ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
न्यू॒३॒॑षु वाचं॒ प्र म॒हे भ॑रामहे॒ गिर॒ इन्द्रा॑य॒ सद॑ने वि॒वस्व॑तः। नू चि॒द्धि रत्नं॑ सस॒तामि॒वावि॑द॒न्न दु॑ष्टु॒तिर्द्र॑विणो॒देषु॑ शस्यते ॥
स्वर सहित पद पाठनि । ऊँ॒ इति॑ । सु । वाच॑म् । प्र । म॒हे । भ॒रा॒म॒हे॒ । गिरः॑ । इन्द्रा॑य । सद॑ने । वि॒वस्व॑तः । नु । चि॒त् । हि । रत्न॑म् । स॒स॒ताम्ऽइ॑व । अवि॑दत् । न । दुः॒ऽस्तु॒तिः । द्र॒वि॒णः॒ऽदेषु॑ । श॒स्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न्यू३षु वाचं प्र महे भरामहे गिर इन्द्राय सदने विवस्वतः। नू चिद्धि रत्नं ससतामिवाविदन्न दुष्टुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते ॥
स्वर रहित पद पाठनि। ऊँ इति। सु। वाचम्। प्र। महे। भरामहे। गिरः। इन्द्राय। सदने। विवस्वतः। नु। चित्। हि। रत्नम्। ससताम्ऽइव। अविदत्। न। दुःऽस्तुतिः। द्रविणःऽदेषु। शस्यते ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
सायणाचार्य्यादीनां मोक्षमूलरादीनां वा यदि छन्दःषड्जादिस्वरज्ञानमपि न स्यात्तर्हि भाष्यकरणयोग्यता तु कथं भवेत् ॥ मनुष्यैर्धर्मं विचार्य्य किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा वयं महे सदन इन्द्राय वाचं सुभरामहे स्वप्ने ससतामिव विवस्वतः सूर्यस्य प्रकाशे रत्नमिव गिरो निभरामहे, किन्तु द्रविणोदेष्वस्मासु दुष्टुतिर्न प्रशस्ता न भवति तथा यूयं भवत ॥ १ ॥
पदार्थः
(नि) नितराम् (उ) वितर्के (सु) शोभने (वाचम्) वाणीम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (महे) महति महासुखप्रापके (भरामहे) धरामहे (गिरः) स्तुतयः (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापणाय (सदने) सीदन्ति यस्मिँस्थाने तस्मिन् (विवस्वतः) यथा प्रकाशमानस्य सूर्यस्य प्रकाशे (नु) शीघ्रम् (चित्) अपि (हि) खलु (रत्नम्) रमणीयं सुवर्णादिकम् (ससतामिव) यथा स्वपतां पुरुषाणां तथा (अविदत्) विन्दति प्राप्नोति (न) निषेधे (दुःस्तुतिः) दुष्टा चासौ स्तुतिः पापकीर्तिश्च सा (द्रविणोदेषु) ये द्रविणांसि सुवर्णादीनि द्रव्यप्रदानि विद्यादीनि च ददति तेषु (शस्यते) प्रशस्ता भवति ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा निद्रावस्था मनुष्या आरामं प्राप्नुवन्ति, तथा सर्वदा विद्यासुशिक्षाभ्यां संस्कृतां वाचं स्वीकृत्य प्रशस्तं कर्म सेवित्वा निद्रां दूरीकृत्य स्तुतिप्रकाशाय प्रयतितव्यम् ॥ १ ॥
हिन्दी (2)
विषय
जब सायणाचार्य्यादि वा मोक्षमूलरादिकों को छन्द और षड्जादि स्वरों का भी ज्ञान नहीं तो भाष्य करने की योग्यता तो कैसे होगी ॥अब त्रेपनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में मनुष्यों को धर्म विचार कर क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (महे) महासुखप्रापक (सदने) स्थान में (इन्द्राय) परमैश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (सु) शुभलक्षणयुक्त (वाचम्) वाणी को (निभरामहे) निश्चित धारण करते हैं, स्वप्न में (ससतामिव) सोते हुए पुरुषों के समान (विवस्वतः) सूर्यप्रकाश में (रत्नम्) रमणीय सुवर्णादि के समान (गिरः) स्तुतियों को धारण करते हैं, किन्तु (द्रविणोदेषु) सुवर्णादि वा विद्यादिकों के देनेवाले हम लोगों में (दुष्टुतिः) दुष्ट स्तुति और पाप की कीर्ति अर्थात् निन्दा (न प्रशस्यते) श्रेष्ठ नहीं होती, वैसे तुम भी होवो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे निद्रा में स्थित हुए मनुष्य आराम को प्राप्त होते हैं, वैसे सर्वदा विद्या उत्तम शिक्षाओं से संस्कार की हुई वाणी को स्वीकार प्रशंसनीय कर्म को सेवन और निन्दा को दूरकर स्तुति का प्रकाश होने के लिये अच्छे प्रकार प्रयत्न करना चाहिये ॥ १ ॥
विषय
पुरुषार्थ से प्राप्त धन का दान
पदार्थ
१. (विवस्वतः) = ज्ञान की किरणोंवाले यजमान के (सदने) = घर में (महे इन्द्राय) = उस महान् शत्रुविद्रावक व परमैश्वर्यवाले प्रभु के लिए (वाचम्) = प्रार्थनावाणी को तथा (गिरः) = स्तुतिवचनों को (सु) = उत्तमता से (उ) = निश्चयपूर्वक (नि प्रभरामहे) = नम्रता से अतिशयेन [खूब] प्राप्त कराते हैं । मनुष्य को चाहिए कि वह अपने घर को स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान की किरणों से परिपूर्ण कर और सदा यज्ञों को करता हुआ घर को 'यजमान का घर' बना दे । इस घर में सदा प्रभु के प्रति प्रार्थनावाणी उच्चारित हो और प्रभु की स्तुतिवाणियाँ ही सुनाई पड़ें । २. वे प्रभु (नू चित् हि) = शीघ्र ही निश्चय से (ससताम् इव) = सोते - से, पुरुषों से अर्थात् अकर्मण्य व आलसी पुरुषों के (रत्नम्) = रमणीय धनों को (अविदत्) = प्राप्त कर लेते हैं, अर्थात् छीन लेते हैं । मनुष्य को चाहिए कि वह सदा पुरुषार्थी रहे, उसके चेहरे से भी स्फूर्ति का आभास मिले । उद्योगी - आलस्यशून्य के लिए ही लक्ष्मी है । ३. पुरुषार्थ से धन को प्राप्त करके (द्रविणोदेषु) = धन को दान में देनेवालों के विषय में (दुष्टुतिः) = निन्दा (न शस्यते) = नहीं की जाती है, अर्थात् धन के दान करनेवालों की सदा प्रशंसा ही होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें । पुरुषार्थी होकर धनार्जन करें और धनों का दान करते हुए प्रशंसा के पात्र हों ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वान सभाध्यक्ष व प्रजापुरुषांनी परस्पर प्रीतीने राहून सुख प्राप्त करावे हे सांगितलेले आहे. त्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा निद्रिस्त माणसाला आराम मिळतो तसे नेहमी विद्या व उत्तम संस्कारांनी युक्त वाणीचा स्वीकार करून प्रशंसनीय कर्म करावे. निंदेचा त्याग करून स्तुती होईल असा प्रयत्न करावा. ॥ १ ॥
टिप्पणी
जेथे सायणाचार्य इत्यादी व मोक्षमूलर इत्यादींना छंद व षड्ज इत्यादी स्वरांचेही ज्ञान नाही तर भाष्य करण्याची योग्यता कशी असेल?
इंग्लिश (1)
Meaning
In this great yajnic house of Vivas van, lord of light, we raise our voice of celebrations in honour of Indra, lord of power and action, for the sake of honour and prosperity. Rarely is the jewel obtained by the lazy loons asleep. And slander finds no favour among the givers of wealth.
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