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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 9
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तुभ्येदे॒ते ब॑हु॒ला अद्रि॑दुग्धाश्चमू॒षद॑श्चम॒सा इ॑न्द्र॒पानाः॑। व्य॑श्नुहि त॒र्पया॒ काम॑मेषा॒मथा॒ मनो॑ वसु॒देया॑य कृष्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑ । इत् । ए॒ते । ब॒हु॒लाः । अद्रि॑ऽदुग्धाः । च॒मू॒ऽसदः॑ । च॒म॒साः । इ॒न्द्र॒ऽपानाः॑ । वि । अ॒श्नु॒हि॒ । त॒र्पय॑ । काम॑म् । ए॒षा॒म् । अथ॑ । मनः॑ । व॒सु॒ऽदेया॑य । कृ॒ष्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्येदेते बहुला अद्रिदुग्धाश्चमूषदश्चमसा इन्द्रपानाः। व्यश्नुहि तर्पया काममेषामथा मनो वसुदेयाय कृष्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्य। इत्। एते। बहुलाः। अद्रिऽदुग्धाः। चमूऽसदः। चमसाः। इन्द्रऽपानाः। वि। अश्नुहि। तर्पय। कामम्। एषाम्। अथ। मनः। वसुऽदेयाय। कृष्व ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र सभेश ! यथैते बहुला इन्द्रपानाश्चमसाः सर्वान् कामान् पिप्रति तथाऽद्रिदुग्धाश्चमूषदो वीरास्तुभ्यं प्रीणयन्तु त्वमेतेभ्यो वसुदेयाय मनः कृष्व त्वमेताँस्तर्पयैषां कामं प्रपूर्द्धि अर्थात् सर्वान् कामान् व्यश्नुहि ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (तुभ्य) तुभ्यम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति मलोपः। (इत्) एव (एते) वीराः (बहुलाः) बहूनि सुखानि युद्धकर्माणि लान्ति प्रयच्छन्ति ते (अद्रिदुग्धाः) अद्रेर्मेघात् पर्वतेभ्यो वा प्रपूरिताः (चमूषदः) ये चमूषु सेनासु सीदन्त्यवस्थिता भवन्ति (चमसाः) ये चाम्यन्त्यदन्ति भोगान् येभ्यो मेघेभ्यस्ते। चमस इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (इन्द्रपानाः) य इन्द्रं परमैश्वर्य्यहेतुं सवितारं पान्ति ते। अत्र नन्द्यादित्वात् ल्युः प्रत्ययः। (वि) विविधार्थे (अश्नुहि) व्याप्नुहि। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (तर्पय) प्रीणय (कामम्) यः काम्यते तम् (एषाम्) भृत्यानाम् (अथ) आनन्तर्य्ये (मनः) मननात्मकम् (वसुदेयाय) दातव्यधनाय (कृष्व) विलिख ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    सभाद्यध्यक्षः सुशिक्षितपालितोत्पादितान् शूरवीरान् रक्षित्वा प्रजा सततं पालयित्वैतेभ्यः सर्वाणि सुखानि दद्यादेते च सभाद्यध्यक्षान् नित्यं सन्तोषयेयुर्यतः सर्वे कामाः पूर्णाः स्युः ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष ! जैसे (एते) ये (बहुलाः) बहुत सुख वा कर्मों को देनेवाले (इन्द्रपानाः) परमैश्वर्य के हेतु सूर्य्य को प्राप्त होने हारे (चमसा) मेघ सब कामों को पूर्ण करते हैं, वैसे (अद्रिदुग्धाः) मेघ वा पर्वतों से प्राप्तविद्या (चमूषदः) सेनाओं में स्थित शूरवीर पुरुष (तुभ्यम्) आपको तृप्त करें तथा आप इन को (वसुदेयाय) सुन्दर धन देने के लिये (मनः) मन (कृष्व) कीजिये और आप इन को (तर्पय) तृप्त वा (एषाम्) इन की (कामान्) कामना पूर्ण कीजिये (अथ) इस के अनन्तर (इत्) ही सब कामनाओं को (व्यश्नुहि) प्राप्त हूजिये ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    सभा आदि के अध्यक्ष उत्तम शिक्षा वा पालन से उत्पादन किये हुए शूरवीरों और प्रजा की निरन्तर पालना करके इनके लिये सब सुखों को देवें और वे प्रजा के पुरुष भी सभाध्यक्षादिकों को निरन्तर सन्तुष्ट रक्खें, जिससे सब कामना पूर्ण होवें ॥ ९ ॥

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    विषय

    सोम का रक्षण व दान की वृत्ति

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के 'सोमपाः' से प्रभु कहते हैं कि (तुभ्य इत् एते) = तेरे लिए ही निश्चय से (चमसाः) = [चम्यन्ते] शरीर में ही जिनका आचमन किया जाता है, ऐसे ये सोमकण हैं, वे (बहुलाः) = बहुत मात्रा में हैं अथवा अनेक पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं [बहून् अर्थात् लान्ति] । इनके कारण ही शरीर की नीरोगता, मन की निर्मलता तथा बुद्धि की तीव्रता को जन्म मिलता है । (अद्रिदुग्धाः) = [अद्रि - A tree] इस शरीररूप 'ऊर्ध्वमूल - अवाक् शाखः' वृक्ष के लिए इन सोमकों का दोहन व पूरण हुआ है । (चमूषदः) = शरीररूप चमू ही इनके बैठने का स्थान है, अर्थात् शरीर में ही इनकी स्थिति है । (इन्द्रपानाः) = जितेन्द्रिय पुरुष से ही इनका रक्षण होता है और जितेन्द्रिय पुरुष से रक्षित होकर ये उसका रक्षण करनेवाले होते हैं । वह इनका रक्षण करता है, ये उसका । इस प्रकार इन्द्र व सोमकों का भावन चलता है । इससे इनका परमकल्याण होता है । २. हे इन्द्र ! तू (व्यश्नुहि) = विशिष्टरूप से इन्हें शरीर में व्याप्त करनेवाला बन । इन सोमकणों के शरीर में व्यापन के द्वारा (एषाम्) = इन इन्द्रियों का (कामं तर्पय) = तू खूब तर्पण करनेवाला बन । इन्द्रियों की शक्ति का पोषण सोमकणों के रक्षण पर ही निर्भर करता है । ३. भोग - विलास की वृत्ति सोम - विनाश का कारण बनती है और सोम - विनाश से इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है । भोगविलास की वृत्ति से ऊपर आने के लिए आवश्यक है कि तू (अथ) = अब (मनः) = अपने मन को (वसुदेवाय) = धन के देने के लिए (कृष्व) = कर । दानवृत्ति वासनाओं का भी दान [लवन - काटना] करती है और जीवन को शुद्ध [दैप् शोधने] बनाती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सोमकण शरीर में रक्षित करने के लिए ही हैं । ये रक्षित होकर इन्द्रियों की शक्ति का वर्धन करते हैं । इसी उद्देश्य से हम मन को दान की वृत्ति से युक्त करें, क्योंकि यह दान हमें भोगविलास से ऊपर उठाकर 'सोम - रक्षण - क्षम' बनाएगा ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सभा इत्यादीच्या अध्यक्षांनी प्रशिक्षित शूरवीरांचे व प्रजेचे सदैव पालन करावे. त्यांना निरंतर सुख द्यावे व प्रजेनेही सभाध्यक्ष इत्यादींना सतत संतुष्ट ठेवावे. ज्यामुळे सर्व कामना पूर्ण व्हाव्यात. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of power and governance, for your service are these many warrior heroes, overflowing with generosity like the clouds, strong as adamant, formidable in battle and embodiments of national genius fit for service and sacrifice for the honour and glory of the nation. Accept these, grant them the desire and ambition they have, and make up your mind and resolve for the growth of honour, prosperity and generosity.

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