति राज्य कहलाता है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परमेश्वर! (तव) आप (कृपया) कृपया, (अस्मदर्थम्) हमारे लिए (आशवे) यानों में सब सुख वा वेगादि गुणों की शीघ्र प्राप्ति के लिये, (यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्ति राज्य की महिमा की शोभा के लिए, (आशुम्) वेग आदि गुणवाले अग्नि वायु आदि पदार्थों के समूह के लिए, (नृमादनम्) मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द देने के लिए, (पतयत्) स्वामित्व के धर्म को पूरा करने के लिए, (मन्दयत्सखम्) जिसमें आनन्द को प्राप्त होने वा विद्या के जनाने वाले मित्र हों, ऐसे (विज्ञानादि) विशेष ज्ञान आदि (धनम्) धन को (भर) अच्छी तरह से धारण करके प्रदान करो॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) अभितः (ईम्) जलं पृथिवीं च। ईमिति जलनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) पदनामसु च। (निघं०४.२) (आशुम्) वेगादिगुणवन्तमग्निवाय्वादिपदार्थसमूहम्। आश्वित्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) कृवापा०। (उणा०१.१) अनेनाशूङ्धातोरुण् प्रत्ययः। (आशवे) यानेषु सर्वानन्दस्य वेगादिगुणानां च व्याप्तये (भर) सम्यग्धारय प्रदेहि पदार्थः(महर्षिकृतः)-(आ) अभितः (ईम्) जलं पृथिवीं च। ईमिति जलनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) पदनामसु च। (निघं०४.२) (आशुम्) वेगादिगुणवन्तमग्निवाय्वादिपदार्थसमूहम्। आश्वित्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) कृवापा०। (उणा०१.१) अनेनाशूङ्धातोरुण् प्रत्ययः। (आशवे) यानेषु सर्वानन्दस्य वेगादिगुणानां च व्याप्तये (भर) सम्यग्धारय प्रदेहि (यज्ञश्रियम्) चक्रवर्त्तिराज्यादेर्महिम्नः श्रीर्लक्ष्मीः शोभा। राष्ट्रं वा अश्वमेधः। (श०ब्रा०१३.१.६.३) अनेन यज्ञशब्दाद्राष्ट्रं गृह्यते। यज्ञो वै महिमा। (श०ब्रा०६.२.३.१८) (नृमादनम्) माद्यन्ते हर्ष्यन्तेऽनेन तन्मादनं नृणां मादनं नृमादनम् (पतयत्) यत्पतिं करोतीति पतित्वसम्पादकं तत्। तत् करोति तदाचष्टे इति पतिशब्दाण्णिच्। (मन्दयत्सखम्) मन्दयन्तो विद्याज्ञापकाः सखायो यस्मिंस्तत्॥७॥
विषयः- किमर्थः स इन्द्रः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे इन्द्र परमेश्वर ! तव कृपयाऽस्मदर्थमाशव आशुं यज्ञश्रियं नृमादनं पतयत्स्वामित्वसम्पादकं मन्दयत्सखं विज्ञानादिधनं भर देहि॥७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वरः पुरुषार्थिनो मनुष्यस्योपरि कृपां दधाति नालसस्य। कुतः? यावन्मनुष्यः स्वयं पूर्णं पुरुषार्थं न करोति, नैव तावदीश्वरकृपाप्राप्तान् पदार्थान् रक्षितुमपि समर्थो भवति। अतो मनुष्यैः पुरुषार्थवद्भिर्भूत्वेश्वरकृपैष्टव्येति॥७॥
अनुवादकस्य टिप्पणीः- चक्रवर्त्ति राज्य-चक्रवर्त्ती-चक्रं पद्माकारशुभचिह्नं करे वर्त्तते यस्य । यद्वा चक्रं पृथ्वीचक्रं तेन वर्त्तते इति । समुद्रपरिवृतायाः सर्व्वभूमेरीश्वरः ।
विषय
राजा के कर्तव्य और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे विद्वन् ! शीघ्रता के कार्य करने के लिये जिस प्रकार वेगवान् अश्व को नियुक्त किया जाता है उसी प्रकार ( आशुम् ) आशु, शीघ्रकारी, ( यज्ञश्रियम् ) प्रजापति या सुव्यवस्थित राष्ट्र के आश्रय, उसके शोभाजनक ( नृमादनम् ) समस्त प्रजाओं और नेता पुरुषों को सुप्रसन्न करनेवाले और ( मन्दयत्-सखम् ) समस्त मित्रों को प्रसन्न रखने वाले ( पतयत् ) स्वामी होने योग्य पुरुष को ( आशवे ) शीघ्र कार्य सम्पादन के लिये ( ईम् ) इस पृथिवी पर ( आ भर ) नियुक्त कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर पुरुषार्थी माणसांवर कृपा करतो, आळशी माणसांवर नाही. कारण जोपर्यंत माणूस यथायोग्य पुरुषार्थ करीत नाही तोपर्यंत ईश्वराची कृपा व आपल्या कर्माने प्राप्त झालेल्या पदार्थांचे रक्षण करण्यासही समर्थ बनू शकत नाही. त्यासाठी माणसाने पुरुषार्थी बनून ईश्वरी कृपेस पात्र व्हावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Indra, lord of knowledge and power, give us the secret of the speed of motion for the giant leap forward in progress. Bless us with the wealth of the nation’s yajna exciting for the people and joyous for our friends.
Subject of the mantra
Why is God praiseworthy, this subject has been elucidated in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=God, (tava)=You, (kṛpayā)=kindly, (asmadartham)=for us, (āśave)=for obtaining delight of every type and speed etc. qualities in vehicles at the earliest, (yajñaśriyam)=for the embellishment of greatness of Chakravertee reign, (āśum)=for fire, air etc. group of substances having quality of speed etc. (nṛmādanam)=for providing extreme joy to men, (patayat)=to fulfill the dharma of ownership, (mandayatsakham)=in which there are friends obtaining delight and knowing intellect, [aise]=such, (vijñānādi)=specific knowledge etc. (dhanam)=wealth, (bhara)=provide after possessing it properly.
English Translation (K.K.V.)
O God! You kindly provide us specific knowledge etc.; after possessing it properly; for obtaining delight of every kind and speed etc. qualities in vehicles at the earliest; for the embellishment of greatness of Chakravertee reign; for fire, air etc. group of substances having quality of speed etc.; for providing extreme joy to men in order to fulfill the duty of ownership, in which there are friends obtaining delight and knowing intellect etc. such as wealth.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
God bestows grace on a man who is virtuous, not on the laziness, because unless a man makes proper efforts, he can never be able to protect the things obtained by the grace of God and the deeds done by him. That's why human beings should be partakers of God's grace only by being virtuous
TRANSLATOR’S NOTES-
One who has in hand lotus-shaped symbol in the form of a wheel, the owner of all the land that surrounds such an ocean is called Chakravarti. Such a state is called a Chakravarti state.
Translation
May we dedicate all our actions and essence there of to our supreme Lord. He alone is the inspirer of all noble deeds. He alone is the giver of joy to mankind, the source of energy for the fulfilment of our aspirations and the bestower of divine bliss.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Context – Why should Indra (God) be prayed to is taught in the seventh mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God, bestow on us by Thy Grace for quickness and joy in our vehicles, swiftness-producing combination of fire, water etc. and man-cheering, and glory of the kingdom, the wealth of wisdom which makes us masters and gladdens all friends who teach us various Sciences.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(आशुम् ) वेगादिगुणवन्तम् अग्निवाय्वादिपदार्थसमूहम् आशु इति अश्वनामसु पठितम् ( निघ० १.१४ ) कृवापा उणा० १.१ अनेन अशूङ् व्याप्तौ इति धातोः उण् प्रत्ययः । ( यज्ञश्रियम् ) चक्रवर्तिराज्यादेर्महिम्नः श्री लक्ष्मी: शोभा | राष्ट्र वा अश्वमेधः || शत० १३.१.६.३ अनेन यज्ञशब्दाद् राष्ट्रं गृह्यते । So on the authority of the above Shatapath Brahman passage here the word यज्ञ (Yajna) stands for kingdom or country. यज्ञो वै महिमा ( शत० ६.२.३.१८) So the word Yajna also means glory.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God shows kindness only towards an industrious person and not towards the lazy. Why? because unless a man exerts himself fully, he cannot even protect or preserve things got by the Grace of God. Therefore men should desire or pray for the Grace of God after exerting themselves fully, becoming industrious.
Translator's Notes
It is very significant how Rishi Dayananda interprets the word Yajna in wide and comprehensive sense, taking it to mean Rashtra, Kingdom, Country or Nation and its glory. Sayanacharya and following him Western Scholars take the word Yajna in narrow sense of a sacrificial act and translate it as such. Even the word नृमादनम् Sayana interprets as ऋत्विग्यजमानानां हर्षहेतुम् Glad dining the performers of sacrifices and their priest, instead of men in general as Rishi Dayananda has interpreted नृणां मादनम् नरा माद्यन्ते हर्ष्यन्तेऽनेनेति ॥ This tendency of narrowing down the sense of the Vedic words and confining them to external sacrifices only which is discernible in Sayana's commentary is very deplorable and it has proved to be very harmful.
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