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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 55/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    स इद्वने॑ नम॒स्युभि॑र्वचस्यते॒ चारु॒ जने॑षु प्रब्रुवा॒ण इ॑न्द्रि॒यम्। वृषा॒ छन्दु॑र्भवति हर्य॒तो वृषा॒ क्षेमे॑ण॒ धेनां॑ म॒घवा॒ यदिन्व॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । इत् । वने॑ । न॒म॒स्युऽभिः॑ । व॒च॒स्य॒ते॒ । चारु॑ । जने॑षु । प्र॒ऽब्रु॒वा॒णः । इ॒न्द्रि॒यम् । वृषा॑ । छन्दुः॑ । भ॒व॒ति॒ । ह॒र्य॒तः । वृषा॑ । क्षेमे॑ण । धेना॑म् । म॒घवा॑ । यत् । इन्व॑ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स इद्वने नमस्युभिर्वचस्यते चारु जनेषु प्रब्रुवाण इन्द्रियम्। वृषा छन्दुर्भवति हर्यतो वृषा क्षेमेण धेनां मघवा यदिन्वति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। इत्। वने। नमस्युऽभिः। वचस्यते। चारु। जनेषु। प्रऽब्रुवाणः। इन्द्रियम्। वृषा। छन्दुः। भवति। हर्यतः। वृषा। क्षेमेण। धेनाम्। मघवा। यत्। इन्वति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 55; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यद्योऽध्यापक उपदेशको वा वने जनेषु चार्विन्द्रियं ब्रुवाणो हर्यतः प्रभवति वृषा मघवा छन्दुर्वृषा क्षेमेण सहितां धेनामिन्वति स इन्नमस्युभिर्वचस्यते ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (सः) अध्यापक उपदेशको वा (इत्) एव (वने) एकान्ते (नमस्युभिः) नम्रैर्विद्यार्थिभिः श्रोतृभिः (वचस्यते) परिभाष्यते सर्वतः स्तूयते (चारु) सुन्दरम् (जनेषु) प्रसिद्धेषु मनुष्येषु (प्रब्रुवाणः) यः प्रकर्षेण वाचयत्युपदेशयति वा सः (इन्द्रियम्) विज्ञानयुक्तं मनः (वृषा) समर्थः (छन्दुः) स्वच्छन्दः (भवति) वर्त्तते (हर्यतः) सर्वेषां सुबोधं कामयमानः (वृषा) सत्योपदेशवर्षकः (क्षेमेण) रक्षणेन (धेनाम्) विद्याशिक्षायुक्तां वाचम्। धेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (मघवा) प्रशस्तविद्याधनवान् (यत्) यः (इन्वति) व्याप्नोति ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    परमविद्वान् सर्वान् मनुष्यान् सर्वा विद्याः प्रापय्य विद्यावतो बहुश्रुतान् स्वच्छन्दान् सुरक्षितान् कुर्याद्यतो निःसंशयाः सन्तः सदा सुखिनः स्युः ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर वह कैसा कर्म करे, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    (यत्) जो अध्यापक वा उपदेशकर्त्ता (वने) एकान्त में एकाग्र चित्त से (जनेषु) प्रसिद्ध मनुष्यों में (चारु) सुन्दर (इन्द्रियम्) मन को (ब्रुवाणः) अच्छे प्रकार कहता (हर्य्यतः) और सबको उत्तम बोध की कामना करता हुआ (प्रभवति) समर्थ होता है (वृषा) दृढ़ (मघवा) प्रशंसित विद्या और धनवाला (छन्दुः) स्वच्छन्द (वृषा) सुख वर्षानेवाला (क्षेमेण) रक्षण के सहित (धेनाम्) विद्या शिक्षायुक्त वाणी को (इन्वति) व्याप्त करता है (स इत्) वही (नमस्युभिः) नम्र विद्वानों से (वचस्यते) प्रशंसा को प्राप्त होता है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    उत्तम विद्वान् सभाध्यक्ष सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को प्राप्त करके सबको विद्यायुक्त, बहुश्रुत, रक्षा वा स्वच्छन्दतायुक्त करें कि जिससे सब निस्सन्देह होकर सदा सुखी रहें ॥ ४ ॥

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    विषय

    यज्ञों द्वारा उपासन

    पदार्थ

    १. (स इत्) = वह प्रभु ही (वने) = एकान्त देश में (नमस्युभिः) नमन की इच्छावालों से, स्तोताओं से (वचस्यते) = [स्तूयते] स्तुति किया जाता है । २. यह प्रभु (जनेषु) = शक्तियों का विकास करनेवाले मनुष्यों में चारु (इन्द्रियम्) = सुन्दर शक्ति को (प्रब्रुवाणः) = [प्रकटयन्] प्रकट करनेवाले होते हैं । ३. (वृषा) = शक्ति के प्रकाश के द्वारा ये इस भक्त पर सुखों का वर्षण करते हैं तथा (हर्यतः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों की कामनावाले पुरुष का यह (छन्दुः) = [उपच्छन्दयिता] यज्ञों में रुचि पैदा करनेवाला (भवति) = होता है । ४. इस रुचि को वह तब पैदा करता है (यत्) = जबकि (वृषा) = वह सुखपूर्वक शक्तिशाली प्रभु (क्षेमेण) = प्रजाओं के क्षेम के हेतु से (मघवा) = ऐश्वर्यों व यज्ञोंवाला होता हुआ (धेनाम्) = इस वेदवाणी को (इन्वति) = प्राप्त करता है । इस वेदवाणी के द्वारा ही प्रभु यज्ञात्मक कर्मों का उपदेश करते हैं । अनुष्ठित हुए - हुए ये यज्ञ हमारे क्षेम का साधन बनते हैं, वस्तुतः प्रभु इसी प्रकार हमपर सुखों का वर्षण करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभुस्तवन करें, प्रभु हमारी शक्तियों का वर्धन करेंगे । प्रभुकृपा से हम यज्ञ - रुचि बनते हैं । वेदवाणी में इन कल्याणकर यज्ञों का वर्णन हुआ है ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( नमस्युभिः वचस्यते ) जिस प्रकार नमस्कार करने वाले, विनयशील विद्यार्थियों के समान भक्तजनों द्वारा ( वने ) परमेश्वर अरण्य में, एकान्त में स्तुति किया जाता है और यह जनों और जन्तुओं में अति उत्तम उपभोग योग्य ( इन्द्रियम् ) ऐश्वर्य और ज्ञान का आचार्य के समान ( प्रब्रुवाण: ) उपदेश करता हुआ स्तुति का पात्र होता है इसी प्रकार ( सः इत् ) वह राजा ही (वने) भोगने और प्राप्त करने योग्य ऐश्वर्य के लिये ( नमस्युभिः ) उसके प्रति झुक २ कर आदर करने वाले विनीत सेवकों द्वारा ( वचस्यते ) उत्तम स्तुतियों को प्राप्त करे । और वह (जनेषु) सर्व साधारण जनों पर ( चारु ) उत्तम, भोग्य, ( इन्द्रियम् ) ऐश्वर्य, राज्य समृद्धि को प्राप्त करने का ( प्रव्रुवाणः ) उनको उपदेश करता हुआ स्तुति का पात्र हो । ( यत् ) जब भी राजा ( वृषा ) सब प्रजा पर सुखों की वर्षा करने हारा, दानशील, मेघ के समान उदार या ( वृषा धेनाम् ) महा वृषभ जिस प्रकार गौ को प्राप्त करता है उसी प्रकार वह (धेनाम्) समस्त रसों के पान कराने वाली आज्ञापक वाणी और भूमि को या प्रजा की स्तुति को ( इन्वति ) प्राप्त करता है, तब वह ( वृषा ) वर्षक मेघ के समान उदार ( छन्दुः ) प्रजा का मनोरंजक और ( क्षेमेण ) प्रजा के कुशल क्षेम, परम हित करने से भी ( हर्यतः ) सबके मनों के हरण करने वाला ( क्षेमेण ) प्रजा के रक्षण द्वारा ही ( छन्दुः ) प्रजाओं के मन हरने वाला, एवं स्वयं स्वतन्त्र, मुख्य ( भवति ) हो जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४ जगती । २,५—७ निचृज्जगती । ३, ८ विराड्जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह अध्यापक कैसा कर्म करे, यह उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यद् यः अध्यापक उपदेशकः वा वने जनेषु चारु इन्द्रियं {प्र}ब्रुवाणः हर्यतः प्र भवति वृषा मघवा छन्दुः वृषा क्षेमेण सहितां धेनाम् इन्वति स इत् नमस्युभिः वचस्यते ॥४॥

    पदार्थ

    (यत्) यः=जो, (अध्यापकः)= अध्यापक, (वा)=या, (उपदेशकः)= उपदेशक, (वने) एकान्ते= एकान्त में, (जनेषु) प्रसिद्धेषु मनुष्येषु= प्रसिद्ध मनुष्यों में, {प्रब्रुवाणः} यः प्रकर्षेण वाचयत्युपदेशयति वा सः=जो प्रकर्ष रूप से बोलता है या उपदेश करता है, (चारु) सुन्दरम्=सुन्दर, (इन्द्रियम्) विज्ञानयुक्तं मनः=विशेष ज्ञान से युक्त मन से, (हर्यतः) सर्वेषां सुबोधं कामयमानः=सबको आसानी से हर्षित करनेवाला, (प्र)=उत्कृष्ट (भवति) वर्त्तते=होता है, (वृषा) सत्योपदेशवर्षकः=सत्य के उपदेश की वर्षा करनेवाला, (मघवा) प्रशस्तविद्याधनवान्= प्रशस्त विद्या के धन वाला, (छन्दुः) स्वच्छन्दः= स्वच्छन्द, (वृषा) समर्थः=समर्थ, (क्षेमेण) रक्षणेन= रक्षा, (सहिताम्)= सहित को, (धेनाम्) विद्याशिक्षायुक्तां वाचम्= विद्या और शिक्षा से युक्त वाणी को, (इन्वति) व्याप्नोति= व्याप्त करता है, (सः) अध्यापक उपदेशको वा=वह अध्यापक या उपदेशक, (इत्) एव=ही, (नमस्युभिः) नम्रैर्विद्यार्थिभिः श्रोतृभिः=नम्र विद्यार्थियों और श्रोताओं के द्वारा, (वचस्यते) परिभाष्यते सर्वतः स्तूयते=परिभाषित किया जाता है और हर ओर उसकी स्तुति की जाती है ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    परम विद्वान् सब मनुष्य, सब विद्याओं को प्राप्त करके, विद्यावान, बहुश्रुत, स्वच्छ और सुरक्षित करके, संशय रहित होते हुए सदा सुखी रहें ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यत्) जो (अध्यापकः) अध्यापक (वा) या (उपदेशकः) उपदेशक (वने) एकान्त में और (जनेषु) प्रसिद्ध मनुष्यों मंन {प्रब्रुवाणः} प्रकर्ष रूप से बोलता है या उपदेश करता है। (चारु) सुन्दर (इन्द्रियम्) विशेष ज्ञान से युक्त मन से (हर्यतः) सबको आसानी से हर्षित करनेवाला [और] (प्र) उत्कृष्ट (भवति) होता है। (वृषा) सत्य के उपदेश की वर्षा करनेवाला, (मघवा) प्रशस्त विद्या के धन वाला, (छन्दुः) स्वच्छन्द, (वृषा) समर्थ, (क्षेमेण+सहिताम्) रक्षित है, [वह] (धेनाम्) विद्या और शिक्षा से युक्त वाणी को (इन्वति) व्याप्त करता है। (सः) वह अध्यापक या उपदेशक (इत्) ही (नमस्युभिः) नम्र विद्यार्थियों और श्रोताओं के द्वारा (वचस्यते) परिभाषित किया जाता है और हर ओर उसकी स्तुति की जाती है ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) अध्यापक उपदेशको वा (इत्) एव (वने) एकान्ते (नमस्युभिः) नम्रैर्विद्यार्थिभिः श्रोतृभिः (वचस्यते) परिभाष्यते सर्वतः स्तूयते (चारु) सुन्दरम् (जनेषु) प्रसिद्धेषु मनुष्येषु (प्रब्रुवाणः) यः प्रकर्षेण वाचयत्युपदेशयति वा सः (इन्द्रियम्) विज्ञानयुक्तं मनः (वृषा) समर्थः (छन्दुः) स्वच्छन्दः (भवति) वर्त्तते (हर्यतः) सर्वेषां सुबोधं कामयमानः (वृषा) सत्योपदेशवर्षकः (क्षेमेण) रक्षणेन (धेनाम्) विद्याशिक्षायुक्तां वाचम्। धेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (मघवा) प्रशस्तविद्याधनवान् (यत्) यः (इन्वति) व्याप्नोति ॥४॥ विषयः- पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यद्योऽध्यापक उपदेशको वा वने जनेषु चार्विन्द्रियं ब्रुवाणो हर्यतः प्रभवति वृषा मघवा छन्दुर्वृषा क्षेमेण सहितां धेनामिन्वति स इन्नमस्युभिर्वचस्यते ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- परमविद्वान् सर्वान् मनुष्यान् सर्वा विद्याः प्रापय्य विद्यावतो बहुश्रुतान् स्वच्छन्दान् सुरक्षितान् कुर्याद्यतो निःसंशयाः सन्तः सदा सुखिनः स्युः ॥४॥

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    Bhajan

    वैदिक भजन १०९८ वां
                     राग देसी
      ( ४ रागों को मिलाकर यह राग बना)
      असावरी, सारंग, तिलककामोद,काफी
    गायन समय दिन का प्रथम प्रहर 
              4:00 से 7:00 तक
               ताल अद्धा 16 मात्रा
    आज आनन्द पायें प्रभु भजन से
    प्रेम की तान है भगवान
    आज........
    तेरा भजन एकांत में भाये
    प्रेम से जो उपदेश सिखाए
    दे उपदेश का दान।।
    आज........
    भीड़-भड़क्का बहिर्मुख कराये
    बात अन्दर की ना सुन पाये
    वन में गायें प्रभु- गान ।।
    आज..........
    जो भगवान की कामना करता
    सुखवर्षा प्रभु रक्षा करता
    हरता प्रभु अज्ञान ।।
    आज.........
    मिले एकांत में भक्ति की शक्ति
    प्रभु उपदेश की देते युक्ति
    बनता भक्त निष्काम ।।
    आज.........
    क्षेम के संग प्रभु वाणी देते
    क्षेम भार वही ढ़ो लेते
    देव सा बना शक्तिमान
    आज.........
    अब तेजस्वी उस भगवान पे
    श्रद्धा लाओ भजन- गान से
    बनो दिव्य गुणवान ।।
    आज.......
    भजनों को एकांत में गाकर
     वीर्य पराक्रम ज्ञान ध्यान पाकर
    समाधान करो आधान।।
    आज..........
                  १०.६.२०२३
                   १०.१० प्रातः 
               शब्दार्थ:- 
    बहिर्मुख=बाहर की ओर
    युक्ति=ढंग, तरकीब
    क्षेम=कल्याण
    आधान=स्थापन, रखना
    समाधान=मन को एकाग्र करके ध्यान में लगाना, समाधि

    🕉🙏प्रथम श्रृंखला ९१ वां  वैदिक भजन और अब तक का 1098 वां वैदिक भजन🎧🙏
    🕉🧘‍♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं🎧🙏 शुभकामनाएं

    Vyakhya

    वन में भजन

    भक्त लोग एकांत में ही भगवान का भजन करना चाहते हैं, एकांत में ही उसका उपदेश करते हैं, इसका भी एक कारण  'चारु जनेषु प्रब्रुवाण इन्द्रियम् '=लोगों में सुन्दर ईश्वरप्रेम का उपदेश करता है। एकांत में ही भगवान का, अंतर्यामी भगवान का उपदेश सुनाई देता है।
    भीड़- भड़क्के में रहने से बहिर्मुख हो जाती है, अन्दर की बात सुनाई नहीं देती, अतः ' स इद्वने नमस्युभिर्वचस्यते=भक्त लोग वन में ही उसकी बातचीत=चर्चा करना चाहते हैं। अपने जैसों के साथ ही बातचीत हो सकती है। जैसा कि महर्षि गौतम जी ने कहा है ' 'ज्ञानग्रहणाभ्यासस्तद्विद्यैश्च सह संवाद:'
    [न्याय दर्शन ४.२.४७]=आत्मविद्या का ग्रहण धारण अभ्यास यह सब कुछ अध्यात्म विद्या-वेत्ताओं के साथ संवाद करने से बन पड़ते हैं। अज्ञानी के साथ बातचीत का क्या लाभ? जो भगवान की कामना करता है, भगवान भी उसका
    ' वृषा छन्दुर्भवति हर्यत: '=सुखवर्षा कुकर रक्षक होता है। वेद में कहा है-  मा....जरितु: काममूनयी:,[ऋ॰१.५३.३]
    वह भक्तों की कामना अधूरी नहीं रहने देता। भगवान एकांत में केवल अपनी भक्ति की शक्ति का ही उपदेश नहीं करता, वरन -- ' क्षेमेण देना 'अपने ऊपर ले लेता है। वह तो 
    ' प्र वीर्येण देवताति चेकीते [‌ऋ•१.५५.३]
    शक्ति के कारण सब देवों से, दानियों से, दिव्य गुणवालों से बढ़कर जाना जाता है।
    इसलिए--' अधा च न श्रद्दधति त्विषीमत '
    इन्द्राय ' ऋ•१.५५.५= अब तो उस तेजस्वी भगवान पर श्रद्धा करो, और एकांत में जाकर उसके भजन के द्वारा अपने अन्दर बल, वीर्य, पराक्रम, ज्ञान, ध्यान, समाधान का आधान करो।

                   वैदिक मन्त्र
    स इद्वने नमस्युभिर्वचस्यते चारु जनेषु प्रब्रुवाण इन्द्रियम्।
    वृषा छन्दुर्भवति हर्यतो क्षेमेण धेनां मघवा यदिन्वति।। ऋ•१.५५.४
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उत्तम विद्वान सभाध्यक्षाने सर्व माणसांना सर्व विद्या प्राप्त करून द्यावी. सर्वांना विद्यायुक्त व बहुश्रुत करावे व त्यांचे रक्षण करावे म्हणजे ते निश्चितपणे सुखी होतील. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Celebrated is Indra, far and wide in town and forest and in distant lands, by his admirers in worship and reverence, lord and bold as he is, expressing his knowledge and power among people gracefully. Generous he is, joyous and free, full of blessings for those who are keen to learn and earn the wealth of life. And generous of knowledge, power and protection, glorious all round, he commands the voice of praise and appreciation everywhere.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of work should that teacher do, this advice has been given in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yat)=That, (adhyāpakaḥ) =teacher, (vā) =or, (upadeśakaḥ) =preacher, (vane) =in solitude and, (janeṣu) =among famous people, {prabruvāṇaḥ} =speaks or preaches excellently. (cāru)=beautiful, (indriyam)=with a mind full of special knowledge, (haryataḥ) =easy pleaser to all, [aura]=and, (pra) =excellent, (bhavati) =is, (vṛṣā) =the one who showers the teachings of truth, (maghavā) =one with vast knowledge, (chanduḥ)=independent,, (vṛṣā) =capable, (kṣemeṇa+sahitām) =is protected, [vaha]=that, (dhenām)=speech full of knowledge and education, (invati) =pervades, (saḥ)= that teacher or preacher, (it) =only, (namasyubhiḥ) =by humble students and listeners, (vacasyate)=is defined and praised everywhere.

    English Translation (K.K.V.)

    The teacher or preacher, who speaks or preaches excellently in solitude and among famous people. Who has a beautiful mind full of special knowledge, he easily makes everyone happy and is excellent. The one who showers the teachings of truth, has the wealth of extensive knowledge, is independent, capable, with protection, he spreads the speech full of knowledge and education. That teacher or preacher is defined by humble students and listeners and is praised everywhere.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    May all the most learned people, having acquired all the knowledge, being learned, pure and safe, being free from doubts, must remain happy forever.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should he (Indra) do is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That teacher or preacher only is glorified or praised by his humble pupils or hearers who in forest (solitary place) desiring that all should get good knowledge proclaims his beautiful vigor amongst men giving them good mind full of knowledge and wisdom. He endowed with the admirable wealth of wisdom, showerer of true precept, powerful and free, utters words that are full of wisdom and education. He is the granter of their noble desires.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (हर्यतः) सर्वेषां सुबोधं कामयमानः = Desiring that all may acquire good knowledge. (हर्य-गतिप्रेप्सयोः ) = Tr. (इन्द्रियम्) विज्ञानयुक्त मनः = Mind full of knowledge. ( धेनाम् ) विद्या शिक्षायुक्तां वाचम् धेनेति वाङ्नाम ( निघ० १.११ ) = Speech endowed with wisdom and education.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A highly learned scholar should make all people full of knowledge free and safe by giving them instructions in various sciences, so that they may ever enjoy happiness being free from all doubts.

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