ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 8
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अस॑मं क्ष॒त्रमस॑मा मनी॒षा प्र सो॑म॒पा अप॑सा सन्तु॒ नेमे॑। ये त॑ इन्द्र द॒दुषो॑ व॒र्धय॑न्ति॒ महि॑ क्ष॒त्रं स्थवि॑रं॒ वृष्ण्यं॑ च ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑मम् । क्ष॒त्रम् । अस॑मा । म॒नी॒षा । प्र । सो॒म॒ऽपाः । अप॑सा । स॒न्तु॒ । नेमे॑ । ये । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । द॒दुषः॑ । व॒र्धय॑न्ति । महि॑ । क्ष॒त्रम् । स्थवि॑रम् । वृष्ण्य॑म् । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असमं क्षत्रमसमा मनीषा प्र सोमपा अपसा सन्तु नेमे। ये त इन्द्र ददुषो वर्धयन्ति महि क्षत्रं स्थविरं वृष्ण्यं च ॥
स्वर रहित पद पाठअसमम्। क्षत्रम्। असमा। मनीषा। प्र। सोमऽपाः। अपसा। सन्तु। नेमे। ये। ते। इन्द्र। ददुषः। वर्धयन्ति। महि। क्षत्रम्। स्थविरम्। वृष्ण्यम्। च ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र सभेश ! यदि ददुषस्ते तवासमं क्षत्रमसमा मनीषाऽस्तु तर्हि ये नेमे सोमपा धार्मिका वीरपुरुषा अपसा स्थविरं वृष्ण्यं मयि क्षत्रं प्रवर्धयन्ति, ते तव सभासदो भृत्याश्च सन्तु ॥ ८ ॥
पदार्थः
(असमम्) अविद्यमानः समः समता यस्मिंस्तत्कर्म सादृश्यरहितम् (क्षत्रम्) राज्यम् (असमा) अविद्यमाना समा यस्यां साऽनुपमा (मनीषा) मनो विज्ञानमीषते यया प्रज्ञया सा (प्र) प्रकृष्टार्थे (सोमपाः) ये वीराः सोमानोषधिरसान् पिबन्ति ते (अपसा) कर्मणा (सन्तु) भवन्तु (नेमे) सर्वे (ये) उक्ता वक्ष्यमाणश्च (ते) तव (इन्द्र) ऐश्वर्ययुक्त (ददुषः) दत्तवतः (वर्धयन्ति) उन्नयन्ति (महि) महागुणविशिष्टम् (क्षत्रम्) राज्यम् (स्थविरम्) प्रवृद्धम् (वृष्ण्यम्) शत्रुसामर्थ्यप्रतिबन्धकेभ्यो वृषेभ्यो हितम् (च) समुच्चये ॥ ८ ॥
भावार्थः
नैव कदाचिद्राजपुरुषैः प्रजाविरोधः प्रजास्थै राजपुरुषविरोधश्च कार्य्यः, किन्तु परस्परं प्रीत्युपकारबुद्ध्या सर्वं राज्यं सुखैर्वर्धनीयम्। नह्येवं विना राज्यपालनव्यवस्था निश्चला जायते ॥ ८ ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष ! जो (ददुषः) दान करते हुए (ते) आप का (असमम्) समता रहित कर्म वा सादृश्य रहित (क्षत्रम्) राज्य तथा (असमा) समता वा उपमा रहित (मनीषा) बुद्धि होवे तो (ये) जो (नेमे) सब (सोमपाः) सोम आदि ओषधीरसों के पीनेवाले धार्मिक विद्वान् पुरुष (अपसा) कर्म से (स्थविरम्) वृद्ध (वृष्ण्यम्) शत्रुओं के बलनाशक सुख वर्षानेवाले के लिये कल्याणकारक (महि) महागुणयुक्त (क्षत्रम्) राज्य को (प्रवर्धयन्ति) बढ़ाते हैं, वे सब आपकी सभा में बैठने योग्य सभासद् (च) और भृत्य (सन्तु) होवें ॥ ८ ॥
भावार्थ
राजपुरुषों को प्रजा से और प्रजा में रहनेवाले पुरुषों को राजपुरुषों से विरोध कभी न करना चाहिये, किन्तु परस्पर प्रीति वा उपकार बुद्धि के साथ सब राज्य सुखों से बढ़ाना चाहिये, क्योंकि इस प्रकार किये विना राज्यपालन की व्यवस्था निश्चल नहीं हो सकती ॥ ८ ॥
विषय
अनुपम बल व बुद्धि
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ये) = जो (ते) = आपके प्रति (ददुषः) = अपना अर्पण करनेवाले होते हैं, उनका (क्षत्रम्) = बल (असमम्) = असाधारण होता है, (मनीषा) = उनकी बुद्धि भी (अपसा) = असाधारण होती है । (नेमे) = ये (सोमपाः) = सोम का रक्षण करनेवाले (अपसा) = यज्ञादि कर्मों के द्वारा (प्रसन्तु) = खूब बढ़े हुए हों । वस्तुतः प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवालों का झुकाव विषय - वासनाओं की ओर नहीं रहता । परिणामतः वे सोम का रक्षण करनेवाले होते हैं, और यह सुरक्षित सोम उनके बल और वृद्धि का कारण बनता है । ये सोम का शरीरों में ही पान और व्यापन करनेवाले लोग खूब क्रियाशील होते हैं । इनको आलस्य व अकर्मण्यता नहीं घेरते । यह क्रियाशीलता ही इनके उत्थान का कारण बनती है । २. ये लोग अपने में (महि क्षत्रम्) = महनीय, यशस्वी बल को (च) = तथा (स्थविरम् वृष्ण्यम्) = स्थूल, अर्थात् प्रवृद्ध [great] पुंस्त्व को, शक्तिशालिता को (वर्धयन्ति) = बढ़ाते हैं । इनका बल यशस्वी होता है । बल से ये अन्याय को दूर करने के कार्यों को करते हुए सबके प्रिय होते हैं, चारों ओर इनका यश फैलता है । इस 'महि क्षत्र' के साथ ये बढ़ी हुई वीरतावाले होते हैं । इस वीरता के कारण ही ये घबराते नहीं और वीरतापूर्ण कार्यों के द्वारा सबपर सुखों का वर्षण करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले लोग सोमरक्षण के द्वारा अनुपम बल व बुद्धि का सम्पादन करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी प्रजेचा व प्रजेने राजपुरुषाचा कधीही विरोध करू नये, तर परस्पर प्रीती व उपकार करून संपूर्ण राज्य सुखाने वृद्धिंगत केले पाहिजे. हे केल्याशिवाय राज्यपालनाची व्यवस्था निश्चयपूर्वक होऊ शकत नाही. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, unique is your order of governance. Your intelligence and imagination is unique. May all the citizens, lovers of soma as they are, prosper by their karma who, generous and giving, advance your great strength and system, stability and generosity.
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