ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 14
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ये चि॒द्धि त्वामृष॑यः॒ पूर्व॑ ऊ॒तये॑ जुहू॒रेऽव॑से महि । सा नः॒ स्तोमाँ॑ अ॒भि गृ॑णीहि॒ राध॒सोषः॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । चि॒त् । हि । त्वाम् । ऋष॑यः । पूर्वे॑ । ऊ॒तये॑ । जु॒हू॒रे । अव॑से । म॒हि॒ । सा । नः॒ । स्तोमा॑न् । अ॒भि । गृ॒णी॒हि॒ । राध॑सा । उषः॑ । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि । सा नः स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा ॥
स्वर रहित पद पाठये । चित् । हि । त्वाम् । ऋषयः । पूर्वे । ऊतये । जुहूरे । अवसे । महि । सा । नः । स्तोमान् । अभि । गृणीहि । राधसा । उषः । शुक्रेण । शोचिषा॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(ये) वक्ष्यमाणाः (चित्) अपि (हि) खलु (त्वाम्) (ऋषयः) वेदार्थविदो विद्वांसः (पूर्वे) येऽधीतवन्तः (ऊतये) अतिशयेन गुणप्राप्तये (जुहुरे) शब्दयन्ति (अवसे) रक्षणादिप्रयोजनाय (महि) #महागुणविशिष्टान् (सा) (नः) अस्माकम् (स्तोमान्) स्तुतिसमूहान् (अभि) आभिमुख्ये (गृणीहि) स्तुहि (राधसा) परमेण धनेन (उषः) उषर्वत्स्तोतुं योग्ये (शुक्रेण) शुद्धेन कर्महेतुना (शोचिषा) प्रकाशेन ॥१४॥ #[महागुणविशिष्टे विदुषि ! । सं०]
अन्वयः
पुनः सा कस्मै प्रयोजनाय प्रभवतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे उषर्वद्वर्त्तमाने महि विदुषि स्त्रि ! ये पूर्वऋषयः ऊतयेऽवसे त्वां जुहुरे शब्दयेयुः सा त्वं शुक्रेण शोचिषा राधसा तान् नोऽस्मभ्यं चित्स्तोमान् ह्यभिगृणीहि ॥१४॥
भावार्थः
अत्रोपमालंकारः। मनुष्यैर्येऽधीतवेदास्ते पूर्वे येऽधीयते तेऽर्वाचीनाऋषयो वेद्याः यथा विद्वांसो यान् पदार्थान् विदित्वोपकुर्वन्ति तथैवान्यैरपि कर्त्तव्यम्। नैव केनापि मूर्खाणामनुकरणं कार्य्यम्। यथा विद्वांसः स्वविद्यया पदार्थगुणान्प्रकाश्य विद्योपकारौ जनयेयुः। यथेयमुषा सर्वान् पदार्थान् सद्योस्य सुखानि जनयति तथाऽखिलविद्याः स्त्रियो विश्वमलं कुर्वन्तु ॥१४॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर वह किस प्रयोजन के लिये समर्थ होती है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे उषा के तुल्य वर्त्तमान् (महि) महागुणविशिष्ट पण्डिता स्त्री ! (ये) जो (पूर्व) अध्ययन किये हुए वेदार्थ के जाननेवाले विद्वान् लोग (ऊतये) अत्यन्त गुण प्राप्ति वा (अवसे) रक्षण आदि प्रयोजन के लिये (त्वाम्) तुझे (जुहुरे) प्रशंसित करें (सा) सो तू (शुक्रेण) शुद्ध कामों के हेतु (शोचिषा) धर्मप्रकाश से युक्त (राधसा) बहुत धन से (नः) हमारे (चित्) ही (स्तोमान्) स्तुतिसमूहों का (हि) निश्चय से (अभि) सन्मुख (गृणीहि) स्वीकार कर ॥१४॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जिन्होंने वेदों को अध्ययन किया वे पूर्व ऋषि, और जो वेदों को पढ़ते हों उनको नवीन ऋषि जानें, और जैसे विद्वान् लोग जिन पदार्थों को जानकर उपकार लेवें हों वैसे अन्य पुरुषों को भी करना चाहिये किसी मनुष्य को मूर्खों की चालचलन पर न चलना चाहिये और जैसे विद्वान् लोग अपनी विद्या से पदार्थों के गुणों को प्रकाश कर उपकार करते हैं जैसे यह उषा अपने प्रकाश से सब पदार्थों को प्रकाशित करती है वैसे ही विद्वान् स्त्रियां विश्व को सुभूषित कर देती हैं ॥१४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की ज्यांनी वेदांचे अध्ययन केलेले आहे ते पूर्वीचे ऋषी व जे वेदांचे अध्ययन करतात त्यांना नवीन ऋषी मानावे व जसे विद्वान ज्या पदार्थांना जाणून त्यांचा उपयोग करून घेतात तसे इतर लोकांनीही करावे. कोणत्याही माणसाने मूर्खाच्या वर्तनासारखे वर्तन करू नये. जसे विद्वान लोक आपल्या विद्येच्या साह्याने पदार्थांचे गुण प्रकट करतात व उपकार करतात. जसे उषा आपल्या प्रकाशाने सर्व पदार्थ प्रकाशित करते. तसेच विद्वान स्त्रिया विश्वाला विभूषित करतात. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Great and Blessed Light of Divinity, whom the saints and seers of ancient and eternal vision and wisdom invoked and invoke for the sake of protection and advancement, may you, the same lady of light, listen and approve our songs of praise and prayer with gifts of light, action and wealth of success and prosperity.
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