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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - उषाः छन्दः - पथ्यावृहती स्वरः - मध्यमः

    उषो॒ यद॒द्य भा॒नुना॒ वि द्वारा॑वृ॒णवो॑ दि॒वः । प्र नो॑ यच्छतादवृ॒कं पृ॒थु च्छ॒र्दिः प्र दे॑वि॒ गोम॑ती॒रिषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उषः॑ । यत् । अ॒द्य । भा॒नुना॑ । वि । द्वारौ॑ । ऋ॒णवः॑ । दि॒वः । प्र । नः॒ । य॒च्छ॒ता॒त् । अ॒वृ॒कम् । पृ॒थु । छ॒र्दिः । प्र । दे॒वि॒ । गोऽम॑तीः । इषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः । प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उषः । यत् । अद्य । भानुना । वि । द्वारौ । ऋणवः । दिवः । प्र । नः । यच्छतात् । अवृकम् । पृथु । छर्दिः । प्र । देवि । गोमतीः । इषः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (उषः) उषर्वत्प्रकाशिके (यत्) या (अद्य) अस्मिन् दिने (भानुना) सदर्थप्रकाशकत्वेन (वि) विशेषार्थे (द्वारौ) गृहादींद्रिययोः प्रवेशनिर्गमनिमित्तौ (ऋणवः) ऋणुहि (दिवः) द्योतमानान् गुणान् (प्र) प्रकृष्टार्थे (नः) अस्मभ्यम् (यच्छतात्) देहि (अवृकम्) हिंसकप्राणिरहितम् (पृथु) सर्वर्त्तुस्थानाऽवकाशयोगेन विशालम् (छर्दिः) शुद्धाच्छादनादिना संदीप्यमानं गृहम्। छर्दिरिति गृहना०। निघं० ३।४। (प्र) प्रत्यक्षार्थे (देवि) दिव्यगुणे (गोमतीः) प्रशस्ताः स्वराज्ययुक्ता गावः किरणा विद्यन्ते यासु ताः (इषः) इच्छाः ॥१५॥

    अन्वयः

    पुनः सा किं करोतीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे देवि स्त्रि ! त्वं यथोषा अद्य भानुना द्वारौ प्रिणवो यथा च नो यदवृकं पृथु छर्दिर्दिवो गोमतीरिषश्च तथा विप्रयच्छतात् ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथोषाः स्वप्रकाशेन पूर्वस्मिन्नस्मिन्नागामिनि दिवसे सर्वान्मार्गान् द्वाराणि च प्रकाशयति तथा मनुष्यैः सर्वर्त्तुसुखप्रदानि गृहाणि रचयित्वा तत्र सर्वान्भोग्यान्पर्दार्थान्संस्थाप्यैतत्सर्वं कृत्वा प्रतिदिनं सुखयितव्यम् ॥१५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह क्या करती है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (देवि) दिव्य गुण युक्त स्त्री ! तू जैसे (उषाः) प्रभात समय (अद्य) इस दिन में (भानुना) अपने प्रकाश से (द्वारौ) गृहादि वा इन्द्रियों के प्रवेश और निकलने के निमित्त छिद्र (प्रार्णवः) अच्छे प्रकार प्राप्त होती और जैसे (नः) हम लोगों के लिये (यत्) (अवृकम्) हिंसक प्राणियों से भिन्न (पृथु) सब ऋतुओं के स्थान और अवकाश के योग्य होने से विशाल (छर्दिः) शुद्ध आच्छादन से प्रकाशमान घर है और जैसे (दिवः) प्रकाशादि गुण (गोमतीः) बहुत किरणों से युक्त (इषः) इच्छाओं को देती है वैसे (विप्रयच्छतात्) संपूर्ण दिया कर ॥१५॥ सं० भा० के अनुसार-(तू भली प्रकार)। सं०

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे उषा अपने प्रकाश से अतीत वर्त्तमान और आनेवाले दिनों में सब मार्ग और द्वारों को प्रकाश करती है वैसे ही मनुष्यों को चाहिये कि सब ऋतुओं में सुख देनेवाले घरों को रच उनमें सब भोग्य पदार्थों को स्थापन और वह सब स्त्री के आधीन कर प्रतिदिन सुखी रहैं ॥१५॥

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    विषय

    अवृक - पृथु 'छर्दि'

    पदार्थ

    १. हे (उषः) = उषः काल ! (यत्) = जब (अद्य) = आज ही (भानुना) = दीप्ति से (दिवः द्वारौ) = ज्ञान के दोनों द्वारों को - अपरा व पराविद्या को, प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या को तू (वि ऋणवः) = विश्लिष्टरूपेण प्राप्त होती है, अर्थात् जब हमारा प्रत्येक उषः काल ज्ञान के दोनों द्वारों को खोलनेवाला होता है - हम उषः काल में प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, २. तब यह उषा (नः) = हमें वह (छर्दिः) = घर (प्रयच्छतात्) = प्रकर्षण प्राप्त कराये जो (अवृकम्) = हिंसकभावों से रहित हो अथवा लोभ की भावना से रहित हो [वृक आदाने] (पृथु) = जो घर विशाल हो । घर में रहनेवालों के भाव हिंसा व लोभ से ऊपर उठे हुए हों । न तो उनमें हिंसा की भावना हो और न ही वे लोभ से आक्रान्त हों । ३. हे (देवि) = ज्ञान को देनेवाली तथा उत्तम घर को प्राप्त करानेवाली उषे ! तू (गोमतीः) = उत्तम गोदुग्धों से सम्पन्न (इषः) = अन्नों को (प्र) = [यच्छतात्] हमें देनेवाली हो । हम सदा गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजनों का ही प्रयोग करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें प्रकृति व आत्मा दोनों का ज्ञान प्राप्त हो । हमारा घर हिंसा व लोभ से रहित व विशाल हो । हम गोदुग्ध व वनस्पति का ही सेवन करनेवाले बनें ।

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    विषय

    उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (उषः) उषा के समान कान्तिमति, तेजस्विनि स्त्रि! (यत्) जैसे वह उषा (भानुना) सूर्य के प्रकाश से (दिवः द्वारौ) आकाश के दोनों द्वार, पूर्व और पश्चिम के आने जाने के मार्गो को (नि ऋणवः) प्राप्त होती है उसी प्रकार तू भी (भानुना) सूर्य के प्रकाश से और अपने गुण प्रकाश से (द्वारौ) ज्ञानवान् पुरुषों के आने और जाने के मार्गों को (वि ऋणवः) अच्छी प्रकार खोला कर। और (नः) हमें (अवृकम्) हिंसक प्राणि, बिच्छू सर्पादि से रहित, (पृथु) अति विशाल, (छर्दिः) घर और (गोमतीः) गौ आदि पशुओं से सम्पन्न (इषः) अन्नादि ऐश्वर्य को (प्र प्र यच्छतात्) खूब प्रदान किया कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह देवी क्या करती है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे देवि स्त्रि ! त्वं यथा उषा अद्य भानुना द्वारः ऋणवः यथा च नः यत् अवृकं पृथु छर्दिः दिवः गोमतीः इषः च तथा वि प्रयच्छतात् ॥१५॥

    पदार्थ

    हे (देवि) दिव्यगुणे= दिव्य गुणोंवाली, (स्त्रि)=स्त्री ! (त्वम्)=तुम, (यथा)=जिस प्रकार से, (उषः) उषर्वत्प्रकाशिके=उषा के समान प्रकाशित करनेवाली हो, (अद्य) अस्मिन् दिने=आज के दिन, (भानुना) सदर्थप्रकाशकत्वेन =सार्थक प्रकाशक होने के कारण, (द्वारौ) गृहादींद्रिययोः प्रवेशनिर्गमनिमित्तौ=इन्द्रियों के गृह आदि, अर्थात् मनुष्य में प्रवेश और बाहर जाने के निमित्त से, (ऋणवः) ऋणुहि=प्राप्त होती है,, (च)=और, (यथा)=जैसे, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (यत्) या=जो, (अवृकम्) हिंसकप्राणिरहितम्= हिंसक प्राणियों रहित, (पृथु) सर्वर्त्तुस्थानाऽवकाशयोगेन विशालम्=सब स्थानों में खालीपन होने से, (छर्दिः) शुद्धाच्छादनादिना संदीप्यमानं गृहम्=शुद्ध ढके हुए आदि उज्ज्वल घरों के, (दिवः) द्योतमानान् गुणान्=गुणों को, (गोमतीः) प्रशस्ताः स्वराज्ययुक्ता गावः किरणा विद्यन्ते यासु ताः= प्रशस्त अपने राज्य से युक्त गायें और किरणोंवाली, (च)=और, (इषः) इच्छाः=कामनावाली, (तथा)=वैसे ही, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (प्र) प्रत्यक्षार्थे=प्रत्यक्ष रूप से, (यच्छतात्) देहि=दीजिये ॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जैसे उषा अपने प्रकाश से हमारे पूर्व समय के और आगामी दिनों के सब मार्ग के द्वारों को प्रकाशित करती है, वैसे ही मनुष्यों को चाहिये कि सब ऋतुओं में सुख देनेवाले घरों को रच करके उनमें सब भोग्य पदार्थों को स्थापित करके उससे वह सब कुछ करके प्रतिदिन सुखी रहना चाहिए ॥१५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (देवि) दिव्य गुणोंवाली (स्त्रि) स्त्री ! (त्वम्) तुम (यथा) जिस प्रकार से (उषः) उषा के समान प्रकाशित करनेवाली हो, (अद्य) आज के ही दिन (भानुना) सार्थक प्रकाशक होने के कारण (द्वारौ) इन्द्रियों के गृह आदि, अर्थात् मनुष्य में प्रवेश और बाहर जाने के कारणों से (ऋणवः) प्राप्त होती हो (च) और (यथा) जैसे (नः) हमारे लिये, (यत्) जो (अवृकम्) हिंसक प्राणियों रहित (पृथु) सब स्थानों में खालीपन होने से (छर्दिः) शुद्ध, ढके हुए, उज्ज्वल घरों आदि के (दिवः) गुणों में (गोमतीः) अपने प्रशस्त राज्य से युक्त गायों व किरणोंवाली (च) और (इषः) कामनावाली है, (तथा) वैसे ही (वि) विशेष वस्तुएँ (प्र) प्रत्यक्ष रूप से (यच्छतात्) हमें दीजिये ॥१५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उषः) उषर्वत्प्रकाशिके (यत्) या (अद्य) अस्मिन् दिने (भानुना) सदर्थप्रकाशकत्वेन (वि) विशेषार्थे (द्वारौ) गृहादींद्रिययोः प्रवेशनिर्गमनिमित्तौ (ऋणवः) ऋणुहि (दिवः) द्योतमानान् गुणान् (प्र) प्रकृष्टार्थे (नः) अस्मभ्यम् (यच्छतात्) देहि (अवृकम्) हिंसकप्राणिरहितम् (पृथु) सर्वर्त्तुस्थानाऽवकाशयोगेन विशालम् (छर्दिः) शुद्धाच्छादनादिना संदीप्यमानं गृहम्। छर्दिरिति गृहना०। निघं० ३।४। (प्र) प्रत्यक्षार्थे (देवि) दिव्यगुणे (गोमतीः) प्रशस्ताः स्वराज्ययुक्ता गावः किरणा विद्यन्ते यासु ताः (इषः) इच्छाः ॥१५॥ विषयः- पुनः सा किं करोतीत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे देवि स्त्रि ! त्वं यथोषा अद्य भानुना द्वारौ ऋणवो यथा च नो यदवृकं पृथु छर्दिर्दिवो गोमतीरिषश्च तथा विप्रयच्छतात् ॥१५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यथोषाः स्वप्रकाशेन पूर्वस्मिन्नस्मिन्नागामिनि दिवसे सर्वान्मार्गान् द्वाराणि च प्रकाशयति तथा मनुष्यैः सर्वर्त्तुसुखप्रदानि गृहाणि रचयित्वा तत्र सर्वान्भोग्यान्पर्दार्थान्संस्थाप्यैतत्सर्वं कृत्वा प्रतिदिनं सुखयितव्यम् ॥१५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी उषा भूत, वर्तमान, भविष्यात येणाऱ्या दिवशी आपल्या प्रकाशाने सर्व मार्ग व द्वार प्रकाशित करते. तसेच माणसांनी सर्व ऋतूत सुख देणारी घरे निर्माण करून त्यात सर्व भोग्य पदार्थ ठेवावेत व ते सर्व स्त्रियांच्या अधीन करून प्रतिदिनी सुख भोगावे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Light of Divinity, since you have opened the doors of the light of heaven at the dawn today, bless us now with a spacious home of love and peace free from violence and the gift of food and energy, mind and sense of the Divine, and plenty of land and cows.

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    Subject of the mantra

    Then what does that female deity do? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (devi) =having devine virtues, (stri) =woman, (tvam) =you, (yathā) =like, (uṣaḥ)=Illuminate like dawn, (adya) =today itself, (bhānunā) Being a Worthwhile illuminator, (dvārau) =the houses of the senses etc., i.e. the causes of entry and exit in man, (ṛṇavaḥ)=get obtained, (ca) =and, (yathā)=like, (naḥ) =for us, (yat) =that, (avṛkam)=free from predators, (pṛthu)=with emptiness everywhere, (chardiḥ)=of pure, covered, bright houses etc., (divaḥ) =in qualities, (gomatīḥ)=cows and rays with their vast kingdom, (ca) =and, (iṣaḥ)=is wishful, (tathā) =in the same way, (vi)=specific things, (pra)=directly, (yacchatāt) = give us.

    English Translation (K.K.V.)

    O woman with divine virtues! The way you illuminate like dawn, on this day itself, being a meaningful illuminator, the houses of the senses etc., i.e. for the purpose of entering and exiting in humans, are obtained for us. The one who is full of cows and rays and full of desires, in the qualities of pure covered bright etc. houses without violent creatures, having emptiness in all places, in the same way, give for us specific things directly.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as dawn illuminates with its light the doors of all the roads of our past times and the days to come, similarly humans should do all that every day by creating homes that give happiness in all seasons and by installing all the things in them. And Should be happy every day.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does she (Usha) do is taught further in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O lady of divine virtues, as the Dawn hath set open to-day (as usual) the doors of the house and senses with her light, grant us a spacious and secure habitation, free from the fear of wild beasts and source of happiness in all seasons. Fulfil our noble desires including those of having good milch cows.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the Dawn manifests by her light all the paths and doors, in the same manner, men should build houses that may be source of happiness in all seasons and by keeping there all enjoyable necessary objects should always be delighted.

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