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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अदृ॑श्रमस्य के॒तवो॒ वि र॒श्मयो॒ जनाँ॒ अनु॑ । भ्राज॑न्तो अ॒ग्नयो॑ यथा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदृ॑श्रम् । अ॒स्य॒ । के॒तवः॑ । वि । र॒श्मयः॑ । जना॑न् । अनु॑ । भ्राज॑न्तः । अ॒ग्नयः॑ । य॒था॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु । भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदृश्रम् । अस्य । केतवः । वि । रश्मयः । जनान् । अनु । भ्राजन्तः । अग्नयः । यथा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अदृश्रम्) प्रेक्षेयम्। अत्र लिङर्थे लङ् शपो लुक् रुडागमश्च। (अस्य) सूर्य्यस्य (केतवः) ज्ञापकाः (वि) विशेषार्थे (रश्मयः) किरणाः (जनान्) मनुष्यादीन्प्राणिनः (अनु) पश्चात् (भ्राजन्तः) प्रकाशमानाः (अग्नयः) प्रज्वलिता वह्नयः (यथा) येन प्रकारेण ॥३॥

    अन्वयः

    पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    यथाऽस्य सूर्य्यस्य भ्राजन्तोऽग्नयः केतवो रश्मयो जनाननुभ्राजन्तः सन्ति तथाहं स्वस्त्रियं स्वपुरुषञ्चैव गम्यत्वेन व्यदृश्रं नान्यथेति यावत् ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालंकारः। यथा प्रदीप्ता अग्नयः सूर्य्यादयो वहिः सर्वेषु प्रकाशन्ते तथैवांतरात्मनीश्वरस्य प्रकाशो वर्त्तते। एतद्विज्ञानाय सर्वेषां मनुष्याणां प्रयत्नः कर्त्तुं योग्योस्ति तदाज्ञया परस्त्रीपुरुषैः सह व्यभिचारं सर्वथा विहाय विवाहिताः स्व स्व स्त्रीपुरुषा ऋतुगामिन एव स्युः ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (अस्य) इस सविता के (भ्राजन्तः) प्रकाशमान (अग्नयः) प्रज्वलित (केतवः) जनानेवाली (रश्मयः) किरणें (जनान) मनुष्यादि प्राणियों को (अनु) अनुकूलता से प्रकाश करती हैं वैसे मैं अपनी विवाहित स्त्री और अपने पति ही को समागम के योग्य देखूं अन्य को नहीं ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे प्रज्वलित हुए अग्नि और सूर्य्यादिक बाहर सब में प्रकाशमान हैं वैसे ही अन्तरात्मा में ईश्वर का प्रकाश वर्त्तमान है इसके जानने के लिये सब मनुष्यों को प्रयत्न करना योग्य है उस परमात्मा की आज्ञा से परस्त्री के साथ पुरुष और परपुरुष के संग स्त्री व्यभिचार को सब प्रकार छोड़ के पाणिगृहीत अपनी-२ स्त्री और अपने-२ पुरुष के साथ ऋतुगामी ही होवें ॥३॥

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    विषय

    देदीप्यमान

    पदार्थ

    १. (अस्य) = इस उदित हुए - हुए सूर्य की (केतवः) = प्रज्ञापक - प्रकाश को देनेवाली (रश्मयः) = प्रकाश की किरणें (जनाँ अनु) = मनुष्यों का लक्ष्य करके (वि अदृश्रम्) = इस प्रकार विशिष्टरूप से दिखती हैं (यथा) = जैसेकि (भ्राजन्तः अग्नयः) = चमकती हुई अग्नियाँ । २. सूर्य के उदित होने पर जैसे सूर्य की किरणें सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करनेवाली होती हैं, उसी प्रकार हमारे जीवन में ज्ञान के सूर्य का उदय होता है और जीवन प्रकाशमय हो जाता है । यह प्रकाश देदीप्यमान अग्नि के समान होता है । इसमें सब बुराइयाँ भस्म हो जाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे जीवन में ज्ञान के सूर्य का उदय हो और हमारी सब बुराइयाँ अन्धकार के समान विलीन हो जाएँ ।

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    विषय

    स्वयंवरण, सर्वप्रकाशक परमेश्वर की उपासना ।

    भावार्थ

    (भ्राजन्तः) अति दीप्ति से चमकने वाले (अग्नयः) अग्नि जिस प्रकार चमकते हैं उसी प्रकार ( अस्य ) इसके ( केतवः ) अन्यों को ज्ञान करानेवाले ( रश्मयः) किरणों के समान गुण (जनान् अनु) समस्त जनों को प्राप्त हों, ऐसा मैं ( अदृश्यम् ) देखूं । (अस्य) इस प्रतापी पुरुष के (केतवः) ज्ञान प्रदान करनेवाले गुण (रश्मयः) सूर्य के किरणों के समान ( जनान् ) समग्र मनुष्यों के हित के लिए इस प्रकार प्रकाशित हैं (यथा) जिस प्रकार ( भ्राजन्तः ) देदीप्यमान ( अग्नयः ) अग्नि हों। मैं ऐसी ही गुणबुद्धि से सदा अपने पालक को (वि अदृश्रम्) देखूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१३ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः । सूर्यो देवता ॥ छन्दः—१, ६ निचृद्गायत्री । २, ४, ८,९ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । ३ गायत्री । ५ यवमध्या विराङ्गायत्री । विराङ्गायत्री । १०, ११ निचृदनुष्टुप् । १२,१३ अनुष्टुप् ।

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    विषय

    फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा अस्य सूर्य्यस्य भ्राजन्तःअग्नयः केतवः रश्मयः जनान् अनु भ्राजन्तः सन्ति तथा अहं स्वस्त्रियं स्वपुरुषं च एव गम्यत्वेन वि अदृश्रं न अन्यथा इति यावत् ॥३॥

    पदार्थ

    (यथा) येन प्रकारेण=जिस प्रकार से, (अस्य) सूर्य्यस्य=सूर्य की, (भ्राजन्तः) प्रकाशमानाः=प्रकाशमान, (अग्नयः) प्रज्वलिता वह्नयः= प्रज्वलित अग्नियां, (केतवः) ज्ञापकाः=ज्ञात करानेवाली, (रश्मयः) किरणाः=किरणें, (जनान्) मनुष्यादीन्प्राणिनः= मनुष्य आदि प्राणियों के, (अनु) पश्चात्= पीछे-पीछे, (भ्राजन्तः) प्रकाशमानाः= प्रकाशमान, (सन्ति)=हैं, (तथा)=वैसे ही, (अहम्)=मैं, (स्वस्त्रियम्)=अपनी स्त्री की, (च)=और, (स्वपुरुषम्)=अपने पुरुष की, (एव)=ही, (गम्यत्वेन)= ऋतुगामी होने से, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (अदृश्रम्) प्रेक्षेयम्= देखें, (अन्यथा)= अन्य प्रकार से, (न)=नहीं ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे प्रज्वलित हुए अग्नि और सूर्य्यादिक बाहर सब में प्रकाशमान हैं, वैसे ही अन्तरात्मा में ईश्वर का प्रकाश वर्त्तमान है। इसके जानने के लिये सब मनुष्यों को प्रयत्न करना योग्य है। उस परमात्मा की आज्ञा से परस्त्री के साथ पुरुष और परपुरुष के संग स्त्री, व्यभिचार को सब प्रकार से छोड़ करके विवाहित अपनी-अपनी स्त्री और अपने-अपने पुरुष के साथ ऋतुगामी ही होवें ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जिस प्रकार से (अस्य) सूर्य की (भ्राजन्तः) प्रकाशमान (अग्नयः) प्रज्वलित अग्नियों को (केतवः) ज्ञात करानेवाली (रश्मयः) किरणें (जनान्) मनुष्य आदि प्राणियों के (अनु) पीछे-पीछे, (भ्राजन्तः) प्रकाशमान रहती (सन्ति) हैं, (तथा) वैसे ही (अहम्) मैं अर्थात् पुरुष (स्वस्त्रियम्) अपनी स्त्री की (च) और स्त्री (स्वपुरुषम्) अपने पुरुष की (एव) ही (गम्यत्वेन) प्राप्ति में समर्थ होना ही, (वि) विशेष रूप से (अदृश्रम्) देखें, (अन्यथा) अन्य प्रकार से (न) न देखें ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अदृश्रम्) प्रेक्षेयम्। अत्र लिङर्थे लङ् शपो लुक् रुडागमश्च। (अस्य) सूर्य्यस्य (केतवः) ज्ञापकाः (वि) विशेषार्थे (रश्मयः) किरणाः (जनान्) मनुष्यादीन्प्राणिनः (अनु) पश्चात् (भ्राजन्तः) प्रकाशमानाः (अग्नयः) प्रज्वलिता वह्नयः (यथा) येन प्रकारेण ॥३॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते। अन्वयः- यथाऽस्य सूर्य्यस्य भ्राजन्तोऽग्नयः केतवो रश्मयो जनाननुभ्राजन्तः सन्ति तथाहं स्वस्त्रियं स्वपुरुषञ्चैव गम्यत्वेन व्यदृश्रं नान्यथेति यावत् ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालंकारः। यथा प्रदीप्ता अग्नयः सूर्य्यादयो वहिः सर्वेषु प्रकाशन्ते तथैवांतरात्मनीश्वरस्य प्रकाशो वर्त्तते। एतद्विज्ञानाय सर्वेषां मनुष्याणां प्रयत्नः कर्त्तुं योग्योस्ति तदाज्ञया परस्त्रीपुरुषैः सह व्यभिचारं सर्वथा विहाय विवाहिताः स्व स्व स्त्रीपुरुषा ऋतुगामिन एव स्युः ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा प्रज्वलित झालेला अग्नी व सूर्य इत्यादी बाहेर सर्वात प्रकाशमान असतात. तसेच अंतरात्म्यात ईश्वराचा प्रकाश वर्तमान आहे हे जाणण्यासाठी सर्व माणसांनी प्रयत्न करावेत. त्या परमेश्वराच्या आज्ञेने परस्त्रीबरोबर पुरुष व परपुरुषाबरोबर स्त्रीने व्यभिचार सोडून पाणिग्रहीत आपापल्या स्त्रीबरोबर व आपापल्या पुरुषाबरोबर ऋतुगामी व्हावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O that I could see the banners of the Lord of sunbeams, the rays of the sun, alongwith the other people, blazing like the explosions of fire in heaven.

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    Subject of the mantra

    Then how they[Rays of the Sun] should be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=in the manner, (asya) =of the Sun, (bhrājantaḥ) =shining, (agnayaḥ)= to the kindled fires, (ketavaḥ)=informant, (raśmayaḥ)=rays, (janān) =of humans etc. living beings, (anu)=behind, (bhrājantaḥ)=stay bright, (santi) =are, (tathā) =in the same way, (aham)=I means man,(svastriyam) = of his woman, (ca) =and woman, (svapuruṣam) =of her man (eva) =only, (gamyatvena)= approaching sexually, (vi)=especially, (adṛśram) =behold, (anyathā) = in other ways, (na)=not.

    English Translation (K.K.V.)

    Just as the rays of the Sun, which make us aware of the burning flames of the Sun, keep shining behind the human beings etc., in the same way, I, that is, the man should be able to get his wife and the woman should be able to get her husband approach sexually, behold especially, don't behold in other ways.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as a kindled fire and the Sun shine on the outside, in the same way the light of God is present in the inner soul. To know this, all human beings should make efforts. By the command of that God, man with other women and woman with other men, leaving all forms of adultery by all means, should be married couples should approach sexually to their respective spouses.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) In the case of the sun the meaning is- His light-emitting, color-providing rays enable all men to behold, like blazing fires. (2) In case of God-the Divine Sun the meaning is — The rays of God the Illuminator and Impeller of the world which give knowledge to men according to their capacity and ability to receive, are like the blazing fires. Just as resplendent rays of the sun and blazing fires make known the objects of this earth, similarly the powers of God and His wise devotees illumine all objects. They give instruction to all people about them. (3) In the case of the married couple, the mantra enjoins upon them the duty of learning the lesson of conjugal relation from the heat and the light rays of the sun. It inculcates inviolability of the marriage ties. Let the married couples preserve their sacred relation in-violable and intact and not frustrate their peace and happiness by adopting the opposite course of free marriages."(Pandit Guru Dutta M.A.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and the blazing fires, shine outside, in the same way, there is the light of God in the inner soul. All men should try to acquire this knowledge by all means. By His command, all married couples should observe perfect chastity and faithfulness to each other by renouncing all kinds of infidelity of un-chastity.

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