ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 10
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्सतः पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
विश्व॑स्य॒ हि प्राण॑नं॒ जीव॑नं॒ त्वे वि यदु॒च्छसि॑ सूनरि । सा नो॒ रथे॑न बृह॒ता वि॑भावरि श्रु॒धि चि॑त्रामघे॒ हव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑स्य । हि । प्राण॑नम् । जीव॑नम् । त्वे इति॑ । वि । यत् । उ॒च्छसि॑ । सू॒न॒रि॒ । सा । नः॒ । रथे॑न । बृ॒ह॒ता । वि॒भा॒ऽव॒रि॒ । श्रु॒धि । चि॒त्र॒ऽम॒घे॒ । हव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि । सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम् ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वस्य । हि । प्राणनम् । जीवनम् । त्वे इति । वि । यत् । उच्छसि । सूनरि । सा । नः । रथेन । बृहता । विभावरि । श्रुधि । चित्रमघे । हवम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(विश्वस्य) सर्वस्य (हि) खलु (प्राणनम्) प्राणधारणम् (जीवनम्) जीविकाप्रापणम् (त्वे) त्वयि। अत्र सुपांसुलुग् इति शे आदेशः। (वि) विविधार्थे (यत्) या (उच्छसि) (सूनरि) सुष्ठुतया व्यवहारनेत्री (सा) (नः) अस्मभ्यम् (रथेन) रमणीयेन स्वरूपेण विमानादिना वा (बृहता) महता (विभावरि) या विविधतया भाति प्रकाशयति तत्सम्बुद्धौ (श्रुधि) श्रृणु (चित्रामघे) चित्राण्यद्भुतानि मघानि धनानि यस्यास्तत्संबुद्धौ। अत्रान्येषामपि० इति पूर्वपदस्य दीर्घः। (हवम्) श्रोतव्यं श्रावयितव्यं वा शब्दसमूहम् ॥१०॥
अन्वयः
पुनः सा कीदृशेन किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे सूनरि विभावरि चित्रामघे स्त्रि ! यथोषा बृहता महता रथेन रमणीयेन स्वरूपेण वर्त्तते यस्यां विश्वस्य प्राणिजातस्य हि प्राणनं जीवनं सम्भवति तथा त्वे त्वय्यप्यस्तु यद्या त्वं न उच्छसि साऽस्माकं हवं श्रुधि ॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथोषसा सर्वस्य प्राणिजातस्य सुखानि जायन्ते तथा सत्या स्त्रिया प्रसीदन्तं सर्व आनन्दाः प्राप्नुवन्ति ॥१०॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसी होकर किससे क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (सूनरि) अच्छे प्रकार व्यवहारों को प्राप्त (विभावरि) विविध प्रकाशयुक्त (चित्रामघे) चित्र विचित्र धन से सुशोभित स्त्री जैसे उषा (बृहता) बड़े (रथेन) रमणीय स्वरूप वा विमानादि यान से विद्यमान जिस में (विश्वस्य) सब प्राणियों के (प्राणनम्) प्राण और (जीवनम्) जीविका की प्राप्ति का संभव होता है वैसे ही (त्वे) तेरे में होता है (यत्) जो तू (नः) हम लोगों को (व्युच्छसि) विविध प्रकार वास करती है वह तू हमारा (हवम्) सुनने सुनाने योग्य वाक्यों को (श्रुधि) सुन ॥१०॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे उषा से सब प्राणिजात को सुख होता है वैसे ही पतिव्रता स्त्री से प्रसन्न पुरुष को सब आनन्द होते हैं ॥१०॥
विषय
प्राणनं जीवनम्
पदार्थ
१. हे (सूनरि) = उत्तमता से कार्यों का प्रणयन करानेवाली तथा प्रातः जागरणशील पुरुषों को उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाली उषे ! (यत्) = जब तू (व्युच्छसि) = विशेषरूप से उदित होती है और अन्धकार को नष्ट करती है तब (विश्वस्य) = सम्पूर्ण संसार का (प्राणनम्) = प्रकृष्टरूपेण प्राणों का धारण करना तथा (जीवनम्) = उत्तम जीवन को प्राप्त करना (हि) = निश्चय से (त्वे) = तुझमें ही आश्रित होता है, अर्थात् यह उषा सबको जीवन व प्राणशक्ति प्राप्त कराती है । उषा के समय सोये हुए का तेज क्षीण हो जाता है । २. (सा विभावरि) = हे उषे ! वह प्रकाशवाली तू (चित्रामघे) = अद्भूत ऐश्वर्यवाली ! (बृहता रथेन) = सब प्रकार की शक्तियों के वर्धनवाले शरीररूप रथ से (नः) = हमें प्राप्त हो और (हवम्) = हमारी प्रार्थनावाणी को (श्रुधि) = सुन । उषा की कृपा से हमें बाह्यप्रकाश की भाँति अन्तः प्रकाश भी प्राप्त हो । यह उषा 'जीवन व प्राणन' के रूप में अद्भुत ऐश्वर्य प्राप्त कराये । प्रातः काल उठकर अपने आवश्यक कृत्यों को करते हुए हम शरीररूप रथ को प्रवृद्ध शक्तियोंवाला बनाएँ [बृहता रथेन] । स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान का ऐश्वर्य प्राप्त करें [चित्रामधे] । प्रातः की इस पुण्यवेला में प्रभु की प्रार्थना में प्रवृत्त हों [हवं श्रुधि] ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा हमें प्राणशक्ति - सम्पन्न दीर्घ जीवन प्राप्त कराती है । यह हमारे शरीररूप रथ को दृढ़ व सुन्दर बनाती है ।
विषय
उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (सूनरि) उत्तम रीति से दिन को या सूर्य को लानेवाली नायिकास्वरूप उषः! (यत्) जब तू (वि उच्छसि) विशेष तेज से प्रकट होती है तब (त्वे) तुझ पर ही (विश्वस्य हि प्राणनम्) समस्त जगत् का प्राण लेना और (जीवनम्) जीवन व्यतीत करना निर्भर है। हे (चित्रामघे) अद्भुत ऐश्वर्य तेज से युक्त! हे (विभावरि) विशेष दीप्तिवाली (सा) वह तू (बृहता रथेन) बड़े भारी शक्तिमान्, वेगवान् आदित्य से युक्त होकर हमारी (हवम्) ईश्वर स्तुति का (श्रुधि) श्रवण कर। उसी प्रकार हे (सूनरि) उत्तम नायिके! नववधू! (यत् वि उच्छसि) जब तू उत्तम गुणों को प्रकट करे तो (त्वे विश्वस्य प्राणनं जीवनं) तेरे आधार पर समस्त घर भर का सुख से प्राण लेना, जीना और आजीविकादि निर्वाह निर्भर हो। वह तू हे (विभावरि) विशेष कान्तियुक्ते! विद्यावति! हे (चित्रमघे) अद्भुत नाना धनधान्यवति! (बृहता रथेन) बड़े सुन्दर स्वरूप या बड़े भारी रथ के समान भार-वहन में समर्थ पति या गृहस्थ रूप रथ के साथ युक्त होकर (हवम् श्रुधि) ग्रहण करने योग्य बड़ों के वचनों को आदर से सुन। इति चतुर्थो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह उषा कैसी होकर किससे क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सूनरि विभावरि चित्रामघे स्त्रि ! यथा उषा बृहता महता रथेन रमणीयेन स्वरूपेण वर्त्तते यस्यां विश्वस्य प्राणिजातस्य हि प्राणनं जीवनं सम्भवति तथा त्वे त्वयि अपि अस्तु यद् या त्वं न उच्छसि सा अस्माकं हवं श्रुधि ॥१०॥
पदार्थ
हे (सूनरि) सुष्ठुतया व्यवहारनेत्री=उत्तम व्यवहार करनेवाली नेत्री, (विभावरि) या विविधतया भाति प्रकाशयति तत्सम्बुद्धौ= विविध रूप से प्रताशित करनेवाली, (चित्रामघे) चित्राण्यद्भुतानि मघानि धनानि यस्यास्तत्संबुद्धौ=अद्भुत धनोंवाली, (स्त्रि)=स्त्री ! (यथा)=जैसे, (उषा)=उषा, (बृहता) महता= बहुत, (रथेन) रमणीयेन स्वरूपेण विमानादिना वा= सुन्दर स्वरूप से या विमान आदि के, (स्वरूपेण)= स्वरूप में (वर्त्तते)=रहती है, (यस्याम्)=जिसके, (विश्वस्य) सर्वस्य=समस्त, (प्राणिजातस्य)=उत्पन्न प्राणियों की, (हि) खलु=निश्चय ही, (प्राणनम्) प्राणधारणम्= प्राण धारण करने से, (जीवनम्) जीविकाप्रापणम्=जीवन को प्राप्त करना, (सम्भवति)= सम्भव हो पाता है, (तथा)=वैसे ही, (त्वे) त्वयि=तुम में, (अपि)= भी, (अस्तु)=होवे। (यत्) या=जो, (त्वम्)=तुम, (न)=न, (उच्छसि)=थोड़ा-थोड़ा करके एकत्रित करते हो, (सा)=वह, (अस्माकम्)=हमें, (हवम्) श्रोतव्यं श्रावयितव्यं वा शब्दसमूहम् =सुनना चाहिए और सुनाना चाहिए या शब्दसमूह को, (श्रुधि) श्रृणु=सुनो ॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे उषा से सब उत्पन्न प्राणियों को सुखों को उत्पन्न करता है, वैसे ही सत्य व्यवहार करनेवाली स्त्रियां प्रसन्न होते हुए सब को आनन्द प्रदान करती हैं ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सूनरि) उत्तम व्यवहार करनेवाली नेत्री! (विभावरि) विविध रूप से प्रकाशित करनेवाली और (चित्रामघे) अद्भुत धनोंवाली (स्त्रि) स्त्री ! (यथा)जैसे (उषा) उषा, (बृहता) बहुत (रथेन) सुन्दर स्वरूप से या विमान आदि के, (स्वरूपेण) स्वरूप में (वर्त्तते) रहती है, (यस्याम्) जिसके (विश्वस्य) समस्त (प्राणिजातस्य) उत्पन्न प्राणियों की (हि) निश्चय ही (प्राणनम्) प्राण धारण करने से (जीवनम्) जीवन को प्राप्त करना (सम्भवति) सम्भव हो पाता है। (तथा) वैसे ही (त्वे) तुम में (अपि) भी (अस्तु) होवे। (यत्) जो (त्वम्) तुम (न+उच्छसि) थोड़ा-थोड़ा करके एकत्रित नहीं करते हो, (सा) वह (अस्माकम्) हमें (हवम्) सुनना चाहिए और सुनाना चाहिए या उस शब्दसमूह को (श्रुधि) तुम सुनो ॥१०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विश्वस्य) सर्वस्य (हि) खलु (प्राणनम्) प्राणधारणम् (जीवनम्) जीविकाप्रापणम् (त्वे) त्वयि। अत्र सुपांसुलुग् इति शे आदेशः। (वि) विविधार्थे (यत्) या (उच्छसि) (सूनरि) सुष्ठुतया व्यवहारनेत्री (सा) (नः) अस्मभ्यम् (रथेन) रमणीयेन स्वरूपेण विमानादिना वा (बृहता) महता (विभावरि) या विविधतया भाति प्रकाशयति तत्सम्बुद्धौ (श्रुधि) श्रृणु (चित्रामघे) चित्राण्यद्भुतानि मघानि धनानि यस्यास्तत्संबुद्धौ। अत्रान्येषामपि० इति पूर्वपदस्य दीर्घः। (हवम्) श्रोतव्यं श्रावयितव्यं वा शब्दसमूहम् ॥१०॥ विषयः- पुनः सा कीदृशेन किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे सूनरि विभावरि चित्रामघे स्त्रि ! यथोषा बृहता महता रथेन रमणीयेन स्वरूपेण वर्त्तते यस्यां विश्वस्य प्राणिजातस्य हि प्राणनं जीवनं सम्भवति तथा त्वे त्वय्यप्यस्तु यद्या त्वं न उच्छसि साऽस्माकं हवं श्रुधि ॥१०॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथोषसा सर्वस्य प्राणिजातस्य सुखानि जायन्ते तथा सत्या स्त्रिया प्रसीदन्तं सर्व आनन्दाः प्राप्नुवन्ति ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. जसे उषेमुळे सर्व प्राणिमात्र सुखी होतात त्याप्रमाणे पतिव्रता स्त्रीमुळे पुरुष प्रसन्न व आनंदित होतो. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Dawn, leading light of humanity, when you shine in splendour, you hold the breath and life of the world in you. The same, lady of light, harbinger of wondrous wealth and good fortune, come by your magnificent chariot and listen to our prayer.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sūnari)= well behaved lead, (vibhāvari)=diversified revealer and, (citrāmaghe)=having wonderful riches, (stri) =woman, (yathā) =like (uṣā) =dawn, (bṛhatā) =much, (rathena) gracefully or of aircrafts etc., (svarūpeṇa) =in the form, (varttate)=lives, (yasyām) =whose, (viśvasya) =all, (prāṇijātasya) =of born living beings, (hi) =certainly, (prāṇanam) =by possessing life breath, (jīvanam) =to attain life, (sambhavati) =it is possible, (tathā) =in thesae way, (tve) =in you, (api) =also, (astu) =be, (yat) =that, (tvam) =you, (na+ucchasi)=do not collect bit by bit, (sā) =that, (asmākam) =for us, (havam)= should listen and recite or that phrase, [usa]=that, (śrudhi) =you listen.
English Translation (K.K.V.)
O woman of good manners, illuminant in various ways and of amazing wealth! For example, the dawn resides in a very beautiful form or in the form of a aircraft etc. By imbibing the life of all the living beings, it becomes possible to attain life. So be it in you as well. That should be listen and recited by us or you listen that phrase.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as dawn brings happiness to all living beings, similarly women who behave truthfully, being happy, give happiness to all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should she (Usha) do is taught in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O noble woman, good leader of domestic dealings, shining in various ways on account of your virtues, possessor of wondrous wealth, as the dawn comes in beautiful form in her lofty car (so to speak) and in each living creature's breath and life, O lady of light, you should also be like her, giving new life to all. You who make us happy, listen to our words of wisdom that must be heard and taught.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( हवम् ) श्रोतव्यं श्रावयितव्यं वा शब्दसमूहम् = The group of words that are to be heard and taught. (सूनरी) सुष्ठुतया व्यवहारनेत्री = Good leader of domestic dealings. (रथेन) रमणीयेन स्वरूपेण विमानादिना वा = With beautiful form or aero plane etc.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As all living creatures are pleased with and get happiness by the dawn, in the same manner, those husbands who are pleased and contented with their noble wives, enjoy all -happiness and bliss.
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