ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 7
स घा॒ राजा॒ सत्प॑तिः शूशुव॒ज्जनो॑ रा॒तह॑व्यः॒ प्रति॒ यः शास॒मिन्व॑ति। उ॒क्था वा॒ यो अ॑भिगृ॒णाति॒ राध॑सा॒ दानु॑रस्मा॒ उप॑रा पिन्वते दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । घ॒ । राजा॑ । सत्ऽप॑तिः । शू॒शु॒व॒त् । जनः॑ । रा॒तऽह॑व्यः । प्रति॑ । यः । शास॑म् । इन्व॑ति । उ॒क्था । वा॒ । यः । अ॒भि॒ऽगृ॒णाति॑ । राध॑सा । दानुः॑ । अ॒स्मै॒ । उप॑रा । पि॒न्व॒ते॒ । दि॒वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स घा राजा सत्पतिः शूशुवज्जनो रातहव्यः प्रति यः शासमिन्वति। उक्था वा यो अभिगृणाति राधसा दानुरस्मा उपरा पिन्वते दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठसः। घ। राजा। सत्ऽपतिः। शूशुवत्। जनः। रातऽहव्यः। प्रति। यः। शासम्। इन्वति। उक्था। वा। यः। अभिऽगृणाति। राधसा। दानुः। अस्मै। उपरा। पिन्वते। दिवः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तेन सभाध्यक्षेण किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यो रातहव्यः सत्पतिः सभाध्यक्षो जनो राजा प्रतिशासं प्रजा इन्वति न्यायं व्याप्नोति वा। यः शूशुवद् राज्यं कर्त्तुं जानाति राधसा दानुः सन्नुक्थाऽभिगृणाति सर्वेभ्यो मनुष्येभ्य उपदिशत्यस्मै दिव उपरा सूर्य्यादुत्पद्य मेघो भूमिं सिञ्चतीव सर्वसुखानि पिन्वते सेवते स घ राज्यं कर्तुं शक्नोति ॥ ७ ॥
पदार्थः
(सः) (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघ० इति दीर्घः। (राजा) न्यायविज्ञानादिभिः प्रकाशमानः (सत्पतिः) सतां पालयिता (शूशुवत्) यो ज्ञापयति वर्द्धयति वा। अयं ण्यन्तस्य श्विधातोर्लुङि प्रयोगोऽडभावश्च (जनः) उत्तमगुणकर्मभिर्वर्त्तमानः (रातहव्यः) रातानि दत्तानि हव्यानि येन सः (प्रति) वीप्सायाम् (यः) ईदृग्लक्षणः (शासम्) शास्ति येन तं न्यायम् (इन्वति) व्याप्नोति। इन्वतीति व्याप्तिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१८) (उक्था) वक्तुं योग्यानि वेदस्तोत्राणि वचनानि वा (वा) पक्षान्तरे (यः) सत्यवक्ता (अभिगृणाति) अभिगतान्युपदिशति (राधसा) न्यायप्राप्तेन धनेन (दानुः) दानशीलः (अस्मै) सभाध्यक्षाय (उपरा) मेघ इव। उपर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) उपर उपलो मेघो भवति। उपरमन्तेऽस्मिन्नभ्राणि। उपरता आप इति वा। (निरु०२.२१) (पिन्वते) सेवते सिञ्चति वा। अत्र व्यत्ययेन आत्मनेपदम्। (दिवः) प्रकाशमानाद्धर्म्याचरणात् ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि कश्चित्सद्विद्याविनयन्यायवीरपुरुषसेनाग्रहणानुष्ठानेन विना राज्यं शासितुं शत्रून् जेतुं सर्वाणि सुखानि च प्राप्तुं शक्नोति तस्मादेतत्सभाध्यक्षेणावश्यमनुष्ठेयम् ॥ ७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उस सभाध्यक्ष को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
(यः) जो (रातहव्यः) हव्य पदार्थों को देने (सत्पतिः) सत्पुरुषों का पालन करने (जनः) उत्तम गुण और कर्मों से सहित वर्त्तमान (राजा) न्यायविनयादि गुणों से प्रकाशमान सभाध्यक्ष (प्रतिशासम्) शास्त्र-शास्त्र के प्रति प्रजा को (इन्वति) न्याय में व्याप्त करता (वा) अथवा (शूशुवत्) राज्य करने को जानता है और जो (राधसा) न्याय करके प्राप्त हुए धन से (दानुः) दानशील हुआ (उक्था) कहने योग्य वेदस्तोत्र वा वचनों को (अभिगृणाति) सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता है (अस्मै) इस सभाध्यक्ष के लिये (दिवः) (उपरा) जैसे सूर्य के प्रकाश से मेघ उत्पन्न होकर भूमि को (पिन्वते) सींचता है, वैसे सब सुखों को (पिन्वते) सेवन करे (सः) वही राज्य कर सकता है ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। कोई भी मनुष्य उत्तम विद्या, विनय, न्याय और वीरपुरुषों की सेना के ग्रहण वा अनुष्ठान के विना राज्य के लिये शिक्षा करने, शत्रुओं को जीतने और सब सुखों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता, इसलिये सभाध्यक्ष को अवश्य इन बातों का अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ७ ॥
विषय
उन्नति का मार्ग
पदार्थ
१. (स घ जनः) = वह मनुष्य ही निश्चय से (शूशुवत्) = [आत्मानं वर्धयति - सा०] अपना वर्धन कर पाता है (यः) = जो (राजा) = अपने जीवन को व्यवस्थित [Regulated] करता है अथवा ज्ञान को प्राप्त करके जो अपने जीवन को दीप्त बनाता है । २. (सत्पतिः) = जो अपने जीवन में "सत्" का रक्षण करता है । गीता के शब्दों में सत्कर्म सद्भाव व साधुभाव से किया जाने पर सत् कहलाता है । यह भी उत्तम भावना से और उत्तम प्रकार से ही उत्तम कार्यों को करता है, अतः सत्पति कहलाने का अधिकारी होता है । ३. (रातहव्यः) = यह सदा हव्य का देनेवाला होता है । देवताओं को यह उनका भोजन अवश्य प्राप्त कराता है । देवताओं को देकर बचे हुए को खाने से यह हवि का ग्रहण करनेवाला होता है । इस हवि से ही यह प्रभु का पूजन करता है - 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' । ४. (यः) = जो (प्रतिशासम्) = प्रभु के एक - एक उपदेश को (इन्वति) = व्याप्त करता है - प्रभु की वेदोक्त प्रत्येक आज्ञा का पालन करने का प्रयत्न करता है । ५. (यः वा) = और जो (राधसा) = सिद्धि के हेतु से - इन्द्रिय - नियमन में सफलता की प्राप्ति के उद्देश्य से (उक्था) = स्तोत्रों का (अभिगृणाति) = दिन के प्रारम्भ व अन्त में दोनों समय उच्चारण करता है । यह प्रातः सायं किया गया प्रभु का आराधन उपासक को शक्तिशाली बनाता है और इस प्रकार यह इन्द्रियों व मन को वश करने में समर्थ होता है । ६.(अस्मै) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (दानुः) = अभिमत फलों का देनेवाला वह प्रभु (उपरा दिवः) = मेषतुल्य ज्ञानों का (पिन्वते) = पूरण करता है । 'उपर' शब्द निघण्टु में मेघ का वाचक है । जैसे मेघ वृष्टिजल के द्वारा सन्तप्त प्राणियों को सुखी करता है, इसी प्रकार प्रभु इसे वह मेघतुल्य ज्ञान देता है जो ज्ञान इसके सब सन्तापों का हरण करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अपने वर्धन के लिए उद्यत होंगे तो प्रभु भी हमें वह ज्ञान देंगे जो हमें शान्ति व सुख प्राप्त कराने में साधक होगा ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
(सः) वह (घ) ही निश्चय से ( राजा ) राजा है (यः) जो ( जनः ) मनुष्य ( सत्पतिः ) सज्जनों का पालक होकर ( शूशुवत् ) राष्ट्र की वृद्धि करे और उस पर अपनी आज्ञा चलावे । और जो (रातहव्यः) उत्तम २ अन्न आदि ग्रहण करने और दान करने योग्य पदार्थों का दान करता हुआ ( शासम् प्रति ) शासन करने के साधन न्याय और दमन को प्रतिक्षण, प्रतिदिन और प्रत्येक जन के प्रति यथावत्, विना प्रसाद और अन्याय के ( इन्वति ) करता है । ( आ ) और ( यः ) जो ( उक्था ) उत्तम वेदानुकूल वचनों को (अभिगृणाति) अन्यों को उपदेश करे। और (राधसा) अपने ऐश्वर्य और धन से ( दानुः ) दानशील होकर ( अस्य ) इस राष्ट्र वासी प्रजा के हित के लिए (दिवः उपरा) आकाश से बरसे मेघ के समान ( पिन्वते ) उन पर ऐश्वर्यों और सुखों का वर्षण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४, १० विराड्जगती । २, ३, ५ निचृज्जगती । ७ जगती । ६ विरात्रिष्टुप् । ८,९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर उस सभाध्यक्ष को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यः रातहव्यः सत्पतिः सभाध्यक्षः जनः राजा प्रतिशासं प्रजाः इन्वति न्यायं व्याप्नोति वा। यः शूशुवद् राज्यं कर्त्तुं जानाति राधसा दानुः सन् उक्था अभिगृणाति सर्वेभ्यः मनुष्येभ्य उपदिशति अस्मै दिवः उपरा सूर्य्यात् उत्पद्य मेघः भूमिं सिञ्चति इव सर्वसुखानि पिन्वते सेवते स घ राज्यं कर्तुं शक्नोति ॥७॥
पदार्थ
(यः) सत्यवक्ता=सत्य भाषण करनेवाले, (रातहव्यः) रातानि दत्तानि हव्यानि येन सः=हव्य देनेवाले, (सत्पतिः) सतां पालयिता=पुण्य लोगों के रक्षक, (सभाध्यक्षः)= सभाध्यक्ष, (जनः) उत्तमगुणकर्मभिर्वर्त्तमानः= उत्तम गुण और कर्मों के साथ वर्त्तमान, (राजा) न्यायविज्ञानादिभिः प्रकाशमानः= न्याय और विशेष के ज्ञान आदि से प्रकाशित, (प्रति) वीप्सायाम् =बार बार, (शासम्) शास्ति येन तं न्यायम्= जिस से शासन करता है, उस न्याय को, (प्रजाः)= प्रजा में, (इन्वति) व्याप्नोति=व्याप्त करता है, (वा) पक्षान्तरे=अथवा, (यः) ईदृग्लक्षणः=इस प्रकार के गुणों को, (शूशुवत्) यो ज्ञापयति वर्द्धयति वा=जो जानता और बढ़ाता है, वह (राज्यम्) =राज्य, (कर्त्तुम्) =करना, (जानाति)= जानता है, राधसा) न्यायप्राप्तेन धनेन= उचित मार्ग से अर्जित धन से, (दानुः) दानशीलः= दान देने के स्वभाववाले, (सन्)= होते हुए, (उक्था) वक्तुं योग्यानि वेदस्तोत्राणि वचनानि वा=वेद के स्तोत्रों को बोलने योग्य होते हैं, (अभिगृणाति) अभिगतान्युपदिशति= निकट से उपदेश करता है, (सर्वेभ्यः)=समस्त, (मनुष्येभ्य)=मनुष्यों को, (उपदिशति)= उपदेश करता है, (अस्मै) सभाध्यक्षाय=सभाध्यक्ष के लिये, (दिवः) प्रकाशमानाद्धर्म्याचरणात्= प्रकाशमान धर्मयुक्त आचरण से, (उपरा) मेघ इव=बादल के समान, (सूर्य्यात्)=सूर्य से, (उत्पद्य)= उत्पन्न हुए, (मेघः)=बादल, (भूमिम्)= भूमि को, (सिञ्चति)=सींचने के, (इव)= समान, (सर्वसुखानि)=सब सुखों का, (पिन्वते) सेवते सिञ्चति वा=सेवन करता है या सींचता है, (सः)=वह, (घ) एव=ही, (राज्यम्)= राज्य, (कर्तुम्)=कर, (शक्नोति)=सकता है॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। किसी उत्तम विद्या, विनय, न्याय और वीरपुरुषों की सेना के ग्रहण करने के अनुष्ठान के विना राज्य का शासन करना और शत्रुओं को जीत कर सब सुखों को प्राप्त कर सकना नहीं हो सकता है, इसलिये इस सभाध्यक्ष को इन बातों का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यः) सत्य भाषण करनेवाले, (रातहव्यः) हव्य देनेवाले, (सत्पतिः) पुण्य लोगों के रक्षक, (जनः) उत्तम गुण और कर्मों के साथ वर्त्तमान, (राजा) न्याय और विशेष के ज्ञान आदि से प्रकाशित, (सभाध्यक्षः) सभाध्यक्ष, (प्रति) बार बार (शासम्) जिस [न्याय] से शासन करता है, उस न्याय को (प्रजाः) प्रजा में (इन्वति) व्याप्त होता है, (वा) अथवा (यः) इस प्रकार के गुणों को, (शूशुवत्) जो जानता और बढ़ाता है, वह (राज्यम्) राज्य (कर्त्तुम्) करना (जानाति) जानता है। (राधसा) उचित मार्ग से अर्जित धन से, (दानुः) दान देने के स्वभाववाला (सन्) होते हुए, (उक्था) वेद के स्तोत्रों को बोलने योग्य होता है और (अभिगृणाति) निकट से (सर्वेभ्यः) समस्त (मनुष्येभ्य) मनुष्यों को (उपदिशति) उपदेश करता है। (अस्मै) सभाध्यक्ष के लिये (दिवः) प्रकाशमान धर्मयुक्त आचरण से(उपरा) बादल के समान, (सूर्य्यात्) सूर्य से (उत्पद्य) उत्पन्न हुए (मेघः) बादल (भूमिम्) भूमि को (सिञ्चति) सींचने के (इव) समान, (सर्वसुखानि) सब सुखों का (पिन्वते) सेवन करता है या सींचता है, (सः) वह (घ) ही (राज्यम्) राज (कर्तुम्) कर (शक्नोति) सकता है॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघ० इति दीर्घः। (राजा) न्यायविज्ञानादिभिः प्रकाशमानः (सत्पतिः) सतां पालयिता (शूशुवत्) यो ज्ञापयति वर्द्धयति वा। अयं ण्यन्तस्य श्विधातोर्लुङि प्रयोगोऽडभावश्च (जनः) उत्तमगुणकर्मभिर्वर्त्तमानः (रातहव्यः) रातानि दत्तानि हव्यानि येन सः (प्रति) वीप्सायाम् (यः) ईदृग्लक्षणः (शासम्) शास्ति येन तं न्यायम् (इन्वति) व्याप्नोति। इन्वतीति व्याप्तिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१८) (उक्था) वक्तुं योग्यानि वेदस्तोत्राणि वचनानि वा (वा) पक्षान्तरे (यः) सत्यवक्ता (अभिगृणाति) अभिगतान्युपदिशति (राधसा) न्यायप्राप्तेन धनेन (दानुः) दानशीलः (अस्मै) सभाध्यक्षाय (उपरा) मेघ इव। उपर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) उपर उपलो मेघो भवति। उपरमन्तेऽस्मिन्नभ्राणि। उपरता आप इति वा। (निरु०२.२१) (पिन्वते) सेवते सिञ्चति वा। अत्र व्यत्ययेन आत्मनेपदम्। (दिवः) प्रकाशमानाद्धर्म्याचरणात् ॥७॥ विषयः- पुनस्तेन सभाध्यक्षेण किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यो रातहव्यः सत्पतिः सभाध्यक्षो जनो राजा प्रतिशासं प्रजा इन्वति न्यायं व्याप्नोति वा। यः शूशुवद् राज्यं कर्त्तुं जानाति राधसा दानुः सन्नुक्थाऽभिगृणाति सर्वेभ्यो मनुष्येभ्य उपदिशत्यस्मै दिव उपरा सूर्य्यादुत्पद्य मेघो भूमिं सिञ्चतीव सर्वसुखानि पिन्वते सेवते स घ राज्यं कर्तुं शक्नोति ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि कश्चित्सद्विद्याविनयन्यायवीरपुरुषसेनाग्रहणानुष्ठानेन विना राज्यं शासितुं शत्रून् जेतुं सर्वाणि सुखानि च प्राप्तुं शक्नोति तस्मादेतत्सभाध्यक्षेणावश्यमनुष्ठेयम् ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. कोणताही माणूस उत्तम विद्या, विनय, न्याय व वीरपुरुषांच्या सेनेचे ग्रहण, अनुष्टान याशिवाय राज्यासाठी शिक्षण घेणे, शत्रूंना जिंकणे व सुख प्राप्त करणे इत्यादींसाठी समर्थ बनू शकत नाही. त्यासाठी सभाध्यक्षाला या गोष्टींचे अनुष्ठान केलेच पाहिजे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
He surely is the king, the man, who protects the good and the true, who knows, enlightens and advances, who liberally offers in yajna and himself commands reverence, who advances every unit of the human order and himself advances in response, who chants the hymns in honour of Divinity, who is rich and liberal in prosperity and bright in law and justice, and a liberal giver over all else. For such a man as this, the higher powers from above shower rains of grace in generosity.
Subject of the mantra
Then what should that Chairman of the Assembly do, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ)=one who speaks the truth, (rātahavyaḥ) =those who offer oblations, (satpatiḥ)=protector of virtuous people, (janaḥ) =present with good qualities and deeds, (rājā)= Illuminated by justice and special knowledge etc., (sabhādhyakṣaḥ) =Chairman of the Assembly, (prati) =again and again, (śāsam) [nyāya]= the justice with which one rules, to that justice, (prajāḥ)= in the people, (invati) =pervades, (vā) =or, (yaḥ) =to these types of qualities, (śūśuvat)=he who knows and increases, (rājyam) =to rule, (karttum) =doing, (jānāti) =knows, (rādhasā) =with money earned through fair means, (dānuḥ) =charitable person, (san) =being, (ukthā) =one is capable of reciting the hymns of the Vedas and, (abhigṛṇāti) =from close quarters, (sarvebhyaḥ) =all, (manuṣyebhya) =to humans, (upadiśati)=preaches, (asmai) =for the Chairman of the Assembly, (divaḥ) =by flagrant righteous conduct, (uparā) =like a cloud, (sūryyāt) =by Sun, (utpadya) =created, (meghaḥ) =clouds, (bhūmim) =to earth, (siñcati) =to irrigate, (iva) =like, (sarvasukhāni) =of all delights, (pinvate)=enjoys or irrigates, (saḥ) =that, (gha) =only, (rājyam) =to rule, (kartum) =do, (śaknoti) =can.
English Translation (K.K.V.)
The Chairman of the Assembly, who speaks the truth, offers the sacred oblation, is the protector of virtuous people, is present with good qualities and deeds, is enlightened by justice and special knowledge etc., repeatedly spreads the justice with which he rules among the subjects, or in this way, he who knows and enhances the qualities, knows how to rule. Being of a charitable nature with the wealth earned through right path, he is capable of reciting the hymns of the Vedas and preaching to all human beings from close quarters. Like a cloud arising from the righteous conduct of the Chairman of the Assembly, like a cloud arising from the sun that irrigates the land, he enjoys or irrigates all the pleasures, only he can rule.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. It is not possible to rule the kingdom and achieve all the happiness by conquering the enemies without the commencement of receiving some good knowledge, modesty, justice and an army of brave men, therefore this Chairman of the Assembly must definitely perform the commencement of these things.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should Indra (The President of the Assembly or King) do is taught further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That eminent person (President of the council of Ministers) is able to administer a State who gives desirable articles to the needy, is the protector of the righteous people, who shines on account of justice knowledge and other virtues, and who acts justly towards the subjects and pervades them (sɔ to speak) knowing them thoroughly. He spreads knowledge and develops the State-make it grow from strength to strength. Being liberal with his wealth, he gives the teachings of the Vedic Mantras and other noble utterances, to the people. As the cloud born from the sky rains down, in the same manner, rains such happiness on the people. Only such a person can rule over the State well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(राजा) न्यायविज्ञानादिभि: प्रकाशमान: = Shining with justice, knowledge and other virtues. (शूशुवत्) यो ज्ञापयति बर्धयति वा । अयं ण्यन्तस्य शिवधातोर्लुङि प्रयोगोऽभावश्च = Diffusing knowledge and making the State grow or develop. ( उपरा) मेघः उपर इति मेघनाम ( निघ० १.१० ) = Cloud. (पिन्वते) सेवते सिंचति वा = Enjoys or sprinkles. (दिव:) प्रकाशमानाद् धम्र्म्याचिरणात् = From the shining observance of righteousness.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None can administer a State, conquer enemies and get happiness without good knowledge, humility, justice and strong army consisting of brave persons. Therefore the President of the Council of Ministers must do all this.
Translator's Notes
शूशुवत् is derived from टु ओश्वि-गतिवृद्धयो: hence Rishi Dayananda has explained it as ज्ञापयति वर्धयति taking the first meaning of गति as ज्ञान पिवि-सेवने सेचने ।
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