ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 11
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृत्पथ्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
उषो॒ वाजं॒ हि वंस्व॒ यश्चि॒त्रो मानु॑षे॒ जने॑ । तेना व॑ह सु॒कृतो॑ अध्व॒राँ उप॒ ये त्वा॑ गृ॒णन्ति॒ वह्न॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठउषः॑ । वाज॑म् । हि । वंस्व॑ । यः । चि॒त्रः । मानु॑षे । जने॑ । तेन॑ । आ । व॒ह॒ । सु॒ऽकृतः॑ । अ॒ध्व॒रान् । उप॑ । ये । त्वा॒ । गृ॒णन्ति॑ । वह्न॑यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने । तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः ॥
स्वर रहित पद पाठउषः । वाजम् । हि । वंस्व । यः । चित्रः । मानुषे । जने । तेन । आ । वह । सुकृतः । अध्वरान् । उप । ये । त्वा । गृणन्ति । वह्नयः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(उषः) प्रभातवद्बहुगुणयुक्ते (वाजम्) ज्ञानमन्नं वा (हि) किल (वंस्व) सम्भज (यः) विद्वान् (चित्रः) अद्भुत शुभगुणकर्मस्वभावः (मानुषे) मनुष्ये (जने) विद्याधर्मादिभिर्गुणैः प्रसिद्धे (तेन) उक्तेन (आ) समन्तात् (वह) प्राप्नुहि (सुकृतः) शोभनानि कृतानि कर्माणि येन सः (अध्वरान्) अहिंसनीयान् गृहाश्रमव्यवहारान् (उप) उपगमे (ये) वक्ष्यमाणाः (त्वा) त्वाम् (गृणन्ति) स्तुवन्ति (वह्नयः) वोढारो विद्वांसो जितेन्द्रियाः सुशीला मनुष्याः ॥११॥
अन्वयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे उषर्वद्वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं यश्चित्रः सुकृतस्तव पतिर्वर्त्तते तस्मिन्मानुषे जने वाजं हि वंस्व ये वह्नयो येनाध्वरानुपगृणन्ति त्वा चोपदिशन्ति तेन तानावह समन्तात्प्राप्नुहि ॥११॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा सूर्य उषसं प्राप्य दिनं कृत्वा सर्वान्प्राणिनः सुखयति तथा स्वाः स्त्रियो भूषयेयुस्तान् दाराअप्यलंकुर्युरेवं परस्परं सुप्रीत्युपकाराभ्यां सदा सुखिनः स्युः ॥११॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (उषः) प्रभात वेला के तुल्य वर्त्तमान स्त्री ! तू (यः) जो (चित्रः) अद्भुत गुण कर्म स्वभावयुक्त (सुकृतः) उत्तम क्रम करनेवाला तेरा पति है (मानुषे) मनुष्य (जने) विद्याधर्मादि गुणों से प्रसिद्ध में (वाजम्) ज्ञान वा अन्न को (हि) निश्चय करके (वंस्व) सम्यक् प्रकार से सेवन कर (ये) जो (वह्नयः) प्राप्ति करनेवाले विद्वान् मनुष्य जिस कारण से (अध्वरान्) अध्वर यज्ञ वा अहिंसनीय विद्वानों की (उपगृणन्ति) अच्छे प्रकार स्तुति करते और तुझ को उपदेश करते हैं (तेन) उससे उनको (आवाह) सुखों को प्राप्त कराती रहे ॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य जैसे सूर्य्य उषा को प्राप्त होके दिन को कर सबको सुख देता है वैसे अपनी स्त्रियों को भूषित करते हैं उनको स्त्री-जन भी भूषित करती हैं इस प्रकार परस्पर प्रीति उपकार से सदा सुखी रहें ॥११॥ अर्थात् प्रकटकर। सं०
विषय
सुकृत् वह्नि - पुण्यशाली कर्तव्यपरायण
पदार्थ
१. हे (उषः) = उषः काल ! तू (हि) = निश्चय से (वाजम्) = शक्ति, धन व ज्ञान को (वस्व) = प्राप्त करा । उस 'वाज' को (यः) = जो कि (मानुषे जने) = विचारशील पुरुषों में (चित्रः) = अद्भुत है । विचारशील पुरुष को प्राप्त होनेवाले अद्भुत वाज को यह उषा हमें प्राप्त कराये । २. हे उषे ! तू (तेन) = उस वाज के द्वारा उन (सुकृतः) = सुकृत, पुण्यशाली पुरुषों को (ये) = जो (वह्नियः) = अपने कर्तव्यभार का वहन करनेवाले (त्वा) = आपका (उपगृणन्ति) = उपासन करते हैं, अर्थात् जो प्रातः के समय प्रभु की उपासना में प्रवृत्त होते हैं, उन पुण्यात्माओं को (अध्वरान् आवह) = यज्ञों को प्राप्त करा । ये 'सुकृत् वह्नि' पुरुष प्रातः प्रभु की प्रार्थना करते हुए पवित्र, हिंसाशून्य, [अ - ध्वर] कार्यों में ही प्रवृत्त हों ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रातः प्रबुद्ध होनेवाले हम 'वाज' [शक्ति, धन व ज्ञान] को प्राप्त करें और पुण्यशाली कर्तव्यपरायण बनकर हिंसाशून्य पवित्र कर्मों में लगे रहें ।
विषय
उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (उषः) प्रभात वेला, उषा के समान कान्तिमति कमनीये कन्ये! (यः) जो अन्न, ऐश्वर्य, ज्ञान और बल (चित्रः) अद्भुत आश्चर्यजनक, संग्रह करने योग्य (मानुषे जने) मनुष्यों के हित के लिये है। उस (वाजं) अन्न, ऐश्वर्य, बल और ज्ञान को तू (वंस्व) प्राप्त कर। (तेन) उससे हे स्त्री! तू (सुकृतः) उत्तम पुण्यवान्, (अध्वरान्) न हिंसा करने योग्य, न पीड़ा देने योग्य, उन पूज्य पुरुषों को (आवह) प्राप्त कर, (ये) जो (वह्नयः) अग्नि के समान ज्ञान प्रकाश को धारण करने हारे (त्वा उप गृणन्ति) तेरे प्रति उपदेश करते हैं। उषा और विद्वानों के पक्ष में—हे उषः! जो विद्वान् ज्ञानी पुरुष तेरे स्वरूप को देख कर भगवान् की स्तुति करते हैं तू उन पुण्यात्माओं को मनुष्यों के हित के लिये अद्भुत, आदर योग्य ज्ञान और बल प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह उषा कैसी है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे उषः वत् वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं यः चित्रः सुकृतः तव पतिः वर्त्तते तस्मिन् मानुषे जने वाजं हि वंस्व ये वह्नयः येन अध्वरान् उप गृणन्ति त्वा च उपदिशन्ति तेन तान् आ वह समन्तात् प्राप्नुहि ॥११॥
पदार्थ
हे (उषः) प्रभातवद्बहुगुणयुक्ते=प्रभात के समान बहुत गुणों से युक्त, (वर्त्तमाने)= वर्त्तमान, (स्त्रि)=स्त्री ! (यः) विद्वन्= विद्वान्, (चित्रः) अद्भुत शुभगुणकर्मस्वभावः= अद्भुत शुभ गुण कर्म और स्वभाववाला, (सुकृतः) शोभनानि कृतानि कर्माणि येन सः=शोभनीय कर्मोंवाला, (तव) =तुम्हारा, (पतिः)=रक्षक, (वर्त्तते)=है। (तस्मिन्) =उस, (मानुषे) मनुष्ये= मनुष्य में, (जने) विद्याधर्मादिभिर्गुणैः प्रसिद्धे = विद्या, धर्म आदि गुणों से प्रसिद्ध में, (वाजम्) ज्ञानमन्नं वा=ज्ञान और अन्न, (हि) किल=संभवतः, (वंस्व) सम्भज=अच्छी तरह से प्राप्त करो, (ये) वक्ष्यमाणाः=कहे गये, (वह्नयः) वोढारो विद्वांसो जितेन्द्रियाः सुशीला मनुष्याः=धारण करनेवाले विद्वान्, जितेन्द्रिय, सुशील मनुष्य, (येन)=जिसके द्वारा, (अध्वरान्) अहिंसनीयान् गृहाश्रमव्यवहारान्=अहिंसनीय गृहस्थ आश्रम के व्यवहारों को, (उप) उपगमे=समीप से, (गृणन्ति) स्तुवन्ति=स्तुति करते हैं, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (च) =भी, (उप) उपगमे= समीप से, (दिशन्ति) =दिखाते हैं, (तेन) उक्तेन=उस कहे हुए ने, (तान्)=उनको, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (वह) प्राप्नुहि=प्राप्त करे॥११॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
हे मनुष्यों ! जैसे सूर्य्य उषा को प्राप्त हो करके, दिन को बना करके सबको सुखी करता है, वैसे ही स्त्रियों द्वारा आभूषण धारण करके उनके द्वारा भी अलंकृत होकर के परस्पर शुभ प्रीति और उपकार से सदा सुखी रहना चाहिए ॥११॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (उषः) प्रभात के समान बहुत गुणों से युक्त (वर्त्तमाने) वर्त्तमान (स्त्रि) स्त्री ! (यः) विद्वान्, (चित्रः) अद्भुत, शुभ, गुण, कर्म और स्वभाववाला, (सुकृतः) शोभनीय कर्मोंवाला, (तव) तुम्हारा (पतिः) रक्षक, (वर्त्तते) है। (त्वम्) तुम (तस्मिन्) उस (मानुषे) मनुष्य में (जने) विद्या, धर्म आदि गुणों से युक्त (वाजम्) ज्ञान और अन्न (हि) संभवतः (वंस्व) अच्छी तरह से प्राप्त करो। [उस] (ये) कहे गये (वह्नयः) धारण करनेवाले विद्वान्, जितेन्द्रिय, सुशील मनुष्य, (येन) जिसके द्वारा (अध्वरान्) अहिंसनीय गृहस्थ आश्रम के व्यवहारों से (उप) समीप से (गृणन्ति) स्तुति करते हैं, (त्वा) तुमको (च) भी (उप) समीप से (दिशन्ति) दिखाते हैं। (तेन) उस कहे हुए द्वारा (तान्) उनको (आ) हर ओर से (वह) प्राप्त करें॥११॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उषः) प्रभातवद्बहुगुणयुक्ते (वाजम्) ज्ञानमन्नं वा (हि) किल (वंस्व) सम्भज (यः) विद्वान् (चित्रः) अद्भुत शुभगुणकर्मस्वभावः (मानुषे) मनुष्ये (जने) विद्याधर्मादिभिर्गुणैः प्रसिद्धे (तेन) उक्तेन (आ) समन्तात् (वह) प्राप्नुहि (सुकृतः) शोभनानि कृतानि कर्माणि येन सः (अध्वरान्) अहिंसनीयान् गृहाश्रमव्यवहारान् (उप) उपगमे (ये) वक्ष्यमाणाः (त्वा) त्वाम् (गृणन्ति) स्तुवन्ति (वह्नयः) वोढारो विद्वांसो जितेन्द्रियाः सुशीला मनुष्याः ॥११॥ विषयः- पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे उषर्वद्वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं यश्चित्रः सुकृतस्तव पतिर्वर्त्तते तस्मिन्मानुषे जने वाजं हि वंस्व ये वह्नयो येनाध्वरानुपगृणन्ति त्वा चोपदिशन्ति तेन तानावह समन्तात्प्राप्नुहि ॥११॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यथा सूर्य उषसं प्राप्य दिनं कृत्वा सर्वान्प्राणिनः सुखयति तथा स्वाः स्त्रियो भूषयेयुस्तान् दाराअप्यलंकुर्युरेवं परस्परं सुप्रीत्युपकाराभ्यां सदा सुखिनः स्युः ॥११॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे उषेमुळे दिवस उगवतो व सर्वांना सुख मिळते तसे जी माणसे स्त्रियांना भूषित करतात त्यांना स्त्रियाही भूषित करतात. या प्रकारे परस्पर प्रीती व उपकार करून सदैव सुखी राहावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Dawn, Light Divine, accept and enlighten whatever best and noblest food, energy and wealth is in the world of humanity and, by that, lead our fires and performers of yajna, who sing in praise of your glory, close to the sacred acts of love and piety in non-violent yajnas.
Subject of the mantra
Then how is that dawn, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (uṣaḥ)=having many qualities like the morning, (varttamāne) =present, (stri) =woman, (yaḥ) =scholar, (citraḥ)=wonderful, auspicious, having qualities, deeds and nature, (sukṛtaḥ) =having admirable karmas, (tava) =your, (patiḥ) =protector, (varttate) =is, (tvam) =you, (tasmin) =in that, (mānuṣe) =in that human, (jane)=endowed with the qualities of learning, righteousness etc., (vājam)=knowledge and food, (hi)=probably, (vaṃsva)=receive well, [usa]=that, (ye)=said, (vahnayaḥ)=possessing learned, having control over senses, gentle man, (yena) =by whom, (adhvarān)=by the practices of the non-violent householder, (upa) =by close quarters, (gṛṇanti)=praise, (tvā) =to you, (ca) =also, (upa) =by close quarters, (diśanti) =show, (tena)=by that said, (tān) =to them, (ā) =from all sides, (vaha) =obtain.
English Translation (K.K.V.)
O present woman with many qualities like the morning! The scholar, having control over senses, gentle man who possesses that so-called, through whom the non-violent householder praises closely with the behaviour of the householder, shows you also closely. Get that said from all sides.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O humans! Just as the Sun brings dawn and makes everyone happy by making the day, in the same way one should always remain happy by wearing jewellery and adorning oneself with mutual love and kindness by women.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is she (Usha) is taught further in the 11th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O virtuous woman like the Dawn, give food and knowledge to your meritorious or noble husband who among men is illustrious on account of knowledge, Dharma (righteousness) and other virtues. Approach on all sides those righteous learned persons of good character and temperament who praise and teach you about the inviolable dealings (duties) of the household life in order to gain more and more knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, as the sun makes all beings delighted after turning the Dawn into day, in the same manner, you should please and adorn your wives and wives should please you. In this way, by mutual love and service all should enjoy happiness.
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