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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 61/ मन्त्र 10
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अ॒स्येदे॒व शव॑सा शु॒षन्तं॒ वि वृ॑श्च॒द्वज्रे॑ण वृ॒त्रमिन्द्रः॑। गा न व्रा॒णा अ॒वनी॑रमुञ्चद॒भि श्रवो॑ दा॒वने॒ सचे॑ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । इत् । ए॒व । शव॑सा । शु॒षन्तम् । वि । वृ॒श्च॒त् । वज्रे॑ण । वृ॒त्रम् । इन्द्रः॑ । गाः । न । व्रा॒णाः । अ॒वनीः॑ । अ॒मु॒ञ्च॒त् । अ॒भि । श्रवः॑ । दा॒वने॑ । सऽचे॑ताः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येदेव शवसा शुषन्तं वि वृश्चद्वज्रेण वृत्रमिन्द्रः। गा न व्राणा अवनीरमुञ्चदभि श्रवो दावने सचेताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य। इत्। एव। शवसा। शुषन्तम्। वि। वृश्चत्। वज्रेण। वृत्रम्। इन्द्रः। गाः। न। व्राणाः। अवनीः। अमुञ्चत्। अभि। श्रवः। दावने। सऽचेताः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 61; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यः सचेता इन्द्रोऽस्यैव शवसा वज्रेण शुषन्तं वृत्रं विवृश्चद्विछिनत्ति स गा न गोपालो बन्धनान्मोचयित्वा वनं गमयतीवावनीः व्राणा दावने श्रव इदपि व्राणा अपो वाभ्यमुञ्चदाभिमुख्येन मुञ्चति स राज्यं कर्तुमर्हति ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (इत्) अपि (एव) अवधारणे (शवसा) बलेन (शुषन्तम्) द्वेषेण प्रतापेन क्षीणम् (वि) विविधार्थे (वृश्चत्) छिनत्ति (वज्रेण) शस्त्रसमूहेन तेजोवेगेन वा (वृत्रम्) मेघमिव न्यायावरकं शत्रुं (इन्द्रः) सेनाधिपतिस्तनयित्नुर्वा (गाः) पशून् (न) इव (व्राणाः) आवृताः (अवनीः) पृथिवीं प्रति (अमुञ्चत्) मुञ्चति (अभि) आभिमुख्ये (श्रवः) श्रवणमन्नं वा (दावने) दात्रे (सचेताः) समानं चेतो विज्ञानं संज्ञापनं वा यस्य सः ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। यथा विद्युत्सहायेन सूर्यः सूर्यस्य सहायेन विद्युच्च प्रवृध्य विश्वं प्रकाश्य मेघं विच्छिद्य भूमौ निपातयति यथा गोपालो बन्धनादु गा विमुच्य सुखयति तथैव सभासदः सेनासदश्च न्यायं संरक्ष्य शत्रूंश्च छिन्नं भिन्नं कृत्वा धार्मिकान् दुःखबन्धनाद्विमोच्य सुखेयत् ॥ १० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (सचेताः) तुल्य ज्ञानवान् (इन्द्रः) सेनाधिपति (अस्य) इस सभाध्यक्ष (एव) ही के (शवसा) बल तथा (वज्रेण) तेज से (शुषन्तम्) द्वेष से क्षीण हुए (वृत्रम्) प्रकाश के आवरण करनेवाले मेघ के समान आवरण करनेवाले शत्रु को (विवृश्चत्) छेदन करता है, वह (गाः) पशुओं को पशुओं के पालनेवाले बन्धन से छुड़ाकर वन को प्राप्त करते हुए के (न) समान (अवनीः) पृथिवी को (व्राणाः) आवरण किये हुए जल के तुल्य (दावने) देनेवाले के लिये (श्रवः) अन्न को (इत्) भी (अभ्यमुञ्चत्) सब प्रकार से छोड़ता है, वह राज्य करने को समर्थ होता है ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जैसे बिजुली के सहाय से सूर्य्य वा सूर्य्य के सहाय से बिजुली बढ़ के विश्व को प्रकाशित और मेघ को छिन्न-भिन्न कर भूमि में गिरा देती है, जैसे गौओं का पालनेवाला गौऔं को बन्धन से छोड़कर सुखी करता है, वैसे ही सभा सेना के अध्यक्ष मनुष्य न्याय की रक्षा और शत्रुओं को छिन्न-भिन्न और धार्मिकों को दुःखरूपी बन्धनों से छुड़ाकर सुखी करें ॥ १० ॥

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    विषय

    अवनि - मोचन

    पदार्थ

    १. (अस्य इत् एव) = इस परमात्मा के ही (शवसा) = बल से (शुषन्तम्) = सूखते हुए (वृत्रम्) = वासनात्मक भाव को (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (वज्रेण) = क्रियाशीलता वज्र से (विवृश्चत्) = विशेष करके काट डालता है, नष्ट कर देता है । जीव की अपनी शक्ति नहीं कि वह वासना को विनष्ट कर सके । जीव प्रभु का स्मरण करता है और इस नाम - स्मरण से वासना सूख जाती है । महादेव के सामने कामदेव की शक्ति मन्द हो जाती है । मन्दशक्ति कामदेव को जीव क्रियाशीलता के द्वारा नष्ट किया करता है । कामदेव को मारते तो प्रभु हैं, मरते हुए कामदेव के माथे पर जीव भी क्रियाशीलता वज्र का प्रहार कर देता है । २. वृत्र के विनाश के द्वारा (गाः न व्राणाः) = बाड़े में घिरी हुई गौओं के समान, अर्थात् जैसे बाड़े को खोलकर गौओं को स्वतन्त्रता प्राप्त कराई जाती है उसी प्रकार (व्राणाः अवनीः) = वासना से आवृत (रक्षण) = हेतुभूत वीर्य - शक्तियों को (अमुञ्चत्) = इस वासना के घेरे से मुक्त करता है, अर्थात् इन वीर्यकों को वासना का शिकार नहीं होने देता । ३. (दावने) = अपने को प्रभु के प्रति अर्पित करनेवाले के लिए (सचेताः) = सदा सचेत हुए - हुए प्रभु (श्रवः अभि) = उसे ज्ञान के प्रति ले - चलते हैं । जो भी व्यक्ति वृत्र के विदारण के लिए दृढनिश्चयी होता है, वह प्रभुभक्त बनता है, प्रभु को पुकारता है । प्रभु इस सम्पर्क को सदा रक्षित करते हैं और ज्ञानाभिमुख ले - चलते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही हमारी वासना का विनाश करते हैं और हमें ज्ञान की ओर ले - चलते हैं ।

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    विषय

    उसके प्रजा और शत्रुओं के प्रति कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता सेनापति ( अस्य इत् एव ) इस वीर पुरुष या समृद्ध राष्ट्र के ही (शवसा) बल पराक्रम द्वारा, विद्युत् के प्रहार बल से क्षीण होते हुए मेघ के समान (वज्रेण) शस्त्रास्त्र बल से ( शुषन्तम् ) क्षीण होते हुए शत्रु को (वि वृश्चत्) विविध प्रकारों से छिन्न भिन्न करे । ( गाः न ) जिस प्रकार गवाला बाड़े में से गौओं को छुड़ा देता है उसी प्रकार वह वीर पुरुष या राजा (व्राणाः) घिरी हुई (अवनीः) भूमियों, भूमिवासिनी प्रजाओं को शत्रु के बन्धन से (अमुञ्चत् ) मुक्त करे । अथवा (व्राणाः अवनीः अभि अमुञ्चत्) मेघ जिस प्रकार आवृत जल धाराओं को प्रजाओं पर उदारता से बरसाता है, उसी प्रकार वह ( दावने ) कर और दान आदि देने वाले प्रजावर्ग पर (सचेताः) प्रजा के सुख दुःख में समान चित्त होकर (श्रवः) अन्न आदि भोग्य पदार्थों को (अभि अमुञ्चत् ) प्रदान करे । इत्यष्टाविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, १४, १६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ९ निचृत् विष्टुप् । ३, ४, ६, ८, १०, १२ पंक्तिः । ५, १५ विराट पंक्तिः । ११ भुरिक् पंक्ति: । १३ निचृतपंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः सचेता इन्द्रःअस्य एव शवसा वज्रेण शुषन्तं वृत्रं वि वृश्चत् विछिनत्ति स गा न गोपालः बन्धनाम् मोचयित्वा वनं गमयति इव अवनीः व्राणा दावने श्रव इत् अपि व्राणा अपः वा अभि अमुञ्चत् आभिमुख्येन मुञ्चति स राज्यं कर्तुम् अर्हति ॥ १० ॥

    पदार्थ

    (यः)=जो, (सचेताः) समानं चेतो विज्ञानं संज्ञापनं वा यस्य सः=विशेष ज्ञान करानेवाला, (इन्द्रः) सेनाधिपतिस्तनयित्नुर्वा= गर्जना करनेवाला सेनाध्यक्ष के, अथवा, (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य=सभा आदि के अध्यक्ष के, (एव) अवधारणे=ही, (शवसा) बलेन=बल से, (वज्रेण) शस्त्रसमूहेन तेजोवेगेन वा=शत्रुओं के समूह के तेज की तीव्रता से, (शुषन्तम्) द्वेषेण प्रतापेन क्षीणम्=द्वेषों को प्रताप से क्षीण करते हुए, (वृत्रम्) मेघमिव न्यायावरकं शत्रुं=बादल के समान न्याय को दबा देनेवाले शत्रु को, (वि) विविधार्थे=विविध प्रकार से, (वृश्चत्) छिनत्ति=छिन्न-भिन्न करता है, (सः)=वह, (गाः) पशून्=पशुओं के, (न) इव=समान, (गोपालः)=गायों के रक्षक, (बन्धनाम्)=बन्धनों को, (मोचयित्वा) =छुड़ा करके, (वनम्) =वन को, (गमयति)=ले जाने के, (इव)= समान, (अवनीः) पृथिवीं प्रति= पृथिवी की ओर, (व्राणा) आवृताः = घिरे हुए, (दावने) दात्रे= दान देनेवाले में, (श्रवः) श्रवणमन्नं वा=सुनने या अन्न आदि, (इत्) अपि=भी, (व्राणाः) आवृताः= घिरे हुए, (अपः) =जल, (वा)=और, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (अमुञ्चत्) मुञ्चति= छोड़ता है।, (सः)= वह, (राज्यम्)= राज्य में शासन, (कर्तुम्)=करने के, (अर्हति)=योग्य होता है ॥ १० ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जैसे बिजली की सहायता से सूर्य और सूर्य की सहायता से बिजली बढ़कर के विश्व को प्रकाशित करती है और बादल को छिन्न-भिन्न करके भूमि में गिरा देती है। जैसे गौओं का पालनेवाला गौऔं को बन्धन से छुड़ाकर सुखी करता है, वैसे ही सभा के सदस्य और सेना के सैनिक न्याय की रक्षा करके और शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके धार्मिक लोगों को दुःखरूपी बन्धनों से मुक्त करके सुखी करें ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (सचेताः) विशेष ज्ञान करानेवाला, (इन्द्रः) गर्जना करनेवाला सेनाध्यक्ष के, अथवा (अस्य) सभा आदि के अध्यक्ष के (एव) ही (शवसा) बल से और (वज्रेण) शत्रुओं के समूह के तेज की तीव्रता से (शुषन्तम्) द्वेषों को प्रताप से क्षीण करते हुए, (वृत्रम्) बादल के समान न्याय को दबा देनेवाले शत्रु को, (वि) विविध प्रकार से (वृश्चत्) छिन्न-भिन्न करता है। (सः) वह (गाः) पशुओं को (न) जैसे (गोपालः) गायों के रक्षक (बन्धनाम्) बन्धनों को (मोचयित्वा) छुड़ा करके, (वनम्) वन को (गमयति) ले जाने के (इव) समान, (अवनीः) पृथिवी की ओर (व्राणा) घिरे हुए [बादल] और (दावने) देनेवाले में, (श्रवः) सुनने या अन्न आदि में (इत्) भी (व्राणाः) घिरे हुए [बादल] से (अपः) जल (अभि) सामने से (अमुञ्चत्) छोड़ता है। (सः) वह (राज्यम्) राज्य पर शासन (कर्तुम्) करने के (अर्हति) योग्य होता है॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (इत्) अपि (एव) अवधारणे (शवसा) बलेन (शुषन्तम्) द्वेषेण प्रतापेन क्षीणम् (वि) विविधार्थे (वृश्चत्) छिनत्ति (वज्रेण) शस्त्रसमूहेन तेजोवेगेन वा (वृत्रम्) मेघमिव न्यायावरकं शत्रुं (इन्द्रः) सेनाधिपतिस्तनयित्नुर्वा (गाः) पशून् (न) इव (व्राणाः) आवृताः (अवनीः) पृथिवीं प्रति (अमुञ्चत्) मुञ्चति (अभि) आभिमुख्ये (श्रवः) श्रवणमन्नं वा (दावने) दात्रे (सचेताः) समानं चेतो विज्ञानं संज्ञापनं वा यस्य सः ॥ १० ॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यः सचेता इन्द्रोऽस्यैव शवसा वज्रेण शुषन्तं वृत्रं विवृश्चद्विछिनत्ति स गा न गोपालो बन्धनान्मोचयित्वा वनं गमयतीवावनीः व्राणा दावने श्रव इदपि व्राणा अपो वाभ्यमुञ्चदाभिमुख्येन मुञ्चति स राज्यं कर्तुमर्हति ॥ १० ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। यथा विद्युत्सहायेन सूर्यः सूर्यस्य सहायेन विद्युच्च प्रवृध्य विश्वं प्रकाश्य मेघं विच्छिद्य भूमौ निपातयति यथा गोपालो बन्धनादु गा विमुच्य सुखयति तथैव सभासदः सेनासदश्च न्यायं संरक्ष्य शत्रूंश्च छिन्नं भिन्नं कृत्वा धार्मिकान् दुःखबन्धनाद्विमोच्य सुखेयत् ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जसे विद्युतच्या साह्याने सूर्य, सूर्याच्या साह्याने विद्युत वर्धित होऊन विश्वाला प्रकाशित करते व मेघाला छिन्नविछिन्न करून भूमीवर पाडते. जसा गोपाळ गाईंना बंधनातून मुक्त करून सुखी करतो. तसेच सभेच्या सेनाध्यक्षाने न्यायाने रक्षण करून शत्रूंना विदीर्ण करावे व धार्मिकांना दुःखबंधनातून सोडवून सुखी करावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord of power and law, with the strength and rectitude of this Indra, the universal force of Divinity uproots the exploitative forces, just as the sun breaks down the cloud which holds up the rain and scorches the earth. And just as held up cows are released from the stalls, so the ruler releases the streams of life on the earth, enlightened hero as he is, who releases food and justice for the powers of generosity.

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    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ) =that, (sacetāḥ) =having special knowledge, (indraḥ)=roaring commander, or (asya) =of Pesident of the assembly etc., (eva) =only, (śavasā) =by power and, (vajreṇa) =with the intensity of the brilliance of the enemy group, (śuṣantam)=by subduing hatred with majesty, (vṛtram)=to the enemy who suppresses justice like a cloud, (vi) =in a variety of ways, (vṛścat) =disintegrates, (saḥ) =that, (gāḥ) =to animals, (na) =like, (gopālaḥ) =protectors of cows, (bandhanām)=to the bonds, (mocayitvā)=after freeing, (vanam) =to the forest, (gamayati) =for taking away, (iva) =like, (avanīḥ) =towards earth, (vrāṇā) =covered, [bādala]=clouds [aura]=and, (dāvane) =in provider, (śravaḥ)= in hearing or food etc., (it) =also, (vrāṇāḥ) =covered, [bādala]=from cloud, (apaḥ) =water, (abhi) =from front, (amuñcat) =releases, (saḥ) =that, (rājyam) =on the state, =rule, (kartum) =of doing, (arhati) =is capable of.

    English Translation (K.K.V.)

    The one, who gives special knowledge, roars, with the power of the commander of the army, or the President of the Assembly etc. and with the intensity of the brilliancy of the group of enemies, who with majesty destroys the malice and suppresses justice like a cloud, disintegrates the enemy in various ways. Like the animals being freed from their protective bonds, he releases water from the front of the cloud, which surrounds the earth, and also the one who gives, hears or eats food etc., just like taking away the forest. He is capable of ruling the state.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are paronomasia and simile as figurative in this mantra. As, with the help of lightning, the Sun rises and with the help of the Sun, lightning illuminates the world and disintegrates the clouds and makes them fall to the ground. Just as a herder of cows makes the cows happy by freeing them from bondage, similarly the members of the Assembly and the soldiers of the army should make the righteous people happy by freeing them from the bonds of sorrow by protecting justice and disintegrating the enemies.

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