ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - सतःपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्रि॒ष॒ध॒स्थे ब॒र्हिषि॑ विश्ववेदसा॒ मध्वा॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षतम् । कण्वा॑सो वां सु॒तसो॑मा अ॒भिद्य॑वो यु॒वां ह॑वन्ते अश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒ष्ऽसध॒स्थे । ब॒र्हिषि॑ । वि॒श्व॒ऽवे॒द॒सा॒ । मध्वा॑ । य॒ज्ञम् । मि॒मि॒क्ष॒त॒म् । कण्वा॑सः । वाम् । सु॒तऽसो॑माः । अ॒भिऽद्य॑वः । यु॒वाम् । ह॒व॒न्ते॒ । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम् । कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिष्सधस्थे । बर्हिषि । विश्ववेदसा । मध्वा । यज्ञम् । मिमिक्षतम् । कण्वासः । वाम् । सुतसोमाः । अभिद्यवः । युवाम् । हवन्ते । अश्विना॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(त्रिषधस्थे) त्रीणि भुजलपवनाख्यानि स्थित्यर्थानि स्थानानि यस्मिँस्तस्मिन् (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (विश्ववेदसा) विश्वान्यखिलान्यन्नानि धनानि वा ययोस्तौ (मध्वा) मधुरेण रसेन। जसादिषु छन्दसि वा वचनाद् नादेशो न। (यज्ञम्) शिल्पाख्यम् (मिमिक्षतम्) मेढुं सेक्तुमिच्छतम् (कण्वासः) मेधाविनः (वाम्) युवाम् (सुतसोमाः) सुता निष्पादिताः सोमाः पदार्थसारा यैस्ते (अभिद्यवः) अभितः सर्वतो द्यवो दीप्ता विद्या विद्युदादयः पदार्थाः साधिता यैस्ते। अत्र द्युतधातोर्बाहुलकादौणादिको डुः प्रत्ययः। (युवाम्) यौ (हवन्ते) गृह्णन्ति (अश्विना) क्षत्रधर्मव्यापिनौ ॥४॥
अन्वयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे विश्ववेदसाऽश्विनेव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ ! युवां यथाऽभिद्यवः सुतसोमाः कण्वासो विद्वांसस्त्रिषधस्थे बर्हिषि मध्वा मधुरेण रसेन वां यज्ञं च हवन्ते तथा मिमिक्षतम् ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथा मनुष्या विद्वद्भ्यो विद्यां गृहीत्वा यानानि रचयित्वा तत्र जलादिकं संयोज्य सद्यो गमनाय शक्नुवन्ति तथा नेतरेणोपायेन ॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हैं इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (विश्ववेदसा) अखिल धनों के प्राप्त करनेवाले (अश्विना) क्षत्रियों के धर्म में स्थित के सदृश सभा सेनाओं के रक्षक ! आप जैसे (अभिद्यवः) सब प्रकार से विद्याओं के प्रकाशक और विद्युदादि पदार्थों के साधक (सुतसोमाः) उत्पन्न पदार्थों के ग्राहक (कण्वासः) मेधावी विद्वान् लोग (त्रिसधस्थे) जिसमें तीनों भूमि जल पवन स्थिति के लिये हों उस (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (मध्वा) मधुर रस से (वाम्) आप और (यज्ञम्) शिल्प कर्म को (हवन्ते) ग्रहण करते हैं वैसे (मिमिक्षतम्) सिद्ध करने की इच्छा करो ॥४॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य लोग विद्वानों से विद्या सीख यान रच और उसमें जल आदि युक्त करके शीघ्र जाने आने के वास्ते समर्थ होते हैं वैसे अन्य उपाय से नहीं इस लिये उसमें परिश्रम अवश्य करें ॥४॥
विषय
कण्व - सुतसोम - अभिद्यु
पदार्थ
१. (विश्ववेदसा) = हे सम्पूर्ण धनोंवाले (अश्विना) = अश्विनी देवो - प्राणापानो ! (त्रिषधस्थे) = जिसमें 'प्रकृति, जीव व परमात्मा' - तीनों साथ - साथ हैं, अर्थात् जो तीनों का ध्यान करता है, उस (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय के होने पर (मध्वा) = माधुर्य से (यज्ञम्) = जीवन - यज्ञ को (मिमिक्षतम्) = आप सिक्त कर दीजिए, अर्थात् प्राणसाधना से हमारा हृदय वासनाशून्य हो [बर्हिषि] । उसमें प्रकृति, जीव व परमात्मा तीनों का विचार हो, धर्मार्थ - काम - तीनों की ओर यह समरूप से प्रवृत्त हो [त्रिषधस्थे], इस प्रकार हमारा जीवन माधुर्यमय हो [मध्य] । २. (कण्वासः) = कण - कण करके ज्ञान का संचय करनेवाले मेधावी लोग, (सुतसोमाः) = सोम - शक्ति का उत्पादन करनेवाले (अभिद्यवः) = प्रकाश की ओर चलनेवाले लोग (वाम्) = आपको (युवाम्) = आपको ही (हवन्ते) = पुकारते हैं, अर्थात् प्राणसाधना से ही मनुष्य 'कण्व, सुतसोम व अभिद्यु' बन पाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना होने पर हमारे जीवन में धर्मार्थ - काम तीनों साथ - साथ रहते हैं । हम बुद्धिमान्, शक्तिसम्पन्न व प्रकाशमय जीवनवाले होते हैं ।
विषय
आचार्य उपदेशक, सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षों और राजा और पुरोहितों तथा विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (अश्विना) पूर्वोक्त सभा-सेनापतियो! हे (विश्ववेदसा) समस्तः प्रकार के धनों, ऐश्वर्यों के स्वामियो! आप दोनों (त्रिसधस्थे) तीनों समान कोटि के उच्च स्थानों पर स्थित (बर्हिषि) प्रजाजन पर, या पृथिवी निवासी लोगों के ऊपर (मध्वा) शत्रुनाशक बल, अन्न और मधुर ऐश्वर्य, या ज्ञान से (यज्ञं) पूज्य प्रजापति या राष्ट्र को (मिमिक्षतम्) संयुक्त करो, या सेचन करो, उस पर अन्तरिक्षस्थ मेघ और विद्युत् के समान ऐश्वर्य का वर्षन करो। (सुतसोमाः) सोम, सबके प्रेरक राजा का अभिषेक करने वाले (कण्वासः) विद्वान् पुरुष (अभिद्यवः) सब प्रकार से दीप्तियुक्त, तेजस्वी होकर अथवा (कण्वासः) शत्रुहन्ता वीर जन प्रतापी होकर (युवां) तुम दोनों को (हवन्ते) स्वीकार करें, तुम पर अनुग्रह करें, या तुम्हें अपनावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥
विषय
फिर वे अश्वि कैसे हैं इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विश्ववेदसा अश्विना इव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ ! युवां यथा अभिद्यवः सुतसोमाः कण्वासो विद्वांसः त्रिषधस्थे बर्हिषि मध्वा मधुरेण रसेन वां यज्ञं च हवन्ते तथा मिमिक्षतम् ॥४॥
पदार्थ
हे (विश्ववेदसा) विश्वान्यखिलान्यन्नानि धनानि वा ययोस्तौ= समस्त अन्न और धन के स्वामियों, (अश्विना) क्षत्रधर्मव्यापिनौ= क्षत्रिय धर्म में व्याप्त अर्थात् रक्षा करने के स्वभाव वालों के, (इव)=समान, (वर्त्तमानौ)= वर्त्तमान, (सभासेनेशौ)=सभापति और सेनाध्यक्ष ! (युवाम्)=तुम दोनों, (यथा)=जिस प्रकार से, (अभिद्यवः) अभितः सर्वतो द्यवो दीप्ता विद्या विद्युदादयः पदार्थाः साधिता यैस्ते= हर ओर से प्रकाश दीप्त होता है और विद्या, विद्युत् आदि पदार्थ पूर्ण किये जाते हैं, वे (सुतसोमाः) सुता निष्पादिताः सोमाः पदार्थसारा यैस्ते=सोम आदि पदार्थों के सार हैं, (कण्वासः) मेधाविनः=मेधावी, (विद्वांसः)= विद्वान्, (त्रिषधस्थे) त्रीणि भुजलपवनाख्यानि स्थित्यर्थानि स्थानानि यस्मिँस्तस्मिन्= भूमि, जल और पवन नाम के तीन पदार्थ जिस स्थानों में हैं, उस (बर्हिषि) अन्तरिक्षे=अन्तरिक्ष में (मध्वा) मधुरेण रसेन=मधुर रस द्वारा (वाम्) युवाम्=तुम दोनों को (यज्ञम्) शिल्पाख्यम्=शिल्प नाम के कर्म से (च) भी (हवन्ते) गृह्णन्ति= ग्रहण करते हैं, (तथा) वैसे ही (मिमिक्षतम्) मेढुं सेक्तुमिच्छतम्=मेघ से सेचन करने की इच्छा करो ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे मनुष्य लोग विद्वानों से विद्या ग्रहण करके यान रच करके और उनमें जल आदि प्रयोग करके शीघ्र जाने में समर्थ होते हैं, वैसे ही अन्य उपाय से नहीं कर सकते हैं ॥४॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणियाँ-(1)सोम-सोम नाम की एक बेल प्रकृति में पाई जाती है। इस पौधे का रस सोम कहलाता है। (२)-क्षत्रिय धर्म- राजा, सैनिक या क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति का देश या समाज की रक्षा करने का कर्त्तव्य क्षत्रिय धर्म कहलाता है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विश्ववेदसा) समस्त अन्न और धन के स्वामी, (अश्विना) क्षत्रिय धर्म में व्याप्त अर्थात् रक्षा करने के स्वभाव वालों के (इव) समान (वर्त्तमानौ) वर्त्तमान (सभासेनेशौ) सभापति और सेनाध्यक्ष ! (युवाम्) तुम दोनों (यथा) जिस प्रकार से (अभिद्यवः) हर ओर से प्रकाश दीप्त होता है और विद्या, विद्युत् आदि पदार्थ सिद्ध किये जाते हैं, वे (सुतसोमाः) सोम आदि पदार्थों के सार हैं। (कण्वासः) मेधावी (विद्वांसः) विद्वान् (त्रिषधस्थे) भूमि, जल और पवन नाम के तीन पदार्थ जिस स्थानों में हैं, उस (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (मध्वा) मधुर रस द्वारा (वाम्) तुम दोनों (यज्ञम्) शिल्प नाम के कर्म से (च) भी (हवन्ते) ग्रहण करते हैं, (तथा) वैसे ही [तुम] (मिमिक्षतम्) मेघ से सेचन करने की इच्छा करो ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्रिषधस्थे) त्रीणि भुजलपवनाख्यानि स्थित्यर्थानि स्थानानि यस्मिँस्तस्मिन् (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (विश्ववेदसा) विश्वान्यखिलान्यन्नानि धनानि वा ययोस्तौ (मध्वा) मधुरेण रसेन। जसादिषु छन्दसि वा वचनाद् नादेशो न। (यज्ञम्) शिल्पाख्यम् (मिमिक्षतम्) मेढुं सेक्तुमिच्छतम् (कण्वासः) मेधाविनः (वाम्) युवाम् (सुतसोमाः) सुता निष्पादिताः सोमाः पदार्थसारा यैस्ते (अभिद्यवः) अभितः सर्वतो द्यवो दीप्ता विद्या विद्युदादयः पदार्थाः साधिता यैस्ते। अत्र द्युतधातोर्बाहुलकादौणादिको डुः प्रत्ययः। (युवाम्) यौ (हवन्ते) गृह्णन्ति (अश्विना) क्षत्रधर्मव्यापिनौ ॥४॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे विश्ववेदसाऽश्विनेव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ ! युवां यथाऽभिद्यवः सुतसोमाः कण्वासो विद्वांसस्त्रिषधस्थे बर्हिषि मध्वा मधुरेण रसेन वां यज्ञं च हवन्ते तथा मिमिक्षतम् ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथा मनुष्या विद्वद्भ्यो विद्यां गृहीत्वा यानानि रचयित्वा तत्र जलादिकं संयोज्य सद्यो गमनाय शक्नुवन्ति तथा नेतरेणोपायेन ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
जशी माणसे विद्वानांकडून विद्या शिकून यान तयार करून त्यात जल इत्यादी युक्त करून तात्काळ जाण्या-येण्यासाठी समर्थ होतात तसे अन्य उपायाने होत नाहीत. त्यासाठी त्यातच परिश्रम अवश्य करावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, masters of universal knowledge and creators of the world’s wealth, in the three-stage yajnic house of space—on the earth, across the skies and over the heavens—try to conduct and enrich the yajna with honeyed fragrances. Brilliant sages who have distilled the soma for you call you up to the heavens.
Subject of the mantra
Then how they aśvi are, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (viśvavedasā)=lord of all food and wealth, (aśvinā)=prevailing in the Kshatriya nature, means those who have the nature to protect, (iva) =like, (varttamānau) =present, (sabhāseneśau) =chairman of the assembly and army chief, (yuvām) =both of you, (yathā) =like, (abhidyavaḥ)=light shines from all sides and things like knowledge, electricity etc. are accomplished, they (sutasomāḥ)=Soma etc. are the essence of substances, (kaṇvāsaḥ) =intelligent, (vidvāṃsaḥ) =scholar, (triṣadhasthe)=the places where the three substances namely land, water and wind are present, (barhiṣi) =in the space, (madhvā)=by sweet juice, (vām) =both of you, (yajñam)=by the work of craft, (ca)=also, (havante)=accept, (tathā) =in the same way, [tuma]=you, (mimikṣatam)= wish the sprinkling by the clouds.
English Translation (K.K.V.)
O Lord of all food and wealth, the chairman of the assembly and army chief, who is pervaded in the Kṣatriya religion, that is, those who has the nature to protect! You two, the way light shines from all sides and the substances like vidya, electricity etc. are accomplished, they are the essence of Soma etc. substances. In the places where the three substances namely land, water and wind are present, in that space, both of you intelligent scholars receive sweet juice through the work of craft, in the same way you wish to the sprinkling by the clouds.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as human beings are able to go quickly by taking knowledge from scholars, creating vehicles and using water et cetera, similarly, it cannot be done by other means.
TRANSLATOR’S NOTES-
A creeper plant named Soma is found in nature. The juice of this plant is called Soma. (2)-Kṣatriya Dharma- - The duty of a king, soldier or a person of Kṣatriya class to protect the country or society is Kṣatriya Dharma.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are the Ashvins is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and commander of the Army who pervade (discharge) the duties of the Kshatriyas. as Wise men who are possessors of abundant food and wealth or are knowers of all objects, who are shining on all sides with knowledge and have accomplished many works with the proper use of electricity who have expressed the essence of herbs and other articles invite you and prepare sweet juice for your drink, performing Yajna in the form of industrial work in the atmosphere which is associated with the earth, water and air, so you should also sprinkle the water of happiness and joy on all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अभिद्यव:) अभितः सर्वतो द्यवः दीप्ता विद्या विदयुदादयः पदार्थाः साधिता यैस्ते = Those who shine on all sides with knowledge and have accomplished many works with the proper use of electricity. (अश्विना) क्षत्रधर्मव्यापिनौ = Pervading in or discharging the duties of the Kshatriyas (अशूङ्-व्याप्तौ Tr.)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As men can go everywhere after acquiring knowledge from the learned people, manufacturing various vehicles and combining water in proper proportion, they cannot do so otherwise.
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