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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - उषाः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - पञ्चमः

    वि या सृ॒जति॒ सम॑नं॒ व्य १॒॑ र्थिनः॑ प॒दं न वे॒त्योद॑ती । वयो॒ नकि॑ष्टे पप्ति॒वांस॑ आसते॒ व्यु॑ष्टौ वाजिनीवति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । या । सृ॒जति॑ । सम॑नम् । वि । अ॒र्थिनः॑ । प॒दम् । न । वे॒ति॒ । ओद॑ती । वयः॒ । नकिः॑ । ते॒ । प॒प्ति॒वांसः॑ । आ॒स॒ते॒ विऽउ॑ष्टौ वा॒जि॒नी॒ऽव॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि या सृजति समनं व्य १ र्थिनः पदं न वेत्योदती । वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । या । सृजति । समनम् । वि । अर्थिनः । पदम् । न । वेति । ओदती । वयः । नकिः । ते । पप्तिवांसः । आसते विउष्टौ वाजिनीवति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (वि) विविधार्थे (या) उषर्वत्स्त्री (सृजति) (समनम्) समीचीनं संग्रामम्। समनमिति संग्रामना०। निघं० २।१७। (वि) विशेषार्थे (अर्थिनः) प्रशस्ता अर्था यस्य सन्ति (पदम्) प्रापणीयम् (न) इव (वेति) व्याप्नोति (ओदती) उन्दनं कुर्वन्ती (वयः) पक्षिणः (नकिः) या न शब्दयति सा (ते) तव (पप्तिवांसः) पतनशीला (आसते) (व्युष्टौ) विशेषेणोष्यन्ते दह्यन्ते यया कान्त्या तस्याम् (वाजिनीवती) बहवो वाजिन्यः क्रिया विद्यन्ते यस्यां सा ॥६॥

    अन्वयः

    पुनः सा किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे योगिनि स्त्रि ! भवती यथा यौदती नकिर्वाजिनीवत्युषा अर्थिनः पदं न समनं विवेति विसृजति यस्या व्युष्टौ पप्तिवांसो वय आसते सा वेला ते योगाभ्यासार्थाऽस्तीति मन्यस्व ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमाऽलंकारः यथा स्त्रियो व्यवहारेण स्वकीयान्पदार्थान्प्राप्नुवन्ति तथोषाः स्वप्रकाशेन स्वव्यवहाराऽधिकारं प्रोप्नोति यथा सा दिनमुत्पाद्य सर्वान्प्राणिनउत्थाप्य स्वस्वव्यवहारेषु वर्त्तयित्वा रात्रिं निवर्तयति दिनस्य प्रादुर्भावाद्दाहं जनयति तथैव स्त्रीभिर्भवितव्यम् ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसी हो, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे योगाभ्यास करनेहारी स्त्री ! आप जैसे (या) जो (ओदती) आर्द्रता को करती हुई (नकिः) शब्द को न करती (वाजिनीवती) बहुत क्रियाओं का निमित्त (उषाः) प्रातः समय (अर्थिनः) प्रशस्त अर्थ वाले का (पदं न) प्राप्ति के योग्य के समान (समनम्) सुन्दर संग्राम को जैसे (विवेति) व्याप्त होती है जिसकी (व्युष्टौ) दहन करनेवाली कान्ति में (पप्तिवांसः) पतनशील (वयः) पक्षी (आसते) स्थिर होते हैं वह वेला (ते) तेरे योगाभ्यास के लिये है इसको तू जान ॥६॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालंकार है। जैसे स्त्रियां व्यवहार से अपने पदार्थों को प्राप्त होती हैं वैसे उषा अपने प्रकाश से अधिकार को प्राप्त होती हैं जैसे वह दिन को उत्पन्न और सब प्राणियों को उठाकर अपने-२ व्यवहार में प्रवर्त्तमान कर रात्रि को निवृत्त करती और दिन के होने से दाह को भी उत्पन्न करती है वैसे ही सब स्त्री जनों को भी होना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    वाजिनीवती

    पदार्थ

    १. (ओदती)= वाष्पकणों से [ओस के रूप में], घास आदि को क्लिन्न [गीला] करनेवाली उषा वह है, या जो (समनम्) = [सम्+अन्] सम्यक चेष्टावान् पुरुषों को [समीचीनचेष्टावन्तम् - सा०] (विसृजति) = विविध उत्तम कार्यों में प्रेरित करती है, अर्थात् इस उषा के उदित होने पर उपासक लोग उपासना आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं । २. (अर्थिनः) = प्रार्थनाशील पुरुषों को भी यह उषा (वि) [सृजति] - विविध रूप से प्रार्थनाओं में प्रेरित करती है । ३. यह उषा (पदं न वेति) = स्थान को, रुकने को नहीं चाहती [कामयते - वेति], अर्थात् शीघ्रता से आगे बढ़ती है । इसी प्रकार इस उषः काल में प्रत्येक व्यक्ति गति की कामनावाला होता है । ४. हे (वाजिनीवति) = प्रशस्त क्रियाओं [वज गतौ], शक्तियों [वाज - बल] व अन्नोंवाली उषे ! (ते व्युष्टौ) = तेरे उदित होने पर (पप्तिवांसः) = उड़नेवाले (वयः) = पक्षी (नकिः आसते) = बैठे नहीं रह जाते, पक्षी भी क्रियाओं में प्रवृत्त हो जाते हैं, तो समझदार मनुष्य क्यों न अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त होंगे ?

    भावार्थ

    भावार्थ - उषः काल में सब अपने - अपने कार्यों में उत्तमता से लग जाते हैं ।

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    विषय

    उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (वाजिनीवती) अश्वों की सेना से युक्त संग्रामनेत्री स्त्री जिस प्रकार (समनं) संग्राम को (वि सृजती) विविध प्रकारों से जाती है। और (वाजिनीवती) नाना ऐश्वर्यों से युक्त सौभाग्यवती नायिका, नववधू जिस प्रकार (समनं) पति के संग लाभ के निमित्त (वि सृजती) विविध मार्गों से जाती है, उसी प्रकार (या) जो उषा प्रभातवेला भी (समनं) वि सृजती) दिन और रात्रि के संगम को दूर करती है, (वाजिनीवती) अर्थिनः विसृजती) और जिस प्रकार वह ऐश्वर्यवती स्त्री धन और अन्न के याचकों को उनके अभीष्ट पदार्थ प्रदान करती है और युद्ध-कुशल स्त्री जिस प्रकार (अर्थिनः वि) अर्थनीति में कुशल युद्धार्थी शत्रुओं को भी विमुख कर देती है उसी प्रकार उषा भी (अर्थिनः वि) स्तुति द्वारा प्रार्थनाशील पुरुषों को विविध मार्गों से प्रेरित करती है। (ओदती पदं न वेति) जिस प्रकार युद्धकुशला स्त्री देश को रक्त से गीला करती हुई आगे बढ़ती है और जिस प्रकार नववधू स्त्री (ओदती) अंचरा को आँसुओं से गीला करती हुई पति-गृह को प्राप्त होती है उसी प्रकार यह उषा भी ओस से भूलोक को गीला करती हुई आती है। और (व्युष्टौ पप्तिवांसः वयः नकिः आसते) युद्ध कुशला सेना या स्त्री के विशेष शत्रुदाहकारी संतापक या उग्र हो जाने पर पक्षियों के समान भगोड़े शत्रु कभी कहीं ठहरते, वे भयभीत होकर भाग ही जाते हैं। और जिस प्रकार नववधू के पति के प्रति विशेष कामना युक्त होने पर विशेष वेग से जाने वाले (वयः) अश्व कहीं भी विश्राम न लेते हुए जाते हैं, उसी प्रकार (व्युष्टौ) हे उषः ! तेरे उदित हो जाने पर भी (पप्तिवांसः वयः) उड़ने वाले पक्षी (नकिः आसते) कभी घोंसलों पर टिके नहीं रहते ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह उषा कैसी हो, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे योगिनि स्त्रि ! भवती यथा या ओदती नकिः वाजिनीवती उषा अर्थिनः पदं न समनं विवेति वि सृजति यस्या व्युष्टौ पप्तिवांसः वयः आसते सा वेला ते योगाभ्यासार्था अस्ति इति मन्यस्व ॥६॥

    पदार्थ

    हे (योगिनि)= योगाभ्यास करनेवाली, (स्त्रि)= स्त्री ! (भवती)=आप, (यथा) =जैसे, (या) उषर्वत्स्त्री= उषा के समान स्त्री, (ओदती) उन्दनं कुर्वन्ती=गीला करती हुई, (नकिः) या न शब्दयति सा=शब्द न करती हुई, (वाजिनीवती) बहवो वाजिन्यः क्रिया विद्यन्ते यस्यां सा=जिसमें बहुत सी पक्षियों की क्रियायें हैं, ऐसी (उषा) =उषा, (अर्थिनः) प्रशस्ता अर्था यस्य सन्ति=जिसमें प्रशस्त संपदायें हैं, (पदम्) प्रापणीयम् = प्राप्त करने योग्य, (न) इव= जैसे, (समनम्) समीचीनं संग्रामम्= यथार्थ संग्राम में, (वि) विशेषार्थे = विशेष रूप से, (वेति) व्याप्नोति= व्याप्त होती है, (वि) विविधार्थे=विविध प्रकार के, (सृजति)= निर्माण करती है, (यस्या)=जिसके, (व्युष्टौ) विशेषेणोष्यन्ते दह्यन्ते यया कान्त्या तस्याम्=जिसकी चमक से विशेष रूप से जल पड़ती हैं, उन (पप्तिवांसः) पतनशीला=गिरने के स्वभाव के, (वयः) पक्षिणः=पक्षी, (आसते) =बैठ जाते हैं, (सा)=वह, (वेला)= वेला, (ते) तव =तुम्हारे, (योगाभ्यासार्था)=योगाभ्यास के लिये, (अस्ति)=है, (इति)=ऐसा, (मन्यस्व)=मन में विचार करो ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमालंकार है। जैसे स्त्रियां व्यवहार से अपने पदार्थों को प्राप्त करती हैं, वैसे उषा अपने प्रकाश से अपने अधिकार को प्राप्त करती है। जैसे वह दिन को उत्पन्न करके सब प्राणियों को उठाकर अपने-अपने व्यवहार में लगाकर कर रात्रि को निवृत्त करती और दिन के प्राणभ होने से चमकती लाली को भी उत्पन्न करती है, वैसे ही सब स्त्रियों को भी होना चाहिये ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (योगिनि) योगाभ्यास करनेवाली (स्त्रि) स्त्री ! (भवती) आप (यथा) जैसे (या) उषा के समान स्त्री (ओदती) गीला करती हुई, (नकिः) शब्द न करती हुई, (वाजिनीवती) जिसमें बहुत सी पक्षियों की क्रियायें हैं, ऐसी (उषा) उषा (अर्थिनः) प्रशस्त संपदाओं वाली है और (पदम्) प्राप्त करने योग्य है। (न) जैसे (समनम्) यथार्थ संग्राम में, (वि) विशेष रूप से (वेति) व्याप्त होती है और (वि) विविध प्रकार के (सृजति) निर्माण करती है। (यस्या) जिसकी (व्युष्टौ) चमक से विशेष रूप से जल पड़ते हैं, वे (पप्तिवांसः) गिरने के स्वभाव के (वयः) पक्षी (आसते) स्थिर हो जाते हैं। (सा) वह [उषा की] (वेला) वेला (ते) तुम्हारे (योगाभ्यासार्था) योगाभ्यास के लिये (अस्ति) है, (इति) ऐसा (मन्यस्व) मन में विचार करो ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वि) विविधार्थे (या) उषर्वत्स्त्री (सृजति) (समनम्) समीचीनं संग्रामम्। समनमिति संग्रामना०। निघं० २।१७। (वि) विशेषार्थे (अर्थिनः) प्रशस्ता अर्था यस्य सन्ति (पदम्) प्रापणीयम् (न) इव (वेति) व्याप्नोति (ओदती) उन्दनं कुर्वन्ती (वयः) पक्षिणः (नकिः) या न शब्दयति सा (ते) तव (पप्तिवांसः) पतनशीला (आसते) (व्युष्टौ) विशेषेणोष्यन्ते दह्यन्ते यया कान्त्या तस्याम् (वाजिनीवती) बहवो वाजिन्यः क्रिया विद्यन्ते यस्यां सा ॥६॥ विषयः- पुनः सा किं कुर्यादित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे योगिनि स्त्रि ! भवती यथा यौदती नकिर्वाजिनीवत्युषा अर्थिनः पदं न समनं विवेति विसृजति यस्या व्युष्टौ पप्तिवांसो वय आसते सा वेला ते योगाभ्यासार्थाऽस्तीति मन्यस्व ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमाऽलंकारः यथा स्त्रियो व्यवहारेण स्वकीयान्पदार्थान्प्राप्नुवन्ति तथोषाः स्वप्रकाशेन स्वव्यवहाराऽधिकारं प्रोप्नोति यथा सा दिनमुत्पाद्य सर्वान्प्राणिनउत्थाप्य स्वस्वव्यवहारेषु वर्त्तयित्वा रात्रिं निवर्तयति दिनस्य प्रादुर्भावाद्दाहं जनयति तथैव स्त्रीभिर्भवितव्यम् ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे स्त्रिया व्यवहाराने आपले पदार्थ प्राप्त करून घेतात. तशी उषा आपल्या प्रकाशाने अधिकार प्राप्त करते. जशी ती दिवस उत्पन्न करून सर्व प्राण्यांना उठवून आपापल्या व्यवहारात प्रवृत्त करून रात्री निवृत्त करते व दिवसा उष्णताही उत्पन्न करते. तसेच सर्व स्त्रियांनी असले पाहिजे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The silent and brilliant dawn replete with energy stirs up and inaugurates the battles of existence. Refreshing, and sprinkling, as if, the paths of the seekers with holy waters, it guides them to their goals. The birds that fly soar in the splendour of its light.

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    Subject of the mantra

    Then what should that Uṣā be like, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (yogini) =practicing Yoga, (stri) =woman, (bhavatī) =you, (yathā) =like, (yā)=woman like usha (odatī)=getting wet, (nakiḥ)=without words, (vājinīvatī)= In which there are actions of many birds, such, (uṣā) =dawn, (arthinaḥ)=rich in wealth and, (padam)=is obtainable, (na) =like, (samanam) =in actual battle, (vi)=especially, (veti)=pervades and, (vi)=variety of, (sṛjati)=does constructions, (yasyā) =whose, (vyuṣṭau)=especially get burnt of the glare, they (paptivāṃsaḥ)=of falling nature, (vayaḥ) =birds, (āsate)=become stable, (sā) =that, [uṣā kī]=of dawn, (velā) =time, (te) =your, (yogābhyāsārthā) =for practicing Yoga, (asti) =is, (iti) =such, (manyasva)=think in mind.

    English Translation (K.K.V.)

    O woman practicing yoga! A woman like you, wet, without words, like dawn, who has the actions of many birds, such dawn is full of wealth and is worth getting. As in real combat, it pervades especially and creates various types. Those birds of the nature of falling become stable by whose luster especially burns. That dawn time is for your practice of yoga, think like this in your mind.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as women get their things by practice, dawn gets her rights by her light. Just as she wakes up all the living beings by raising the day and puts them to rest in the night and by being the life force of the day, she also creates the glowing redness, so should all women as well be.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Yogini (Noble woman engaged in the practice of Yoga) you should be like the Dawn who is shedder of dews, who animates the diligent for the battle of life or sends the busy forth, each man to his pursuit, who is active, who knows not delay, after whose rising, birds that have flown forth no longer rest. You should know that the time of dawn is meant for your practice of Yoga.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [वाजिनीवती] बह्वयः वाजिन्यः क्रिया विद्यन्ते यस्यां सा = For whom there are many movements, active. [समनम्] समीचीनं संग्रामम् । समनमिति संग्रामनाम [निघ० २.१७] = Good battle of life.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As women get their objects by dealing with labor, in the same manner, the dawn with her light gets the right of her dealing. As she awakens all people by creating the day and sends them to pursue their different vocations and makes them rest at night, the woman should also behave like her. She should make all busy by her own example and dispel all darkness of ignorance.

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