ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 50/ मन्त्र 13
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
उद॑गाद॒यमा॑दि॒त्यो विश्वे॑न॒ सह॑सा स॒ह । द्वि॒षन्तं॒ मह्यं॑ र॒न्धय॒न्मो अ॒हं द्वि॑ष॒ते र॑धम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒गा॒त् । अ॒यम् । आ॒दि॒त्यः । विश्वे॑न । सह॑सा । स॒ह । द्वि॒षन्त॑म् । मह्य॑म् । र॒न्धय॑न् । मो इति॑ । अ॒हम् । द्वि॒ष॒ते । र॒ध॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह । द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । अगात् । अयम् । आदित्यः । विश्वेन । सहसा । सह । द्विषन्तम् । मह्यम् । रन्धयन् । मो इति । अहम् । द्विषते । रधम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 50; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 8
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(उत्) ऊर्ध्वे (अगात्) व्याप्नोति (अयम्) सभेशो विद्वान् (आदित्यः) नाशरहितः (विश्वेन) अखिलेन (सहसा) बलेन (सह) साकम् (द्विषन्तम्) शत्रुम् (मह्यम्) धार्मिकमनुष्याय (रन्धयन्) हिंसन् (मो) निषेधार्थे (अहम्) मनुष्यः (द्विषते) शत्रवे (रधम्) हिंसेयम् ॥१३॥
अन्वयः
पुनर्मनुष्यैः कथं प्रजाः पालनीया इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे विद्वन् ! यथाऽयमादित्यउदगात्तथा त्वं विश्वेन सहासा सहऽस्मिन्राज्य उदिहि यथा त्वं मह्यं द्विषन्तं रन्धयन् प्रवर्त्तसे तथाऽहं प्रवर्त्तेय यथायं शत्रुर्मां हिनस्ति तथाहमप्यस्मै द्विषते रधं यो मां न हिंसेत्तमहं मोरधं न हिंसेयम् ॥१३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैरनन्तबलजगदीश्वरस्य जलनिमित्तस्य प्राणवद्विद्युतो दृष्टान्तेन वर्त्तित्वा सज्जनैः सार्द्धं मित्रभावमाश्रित्य सर्वाः प्रजाः पालनीयाः ॥१३॥ अत्र परमेश्वराग्निकार्यकारणयोर्दृष्टान्तेन राजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेदितव्यम्। इत्यष्टमो वर्गः ८ नवमोऽनुवाकः ९ पंचाशं सूक्तं च समाप्तम् ॥५०॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर मनुष्य किस प्रकार प्रजाओं का पालन करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे विद्वन् ! यथा (अयम्) यह (आदित्यः) नाशरहित सूर्य्य (उदगात्) उदय को प्राप्त होता है वैसे तू (विश्वेन) अखिल (सहसा) बल के साथ उदित हो जैसे तू (मह्यम्) धार्मिक मनुष्य के (द्विषन्तम्) द्वेष करते हुए शत्रु को (रन्धयन्) मारता हुआ वर्त्तता है वैसे (अहम्) मैं (द्विषते) शत्रु के लिये वर्त्तूं जैसे यह शत्रु मुझ को मारता है वैसे इसको मैं भी मारूं जो मुझे न मारे उसे मैं भी (मोरधम्) न मारूं ॥१३॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि अनन्त बल युक्त परमेश्वर के बल के निमित्त प्राण वा बिजुली के दृष्टान्त से वर्त्त के सत्पुरुषों के साथ मित्रता कर सब प्रजाओं का पालन यथावत् किया करें ॥१३॥ इस सूक्त में परमेश्वर वा अग्नि के कार्य कारण के दृष्टान्त से राजा के गुण वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगती जाननी चाहिये ॥ यह आठवां ८ वर्ग नवम् ९ अनुवाक और पचासवां ५० सूक्त समाप्त हुआ ॥५०॥
विषय
द्विषद् - रन्धन
पदार्थ
१. (अयं आदित्यः) = रोगों से हमारा खण्डन न होने देनेवाला यह सूर्य (विश्वेन) = सम्पूर्ण (सहसा) = रोगों को पराभूत करनेवाले बल के (सह) = साथ (उद् अगात्) = उदय होता है । उदय होता हुआ यह सूर्य (मां द्विषन्तं रन्धयन्) = मेरे लिए द्वेष करते हुए रोगों को नष्ट करता है, (उ) = और (अहम्) = मैं (द्विषते) = इस द्वेष करनेवाले रोग के लिए (मा रधम्) = हिंसित न हो जाऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ - उदय होते हुए सूर्य की किरणों में वह शक्ति है जो हमारे अप्रिय रोगों का नाश करती है और हमें उन रोगों का शिकार नहीं होने देती ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार होता है कि सूर्योदय होता है और सब पदार्थ ठीक रूप में दिखने लगते हैं [१] । हमारे जीवनों में जब ज्ञान - सूर्य उदय होता है तब वासना - नक्षत्र अस्त हो जाते हैं [२] । ज्ञान - सूर्य के उदय होते ही बुराइयाँ अन्धकार के समान विलीन हो जाती हैं [३] । यह सूर्य हमारे शरीर, मन व मस्तिष्क सभी को स्वस्थ करता है [४] । इस सूर्य में प्रभु की महिमा दिखती है [५] । परार्थ - प्रवृत्त लोग सूर्य से हित प्राप्त करते हैं [६] । यह सूर्य ही दिन - रात्रि के निर्माण से हमारा पालन कर रहा है [७] । अपनी सात किरणों से सप्तविध प्राणशक्ति का यह हममें सञ्चार करता है [८] । इन सातों किरणों के साथ यह अन्तरिक्ष में आगे और आगे चल रहा है [९] । यह सूर्य उत्कृष्टतम ज्योति है [१०] । यह हृद्रोग व हरिमा को दूर करता है [११] । अपने सहस् द्वारा हमारे अप्रिय रोगों का नाश करता है [१३] । सूर्य के सम्पर्क में रहता हुआ यह ऋषि 'आंगिरस', अङ्ग - अङ्ग में रसवाला बनता है और अपने में शक्तियों का उत्पादन करनेवाला 'सव्य' कहलाता है । यह अपने को पूर्ण स्वस्थ बनाकर प्रभु की ओर अग्रसर होता है -
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी अनंत बलयुक्त परमेश्वराचे बल निमित्त असलेले प्राण व विद्युत यांचा दृष्टांत जाणून त्याप्रमाणे वागावे व सत्पुरुषाबरोबर मैत्री करून सर्व प्रजेचे यथायोग्य पालन करावे. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
There arises this sun with all the light and power and glory of the world, scorching and burning off whatever is negative and injurious to me. O Lord of Light and Glory of power, I pray I may never be subjected to the jealous and the destructive forces of life.
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