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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अप॒ त्ये ता॒यवो॑ यथा॒ नक्ष॑त्रा यन्त्य॒क्तुभिः॑ । सूरा॑य वि॒श्वच॑क्षसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । त्ये । ता॒यवः॑ । य॒था॒ । नक्ष॑त्रा । य॒न्ति॒ । अ॒क्तुऽभिः॑ । सूरा॑य । वि॒श्वऽच॑क्षसे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः । सूराय विश्वचक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । त्ये । तायवः । यथा । नक्षत्रा । यन्ति । अक्तुभिः । सूराय । विश्वचक्षसे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अप) पृथग्भावे (त्ये) अमी (तायवः) सूर्य्यपालका वायवः (यथा) येत प्रकारेण (नक्षत्रा) नक्षत्राणि क्षयरहिता लोकाः (यन्ति) (अक्तुभिः) रात्रिभिः (सूराय) सूर्य्यलोकाय (विश्वचक्षसे) विश्वस्य चक्षुर्दर्शनं यस्मात्तस्मै ॥२॥

    अन्वयः

    पुनः के कस्मै किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे स्त्री पुरुषा ! यूयं यथाऽक्तुभिः सह वर्त्तमानानि नक्षत्रा नक्षत्राणि लोकास्त्ये तायवो वायवश्च विश्वचक्षसे सूरायापयन्ति तथा विवाहिताभिः स्त्रीभिः सह संयोगवियोगान्कुरुत ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालंकारः। यथा रात्रौ नक्षत्राणि चन्द्रेण प्राणश्च शरीरेण सह वर्त्तन्ते तथा विवाहितस्त्रीपुरुषौ वर्त्तेयाताम् ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर कौन किसके लिये क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! तुम (यथा) जैसे (अक्तुभिः) रात्रियों के साथ (नक्षत्रा) नक्षत्र आदि क्षय रहित लोक और (तायवः) वायु (विश्वचक्षसे) विश्व के दिखानेवाले (सूराय) सूर्य्य लोक के अर्थ (अपयन्ति) संयुक्त वियुक्त होते हैं वैसे ही विवाहित स्त्रियों के साथ संयुक्त वियुक्त हुआ करो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे रात्रि में नक्षत्र लोक चन्द्रमा के साथ और प्राण शरीर के साथ वर्त्तते हैं वैसे विवाह करके स्त्री और पुरुष आपस में वर्त्ता करें ॥२॥

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    विषय

    नक्षत्रों का अपयान

    पदार्थ

    १. (विश्वचक्षसे) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करनेवाले (सूराय) = सूर्य के लिए, अर्थात् मानो उसके आगमन के लिए स्थान को रिक्त करने के दृष्टिकोण से (त्ये नक्षत्रा) = रात्रि में चमकनेवाले नक्षत्र वे सब उसी प्रकार (अक्तुभिः) = रश्मियों के साथ (अपयन्ति) = दूर चले जाते हैं (यथा) = जैसे (तायवः) = रात्रि के अन्धकार में चोरी करनेवाले चोर, रात्रि की समाप्ति के साथ, इधर - उधर तिरोहित हो जाते हैं । २. सूर्य आता है, नक्षत्र अस्त हो जाते है । इसी प्रकार हमारे जीवन में भी ज्ञान का सूर्य उदय होने पर तुच्छ वासनाओं के नक्षत्र अस्त हो जाते हैं । ये सब इच्छा - नक्षत्र रात्रि के अन्धकार के समान अज्ञानान्धकार में ही उदित होते हैं । ये वासना - नक्षत्र हमारी शक्तियों का हरण करने के कारण सचमुच चोरों के समान हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे जीवन में ज्ञानसूर्य का उदय हो और वासना - नक्षत्रों का अस्त हो ।

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    विषय

    स्वयंवरण, सर्वप्रकाशक परमेश्वर की उपासना ।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (अक्तुभिः) रात्रि के कालों में (नक्षत्रा) नक्षत्र गण चन्द्र के साथ संगत होते हैं और दिन काल में वे (अप यन्ति ) दूर हो जाते हैं, नहीं दिखाई देते, इसी प्रकार ( तायवः ) सन्तति उत्पन्न करनेहारी स्त्रियां भी अह्लादकारी पति के साथ (अक्तुभिः) ऋतु-रात्रियों में संगत हों और (विश्वचक्षसे ) सबको ज्ञान और प्रकाश के दिखाने वाले (सूराय) तेजस्वी पति के वृद्धि के निमित्त (अप यन्ति) नक्षत्रों के समान दूर रहें । अर्थात् सन्तानार्थिनी स्त्रियें भी पुरुषों से दिन में कभी संग न करे ।

    टिप्पणी

    ताय सन्तानपालनयोः भ्वादिः। अहोरात्रौ वै प्रजापतिः । तस्याहरेव प्राणो रात्रि रेव रयिः । प्राणं वा एते प्रस्कन्दन्ति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते । प्रश्न उप० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१३ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः । सूर्यो देवता ॥ छन्दः—१, ६ निचृद्गायत्री । २, ४, ८,९ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । ३ गायत्री । ५ यवमध्या विराङ्गायत्री । विराङ्गायत्री । १०, ११ निचृदनुष्टुप् । १२,१३ अनुष्टुप् ।

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    विषय

    फिर कौन किसके लिये क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे स्त्री पुरुषा ! यूयं यथा अक्तुभिः सह वर्त्तमानानि नक्षत्रा नक्षत्राणि लोकाः त्ये तायवः वायवः च विश्वचक्षसे सूराय अप यन्ति तथा विवाहिताभिः स्त्रीभिः सह संयोगवियोगानि अकुरुत ॥२॥

    पदार्थ

    हे (स्त्री)= स्त्रियों और, (पुरुषा)= पुरुषों ! (यूयम्)=तुम सब, (यथा) येन प्रकारेण=जिस प्रकार से, (अक्तुभिः) रात्रिभिः=रात्रि के, (सह)= साथ, (वर्त्तमानानि) वर्त्तमान, (नक्षत्रा) नक्षत्राणि क्षयरहिता लोकाः=नष्ट रहित नक्षत्र लोक हैं, (त्ये) अमी=वे सब, (तायवः) सूर्य्यपालका वायवः=रक्षक सूर्य के अवयव हैं, (च) =और, (विश्वचक्षसे) विश्वस्य चक्षुर्दर्शनं यस्मात्तस्मै=सारे संसार का आँखों से दर्शन करानेवाले, (सूराय) सूर्य्यलोकाय=सूर्य लोक के लिये, (अप) पृथग्भावे=दूर, (यन्ति)=चले जाते हैं, (तथा)=वैसे ही, (विवाहिताभिः)= विवाहितों के द्वारा, (स्त्रीभिः) =स्त्रियों के, (सह) =साथ, (संयोगवियोगानि)= संयोग और वियोग, (अकुरुत)=किया जाये ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे रात्रि में नक्षत्र लोक और चन्द्रमा प्राण व शरीर के साथ रहते हैं, वैसे ही विवाहित स्त्री और पुरुषों को रहना चाहिए ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (स्त्री) स्त्रियों और (पुरुषा) पुरुषों ! (यूयम्) तुम सब (यथा) जिस प्रकार से (अक्तुभिः) रात्रि के (सह) साथ (वर्त्तमानानि) वर्त्तमान (नक्षत्रा) नष्ट न होनेवाले नक्षत्र लोक हैं, (त्ये) वे सभी (तायवः) रक्षक सूर्य के अवयव हैं (च) और (विश्वचक्षसे) सारे संसार को आँखों से दिखानेवाले (सूराय) सूर्य लोक के लिये (अप) दूर (यन्ति) चले जाते हैं। (तथा) वैसे ही (विवाहिताभिः) विवाहित लोगों के द्वारा, (स्त्रीभिः) स्त्रियों के (सह) साथ (संयोगवियोगानि) संयोग और वियोग (अकुरुत) किया जाये ॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अप) पृथग्भावे (त्ये) अमी (तायवः) सूर्य्यपालका वायवः (यथा) येत प्रकारेण (नक्षत्रा) नक्षत्राणि क्षयरहिता लोकाः (यन्ति) (अक्तुभिः) रात्रिभिः (सूराय) सूर्य्यलोकाय (विश्वचक्षसे) विश्वस्य चक्षुर्दर्शनं यस्मात्तस्मै ॥२॥ विषयः- पुनः के कस्मै किं कुर्युरित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे स्त्री पुरुषा ! यूयं यथाऽक्तुभिः सह वर्त्तमानानि नक्षत्रा नक्षत्राणि लोकास्त्ये तायवो वायवश्च विश्वचक्षसे सूरायापयन्ति तथा विवाहिताभिः स्त्रीभिः सह संयोगवियोगान्कुरुत ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालंकारः। यथा रात्रौ नक्षत्राणि चन्द्रेण प्राणश्च शरीरेण सह वर्त्तन्ते तथा विवाहितस्त्रीपुरुषौ वर्त्तेयाताम् ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे रात्री नक्षत्रलोक चंद्राबरोबर व प्राण शरीराबरोबर असतात तसे विवाह करून स्त्री-पुरुषांनी आपापसात वागावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    And, as thieves of the night steal away at dawn, so do all those stars steal away alongwith the darkness of the night so that the world may see only the sun, lord supreme of the heavens.

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    Subject of the mantra

    Then who should do what for whom, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (strī) =women and, (puruṣā) =men, (yūyam) =all of you, (yathā) =like, (aktubhiḥ) =of night, (saha) =with, (varttamānāni) =present, (nakṣatrā)=the imperishable constellations worlds are, (tye) =all of them, (tāyavaḥ) =are part of the protector Sun, (ca) =and, (viśvacakṣase)=eyes to the whole world, (sūrāya) =for the Sun world, (apa) =far, (yanti) =go away, (tathā) =in the same way, (vivāhitābhiḥ)=by married people, (strībhiḥ) =with women, (saha) =with, (saṃyogaviyogāni)=association and disassociation, (akuruta) =do.

    English Translation (K.K.V.)

    O women and men! Just as all of you are the imperishable constellations present with the night, they are all parts of the protector Sun and go away to the Sun world, which shows the whole world with eyes. In the same way, by married people, association and separation with women should be done.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as the constellations and the moon live with breath and body in the night, so should married men and women live.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As at the approach of the all-illuminating sun, the constellations depart with the night, in the same manner, married people should not unite for procreation in day time, but only at apportioned nights for good progeny. At night as stars are united with the moon and the Pranas (vital breaths) with the body, so should the married couple behave (co-habitation in day time is prohibited and is positively harmful).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( तायवः) सूर्यपालका वायवः = Winds that guard the sun. (नक्षत्रा) नक्षत्राणि क्षयरहिता लोकाः = Constellations.

    Translator's Notes

    ताबब: is derived from तागृ सन्तानपालनयोः SO Rishi Dayananda has taken it to mean वायव: or gases and in the purport for प्राणा: (Pranas or vital breaths) which preserve the body. It may also be used for mothers who bear children. Other translators have taken it to mean thieves for which they have quoted. तायुरिति स्तेननाम ( निघ० ३.२४ ) Rishi Dayananda's interpretation is original. In this case सूर्य stands for virile husband. In the case of God, the meaning is that all evils disappear when, God the All-illuminating Divine Sun is arisen in the heart. They run away as the thieves at the appearance of the sun.

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