ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निर्देवाः
छन्दः - भुरिगुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
त्वम॑ग्ने॒ वसूँ॑रि॒ह रु॒द्राँ आ॑दि॒त्याँ उ॒त । यजा॑ स्वध्व॒रं जनं॒ मनु॑जातं घृत॒प्रुष॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । वसू॑न् । इ॒ह । रु॒द्रान् । आ॒दि॒त्यान् । उ॒त । यज॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रम् । जन॑म् । मनु॑ऽजातम् । घृ॒त॒ऽप्रुष॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने वसूँरिह रुद्राँ आदित्याँ उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । अग्ने । वसून् । इह । रुद्रान् । आदित्यान् । उत । यज । सुअध्वरम् । जनम् । मनुजातम् । घृतप्रुषम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(त्वम्) (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान विद्वन् (वसून्) कृतचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्य्यान् पण्डितान् (इह) अत्र दीर्घादटिसमानपादे। अ० ८।३।९। अनेन रुः पूर्वस्थानुनासिकश्च। (रुद्रान्) आचरितचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्य्यान् महाबलान् विदुषः (आदित्यान्) समाचरिताऽष्टचत्वारिंशत्संवत्सरब्रह्मचर्य्याऽखण्डितव्र- तान् महाविदुषः। अत्रापि पूर्वसूत्रेणैव रुत्वाऽनुनासिकत्वे। भोभगोअघो अपूर्वस्य योऽशि। अ० ८।३।१७। इति यत्वम्। लोपः शाकल्यस्य। अ० ८।३।१९। इति यकारलोपः (उत) अपि (यज) संगच्छस्व अत्र द्यचोऽतस्तिङ् इति दीर्घः। (स्वध्वरम्) शोभना पालनीया अध्वरा यस्य तम् (जनम्) पुरुषार्थिनम् (मनुजातम्) यो मनोर्मननशीलान्मनुष्या दुत्पन्नस्तम् (घृतप्रुषम्) यो यज्ञसिद्धेन घृतेन प्रष्णाति स्निह्यति तम् ॥१॥
अन्वयः
तत्रादौ विद्युद्विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते।
पदार्थः
हे अग्ने ! त्वमिह वसून् रुद्रानादित्यानुतापि घृतप्रुषम्मनुजातं स्वध्वरं जनं सततं यज ॥१॥
भावार्थः
स्वस्वपुत्रान् न्यमान्न्यूनं पंचविंशतिवर्षमितेनाऽधिकादधिकेनाऽष्टचत्वारिंशद्वर्षमते नैवं न्यूनान्न्यूनेन षोडशवर्षेणाधिकादधिकेन चतुर्विशतिवर्षमितेन च ब्रह्मचर्य्येण स्वस्वकन्याश्च पूर्णविद्याः सुशिक्षिताश्च संपाद्य स्वयंवराख्यविधानेनैतैर्विवाहः कर्त्तव्यो यतः सर्वे सदा सुखिनः स्युः ॥१॥
हिन्दी (2)
विषय
अब पैंतालीसवें सूक्त का आरम्भ हैं। उसके पहिले मंत्र में बिजुली के दृष्टान्त से विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है।
पदार्थ
हे (अग्ने) बिजुली के समान वर्त्तमान विद्वान ! आप (इह) इस संसार में (वसून्) जो चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य से विद्या को प्राप्त हुए पण्डित (रुद्रान्) जिन्होंने चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य किया हो उन महाबली विद्वान् और (आदित्यान्) जिन्हों ने अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य किया हो उन महाविद्वान् लोगों को (उत) और भी (घृतप्रुषम्) यज्ञ से सिद्ध हुए घृत से सेचन करनेवाले (मनुजातम्) मननशील मनुष्य से उत्पन्न हुए (स्वध्वरम्) उत्तम यज्ञ को सिद्ध करनेहारे (जनम्) पुरुषार्थी मनुष्य को (यज) समागम कराया करें ॥१॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि अपने पुत्रों को कम से कम चौबीस और अधिक से अधिक अड़तालीस वर्ष तक और कन्याओं को कम से कम सोलह और अधिक से अधिक चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करावें। जिससे संपूर्ण विद्या और सुशिक्षा को पाकर वे परस्पर परीक्षा और अतिप्रीति से विवाह करें जिससे सब सुखी रहें ॥१॥
विषय
किनका सङ्ग
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! (त्वम्) - आप (इह) - इस जीवन में (यज) - हमारे साथ सङ्गत कर उन लोगों को जोकि [क] (वसून्) - वसु हैं - प्रथम कोटि के ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपने निवास को उत्तम बनाते हैं, स्वस्थ शरीरवाले होते हैं, [ख] (रुद्रान्) - जो मध्यम कोटि के ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्रभु - स्तवनपूर्वक कर्मों में सदा प्रवृत्त रहते हैं [रोरूयमाणो द्रवति] और इस प्रकार काम, क्रोध, लोभादि वासनाओं को विनष्ट करते हुए रुलानेवाले होते हैं [रोदयन्ति] (उत) - और [ग] (आदित्यान्) - जो उत्तम कोटि के ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सब ज्ञानों व उत्तमताओं को अपने में ग्रहण करनेवाले होते हैं [आदानात् आदित्यः] ।
२. हे प्रभो ! हमारे साथ उन मनुष्यों को सङ्गत कीजिए जोकि [क] (स्वध्वरम्) - उत्तम अहिंसात्मक कर्मों को करनेवाले हैं, [ख] (जनम्) - अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले हैं, [ग] (मनुजातम्) - [मनुषु जातः, मनुमेव अनुभवितुं जातः], ज्ञान के उत्पादन के लिए जिनका जन्म हुआ है, अर्थात् जो सदा ज्ञानप्राप्ति में प्रवृत्त हैं और जो [घ] (घृतप्रुषम्) - [मुष् स्नेहनसेचनपूरणेषु, घृतेन पुष्णाति, घृ क्षरणदीसयोः] मन की निर्मलता तथा ज्ञान की दीप्ति से सबको स्निग्ध, सिक्त व पूरित करनेवाले हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - 'वसु, रुद्र, आदित्य, स्वध्वर, जन, मनुजात व घृतप्रुट्' लोगों के सम्पर्क में आकर हम भी इन जैसे ही बनने के लिए सयत्न हों ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात वसू, रुद्र व आदित्यांची गती व प्रमाण इत्यादींचे कथन केलेले आहे. यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
माणसांनी आपल्या पुत्रांना कमीत कमी चोवीस वर्षे व जास्तीत जास्त अठ्ठेचाळीस वर्षांपर्यंत व कन्यांना कमीत कमी सोळा व जास्तीत जास्त चोवीस वर्षांपर्यंत ब्रह्मचर्य पालन करण्यास लावावे. ज्यामुळे संपूर्ण विद्या व सुशिक्षा प्राप्त करून परस्पर परीक्षा करून अति प्रेमाने स्वयंवर विवाह करून सुखी व्हावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, sagely scholar of wisdom and piety, bring together into this yajna of love and non-violence the people, children of reflective humanity, who sprinkle the vedi with holy water and offer ghee into the fire. Bring together the celibate scholars of twenty four, thirty six and forty eight years discipline and perform yajna in honour of the Vasus, eight abodes of life in nature, Rudras, eleven vitalities of life, and Adityas, twelve phases of the yearly round of the sun.
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