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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒क्थेभि॑र॒र्वागव॑से पुरू॒वसू॑ अ॒र्कैश्च॒ नि ह्व॑यामहे । शश्व॒त्कण्वा॑नां॒ सद॑सि प्रि॒ये हि कं॒ सोमं॑ प॒पथु॑रश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्थेभिः॑ । अ॒र्वाक् । अव॑से । पु॒रु॒वसू॒ इति॑ पु॒रु॒ऽवसू॑ । अ॒र्कैः । च॒ । नि । ह्व॒या॒म॒हे॒ । शश्व॑त् । कण्वा॑नाम् । सद॑सि । प्रि॒ये । हि । क॒म् । सोम॑म् । प॒पथुः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे । शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्थेभिः । अर्वाक् । अवसे । पुरुवसू इति पुरुवसू । अर्कैः । च । नि । ह्वयामहे । शश्वत् । कण्वानाम् । सदसि । प्रिये । हि । कम् । सोमम् । पपथुः । अश्विना॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (उक्थेभिः) वेदस्तोत्रैरधीतवेदाप्तोपदिष्टवचनैर्वा (अर्वाक्) पश्चात् (अवसे) रक्षणाद्याय (पुरूवसू) पुरूणां बहूनां विदुषां मध्ये कृतवासौ (अर्कैः) मंत्रैर्विचारैर्वा। अर्को मंत्रो भवति यदेनेनार्चन्ति निरु० ५।४। (च) समुच्चये (नि) नितराम् (ह्वयामहे) स्पर्धामहे (शश्वत्) अनादिरूपम् (कण्वानाम्) मेधाविनां विदुषाम् (सदसि) सभायाम् (प्रिये) प्रीतिकामनासिद्धिकर्य्यां (हि) खलु (कम्) सुखसंपादकम् (सोमम्) सोमवल्यादिरसम् (पपथुः) पिबतम् (अश्विना) वायुसूर्य्याविव वर्त्तमानौ धर्मन्यायप्रकाशकौ ॥१०॥

    अन्वयः

    पुनरेतौ प्रति प्रजाजनाः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे पुरूवसूअवसे अश्विना ! वयमुक्थेभिरर्कैर्यत्र कण्वानां प्रिये सदसि यौ युवां निह्वयामहे तत्रार्वाक् तौ शश्वत्कं प्राप्नुतं हि सोमं च पपथुः ॥१०॥

    भावार्थः

    राजप्रजाजना विदुषां सभायां गत्वोपदेशान्नित्यं शृण्वन्तु यतः सर्वेषां कर्त्तव्याऽकर्त्तव्यबोधः स्यात् ॥१०॥ अत्र राजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन साकं सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ ॥इति द्वितीयो २ वर्गः सप्तचत्वारिंशं ४७ सूक्तं च समाप्तम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उनके प्रति प्रजाजन क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (पुरूवसू) बहुत विद्वानों में वसनेवाले (अश्विना) वायु और सूर्य के समान वर्त्तमान धर्म्म और न्याय के प्रकाशक ! (अवसे) रक्षादि के अर्थ हम लोग (उक्थेभिः) वेदोक्त स्तोत्र वा वेदविद्या के जानने वाले विद्वानों के इष्ट वचनों के (अर्कैः) विचार से जहां (कण्वानाम्) विद्वानों की (प्रिये) पियारी (सदसि) सभा में आप लोगों को (निह्वयामहे) अतिशय श्रद्धा कर बुलाते हैं वहां तुम लोग (अर्वाक्) पीछे (शश्वत्) सनातन (कम्) सुख को प्राप्त होओ (च) और (हि) निश्चय से (सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधियों के रसों को (पपथुः) पिओ ॥१०॥

    भावार्थ

    राजप्रजा जनों को चाहिये कि विद्वानों की सभा में जाकर नित्य उपदेश सुनें जिससे सब करने और न करने योग्य विषयों का बोध हो ॥१०॥ यहां राजा और प्रजा के धर्म्म का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगती जाननी चाहिये ॥ ॥यह दूसरा २ वर्ग और सैंतालीसवां ४७ सूक्त समाप्त हुआ॥

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    विषय

    उक्थों व अर्कों से प्राणों का उपासन

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (पुरूवसू) = बहुत अथवा पालक व पूरक धनोंवाले आपको (अवसे) = रक्षण के लिए (उक्थेभिः) = स्तोत्रों से (च) = तथा (अर्कैः) = अर्चन - साधन मन्त्रों से (अर्वाक्) = अपने अभिमुख (निह्वयामहे) = पुकारते हैं । ज्ञानप्रधान वाणियाँ 'उक्थ' हैं, स्तुतिप्रधान वाणियाँ 'अर्क' । उक्थों व अर्कों से प्राणापानों को पुकारने का अभिप्राय यह है कि प्राणायाम के गुण - धर्मों को हम अच्छी प्रकार समझें और उनकी साधना करें । समझना ही उक्थों से पुकारना है और इनकी साधना करना ही 'अर्कों' से उपासन है । २. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (शश्वत्) = सदा (कण्वानाम्) = मेधावी पुरुषों के (प्रिये सदसि) = इस कान्त व सुन्दर शरीररूप गृह में (कम्) = सब आनन्दों के देनेवाले (सोमम्) = सोम को - वीर्यशक्ति को (पपथुः) = पीते हो, अर्थात् सोम को शरीर में सुरक्षित करते हो । यह सुरक्षित सोम सब प्रकार के आनन्द व सुख का कारण बनता है । वस्तुतः सोम ही शरीर को कान्त बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम शरीर को स्वस्थ एवं सुन्दर बनाता है ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि सुरक्षित सोम जीवन को अत्यन्त मधुर बनाता है [१] । प्राणसाधना से ही शरीर सुन्दराकृति का बनता है [२] । ये प्राणापान जीवन में ऋत का वर्धन करते हैं [३] । इस प्राणसाधना से ही हम बुद्धिमान्, शक्तिसम्पन्न व प्रकाशमय जीवनवाले होते हैं [४] । प्राणापान ही हमें सब शुभों को प्राप्त कराते हैं [५] । उन्हीं से मनः प्रसाद व मस्तिष्क को प्रकाश प्राप्त होता है [६], अतः हमें सूर्योदय के साथ ही प्राणसाधना आरम्भ करनी चाहिए [७] । इस साधना से हम सुकृत् व सुदानु बनते हैं [८] । सूर्य के समान दीप्त शरीररूप रथवाले होते हैं [९], अतः हम उक्थों से प्राणापान के गुणधर्मों को जाने तथा अर्कों से प्राणोपासन में प्रवृत्त हों [१०] । ऐसा करने पर उषा हमारे अन्धकारों को दूर करनेवाली होगी -

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    विषय

    सूर्यत्वचा रथ का रहस्य।

    भावार्थ

    हे सभापति और सेनापति! एवं रथी, सारथी! तुम दोनों को हे (पुरुवसु) अति ऐश्वर्यों के स्वामियो! हम प्रजाजन (अवसे) ज्ञान प्राप्ति और रक्षा के लिये (उक्थेभिः) उत्तम वचनों और (अर्कैः च) आदर सत्कार के पदार्थों और उपचारों से (नि ह्वयामहे) निरन्तर बुलाते हैं। आप लोग (कण्वानां प्रिये सदसि) वीर पुरुषों की सेना और विद्वान् पुरुषों की प्रिय राजसभा दोनों स्थानों पर (शश्वत्) सदा (सोमम्) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र को (पपथुः) पालन करो। इति द्वितीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥

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    विषय

    फिर उनके प्रति प्रजाजन क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे पुरूवसू अवसे अश्विना ! वयम् उक्थेभिः अर्कैः यत्र कण्वानां प्रिये सदसि यौ युवां नि ह्वयामहे तत्र अर्वाक् तौ शश्वत् कं प्राप्नुतं हि सोमं च पपथुः ॥१०॥

    पदार्थ

    हे (पुरूवसू) पुरूणां बहूनां विदुषां मध्ये कृतवासौ= बहुत विद्वानों में वसनेवाले, (अवसे) रक्षणाद्याय=रक्षण आदि के लिये, (अश्विना) वायुसूर्य्याविव वर्त्तमानौ धर्मन्यायप्रकाशकौ=वायु और सूर्य के समान वर्तमान धर्म और न्याय के प्रकाशकों ! (वयम्)=हम, (उक्थेभिः) वेदस्तोत्रैरधीतवेदाप्तोपदिष्टवचनैर्वा=वेद के स्तोत्रों को पढ़कर अथवा वेद के आप्तों के उपदेश वचनों को सुनकर, (अर्कैः) मंत्रैर्विचारैर्वा= मन्त्रों के विचार के विचारों से, (यत्र)=जहाँ, (कण्वानाम्) मेधाविनां विदुषाम्=मेधावी विद्वान्, (प्रिये) प्रीतिकामनासिद्धिकर्य्याम्=प्रिय कामना को सिद्ध करने के लिये, (सदसि) सभायाम्=सभा में, (यौ)=जो, (युवाम्)=तुम दोनों, (नि) नितराम्= पूरी तरह से, (ह्वयामहे) स्पर्धामहे=स्पर्धा करते हो, (तत्र)=वहाँ, [उसके] (अर्वाक्) पश्चात्= पश्चात्, (तौ)= उन दोनों को, (शश्वत्) अनादिरूपम्=अनादिरूप में, (कम्) सुखसंपादकम्= सुख प्राप्त कराने के लिये, (प्राप्नुतम्)= प्राप्त करो। (च) समुच्चये=और, (हि) खलु =निश्चित रूप से ही, (सोमम्) सोमवल्यादिरसम्=सोम का रस, (पपथुः) पिबतम्=पीओ ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यहां राजा और प्रजा के धर्म्म का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगती जाननी चाहिये ॥१०॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणियाँ-सोम-सोम नाम की एक बेल प्रकृति में पाई जाती है। इस पौधे का रस सोम कहलाता है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (पुरूवसू) बहुत विद्वानों के [हृदय में] वसनेवाले [और] (अवसे) रक्षण आदि के लिये (अश्विना) वायु और सूर्य के समान वर्तमान धर्म और न्याय के प्रकाशकों ! (वयम्) हम (उक्थेभिः) वेद के स्तोत्रों को पढ़कर अथवा वेद के आप्तों के उपदेश वचनों को सुनकर, (अर्कैः) मन्त्रों के विचारों से, (यत्र) जहाँ (कण्वानाम्) मेधावी विद्वान् (प्रिये) प्रिय कामनाओं को सिद्ध करने के लिये (सदसि) सभा में, (यौ) जो (युवाम्) तुम दोनों (नि) पूरी तरह से (ह्वयामहे) स्पर्धा करते हो, (तत्र) वहाँ [उसके] (अर्वाक्) पश्चात् (तौ) उन दोनों को (शश्वत्) अनादिरूप में, (कम्) सुख प्राप्त कराने के लिये (प्राप्नुतम्) प्राप्त करो। (च) और (हि) निश्चित रूप से ही (सोमम्) सोम का रस, (पपथुः) पीओ ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उक्थेभिः) वेदस्तोत्रैरधीतवेदाप्तोपदिष्टवचनैर्वा (अर्वाक्) पश्चात् (अवसे) रक्षणाद्याय (पुरूवसू) पुरूणां बहूनां विदुषां मध्ये कृतवासौ (अर्कैः) मंत्रैर्विचारैर्वा। अर्को मंत्रो भवति यदेनेनार्चन्ति निरु० ५।४। (च) समुच्चये (नि) नितराम् (ह्वयामहे) स्पर्धामहे (शश्वत्) अनादिरूपम् (कण्वानाम्) मेधाविनां विदुषाम् (सदसि) सभायाम् (प्रिये) प्रीतिकामनासिद्धिकर्य्यां (हि) खलु (कम्) सुखसंपादकम् (सोमम्) सोमवल्यादिरसम् (पपथुः) पिबतम् (अश्विना) वायुसूर्य्याविव वर्त्तमानौ धर्मन्यायप्रकाशकौ ॥१०॥ विषयः- पुनरेतौ प्रति प्रजाजनाः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे पुरूवसू अवसे अश्विना ! वयमुक्थेभिरर्कैर्यत्र कण्वानां प्रिये सदसि यौ युवां निह्वयामहे तत्रार्वाक् तौ शश्वत्कं प्राप्नुतं हि सोमं च पपथुः ॥१०॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजप्रजाजना विदुषां सभायां गत्वोपदेशान्नित्यं शृण्वन्तु यतः सर्वेषां कर्त्तव्याऽकर्त्तव्यबोधः स्यात् ॥१०॥ महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- राजप्रजा जनों को चाहिये कि विद्वानों की सभा में जाकर नित्य उपदेश सुनें जिससे सब करने और न करने योग्य विषयों का बोध हो ॥१०॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र राजप्रजाधर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन साकं सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा व प्रजा यांनी विद्वानांच्या सभेत जाऊन नित्य उपदेश ऐकावा. ज्यामुळे कर्तव्य-अकर्तव्याचा बोध होईल. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of light and power like the sun and wind, lords of abundant wealth among the wise, with songs of praise and sacred words of prayer we invoke and invite you to the distinguished house of eminent scholars and leaders, in faith and love, for our protection and advancement here. Come, and then enjoy the comfort and have a taste of somaic ecstasy for ever without satiety.

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    Subject of the mantra

    Then what should the people do towards them, this topic has been preached in the next mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (purūvasū)-dwelling in the heart of many scholars, [aura]=and, (avase) =for protection etc., (aśvinā) = expounder of the present righteousness and justice like air and Sun, (vayam) =we, (ukthebhiḥ)=by reading the hymns of the Vedas or by listening to the preaching words of the Apta’s of the Vedas, (arkaiḥ) =through the thoughts of mantras, (yatra) =where, (kaṇvānām) =intelligent scholars, (priye)=to fulfill dear wishes, (sadasi) =in the society, (yau) =those, (yuvām) =both of you, (ni) =thoroughly, (hvayāmahe) =have rivalry, (tatra) =there, [usake]=its, (arvāk) =afterwards, (tau) =to both of them, (śaśvat)=eternally, (kam)= to get pleasure, (prāpnutam) =obtain, (ca) =and, (hi) =certainly, (somam) =joice of Soma, (papathuḥ) =drink.

    English Translation (K.K.V.)

    O the one who resides in the hearts of many scholars and for protection etc. like air and sun, the expounders of the present righteousness and justice! By reading hymns of the Vedas or by listening to the preaching words of the hymns of the Vedas, by the thoughts of mantras, where meritorious scholars gather in the society to fulfill their cherished desires, after that both of you have rivalry, get them both in eternal form, to get happiness. And definitely drink Soma juice.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The people of the state should go to the gathering of the scholars and listen to the sermons daily, so that they can understand the things to be done and not to be done. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- Due to the description of the righteousness of the king and the people here, the consistency of this hymn with the previous hymn should be known.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    A creeper plant named Soma is found in nature. The juice of this plant is called Soma.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the people towards these Ashvinau is taught in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned President of the Assembly and the Commander of the Army who are like the sun and the air and manifesters of Dharma (righteousness and justice) with the Vedic hymns or the words used by truthful learned persons, we call on you for protection in the well-beloved assembly of wise men which fulfils all noble desires. May you ever come and drink the Soma (essence of various invigorating herbs) which causes happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (उक्थेभिः) वेदस्तोत्रैः अधीतवेदाप्तोपदिष्टवचनैर्वा = With the Vedic hymns or the words of those who have studied the Vedas. (अर्कैः) मन्त्रैविचारैर्वा = With the Mantras or noble thoughts. अर्को मन्त्रो भवति यत् एनेन अर्चन्ति ( निघ० ५.४ ) ( अश्विना) वायुसूर्याविव वर्तमानौ धर्मन्याय प्रकाशको Persons who manifest righteousness and justice and are like the air and the sun. In this hymn, the duties of the kings and their subjects have been stated, so it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary on the forty-seventh hymn and second Verga of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers and people of the State should attend the assembly of the learned persons and should listen to their sermons, so that they may know their duties well.

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