ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 61/ मन्त्र 3
अ॒स्मा इदु॒ त्यमु॑प॒मं स्व॒र्षां भरा॑म्याङ्गू॒षमा॒स्ये॑न। मंहि॑ष्ठ॒मच्छो॑क्तिभिर्मती॒नां सु॑वृ॒क्तिभिः॑ सू॒रिं वा॑वृ॒धध्यै॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊँ॒ इति॑ । त्यम् । उ॒प॒ऽमम् । स्वः॒ऽसाम् । भरा॑मि । आ॒ङ्गू॒षम् । आ॒स्ये॑न । मंहि॑ष्ठम् । अच्छो॑क्तिऽभिः । म॒ती॒नाम् । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । सू॒रिम् । व॒वृ॒धध्यै॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु त्यमुपमं स्वर्षां भराम्याङ्गूषमास्येन। मंहिष्ठमच्छोक्तिभिर्मतीनां सुवृक्तिभिः सूरिं वावृधध्यै ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै। इत्। ऊँ इति। त्यम्। उपऽमम्। स्वःऽसाम्। भरामि। आङ्गूषम्। आस्येन। मंहिष्ठम्। अच्छोक्तिऽभिः। मतीनाम्। सुवृक्तिऽभिः। सूरिम्। ववृधध्यै ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 61; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथाऽहमस्मा आस्येन मतीनां वावृधध्यै सुवृक्तिभिरच्छोक्तिभिः स्तुतिभिरिदुत्यमुपमं स्वर्षामाङ्गूषं मंहिष्ठं सूरिं भरामि तथैव यूयमपि भरत ॥ ३ ॥
पदार्थः
(अस्मै) सभाध्यक्षाय (इत्) अपि (उ) वितर्के (त्यम्) तम् ( उपमम्) दृष्टान्तस्वरूपम् (स्वर्षाम्) सुखप्रापकम् (भरामि) धरामि (आङ्गूषम्) स्तुतिप्राप्तम् (आस्येन) मुखेन (मंहिष्ठम्) अतिशयेन मंहिता वृद्धस्तम् (अच्छोक्तिभिः) अच्छ श्रेष्ठा उक्तयो वचनानि यासु स्तुतिषु ताभिः (मतीनाम्) मननशीलानां मनुष्याणाम् (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु व्रजन्ति गच्छन्ति याभिस्ताभिः (सूरिम्) शास्त्रविदम् (वावृधध्यै) पुनः पुनर्वर्धितुम् ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वद्भिर्मनुष्याणां सुखाय सर्वथोत्कृष्टोऽनुपमो यत्नः क्रियते, तथैतेषां सत्काराय मनुष्यैरपि प्रयतितव्यम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे मैं (अस्मै) इस सभाध्यक्ष के लिये (मतीनाम्) मनुष्यों के (वावृधध्यै) अत्यन्त बढ़ाने को (आस्येन) सुख से (सुवृक्तिभिः) जिन में अच्छे प्रकार अधर्म और अविद्या को छोड़ सकें (अच्छोक्तिभिः) श्रेष्ठ वचन स्तुतियों से (इत्) भी (उ) (त्यम्) उसी (उपमम्) उपमा करने योग्य (स्वर्षाम्) सुखों को प्राप्त कराने (आङ्गूषम्) स्तुति को प्राप्त किये हुए (मंहिष्ठम्) अतिशय करके विद्या से वृद्ध (सूरिम्) शास्त्रों को जाननेवाले विद्वान् को (भरामि) धारण करता हूँ, वैसे तुम लोग भी किया करो ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों से मनुष्यों के लिये सब से उत्तम उपमारहित यत्न किया जाता है, वैसे इन के सत्कार के वास्ते सब मनुष्य भी प्रयत्न किया करें ॥ ३ ॥
विषय
उपम - स्वर्षा - आंगूष
पदार्थ
१.(अस्मै इत् उ) = इस प्रभु के लिए ही (त्यम्) = उस (उपमम्) = [उपमीयते अनेन] समीपता से मापन करनेवाले, [हमारे किसी भी स्तोत्र से प्रभु का पूर्ण वर्णन नहीं हो सकता, प्रभु शब्दातीत हैं, हमारी वाणी उनके समीप तक पहुँच सकती है, उन तक नहीं] उस प्रभु के गुणों का अधिक - से - अधिक प्रतिपादन करनेवाले (स्वर्षाम्) = [स्वः सनोति] प्रकाश व सुख देनेवाले [प्रभु का गुणगान हमारे जीवन में ज्योति दिखानेवाला और हमारे जीवनों को सुखी बनानेवाला है], (आंगूषम्) = स्तोत्र को (आस्येन) = मुख से (भरामि) = करता हूँ । (मतीनां अच्छोक्तिभिः) = ज्ञानपूर्वक की गई स्तुतियों के उत्तम वचनों से, बनावट से रहित वचनों से तथा (सुवृक्तिभिः) = अशुभ के सम्यक् परित्यागों से (मंहिष्ठम्) = उस दातृतम - महान् दाता (सूरिम्) = विपश्चित् - ज्ञानी व हृदयस्थ होकर प्रेरणा देनेवाले प्रभु को (वावृधध्यै) = बढ़ाने के लिए होता हूँ । मैं प्रयत्न करता हूँ कि मुझमें प्रभु की दिव्यभावानाओं का वर्धन हो । इसी उद्देश्य से मैं प्रभु का स्तवन करता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की प्राप्ति के लिए स्तवन, उत्तम वचन व पापवर्जन साधन बनते हैं ।
विषय
राजा के गुणों का वर्णन ।
भावार्थ
(अस्मै इत् उ) इस राजा सभाध्यक्ष के उतम पद के लिये ही मैं ( त्यम् ) उस ( उपमम् ) सर्वोपमायोग्य, (स्वर्षाम्) सुख और ज्ञानोपदेश के देने वाले, (आंगूषम्) उत्तम वचन के बोलने वाले (मंहिष्ठम्) अति पूजनीय, (सूरिम्) विद्वान् शास्त्रवेत्ता पुरुष को (आस्येन) मुख से (सुवृक्तिभिः) उत्तम रूप से अज्ञानों को दूर हटा देने वाली (अच्छोक्तिभिः) उत्तम उक्तियों द्वारा (मतीनाम् ) मननशील पुरुषों को और अपनी बुद्धियों की भी (वावृधध्यै) बढ़ोतरी के लिए ( प्र भरामि) प्राप्त करूं । उसको भरण पोषण करूं। परमेश्वर के पक्ष में—(अस्मै इत् उ) परमेश्वर की प्राप्ति और ज्ञान के लिए और (मतीनां वावृधध्यै) ज्ञानों की वृद्धि के लिए (आस्येन अच्छोक्तिभिः सुवृक्तिभिः) मुख से अज्ञान नाशक वचनों द्वारा (स्वर्षाम्) उत्तम सुख ज्ञान प्रकाश के देने वाले ( आंगूषम् ) उत्तम उपदेशक, ( मंहिष्ठम् ) श्रेष्ठ, दानशील ( सूरिम् ) उत्तम शास्त्रज्ञ पुरुष को ( प्र भरामि) धारण करूँ, प्राप्त करूं,उसके पास जाऊं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, १४, १६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ९ निचृत् विष्टुप् । ३, ४, ६, ८, १०, १२ पंक्तिः । ५, १५ विराट पंक्तिः । ११ भुरिक् पंक्ति: । १३ निचृतपंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह सभा का अध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यथा अहम् अस्मै आस्येन मतीनां वावृधध्यै सुवृक्तिभिः अच्छोक्तिभिः स्तुतिभिः इत् उ त्यम् उपमं स्वर्षाम् आङ्गूषं मंहिष्ठं सूरिं भरामि तथा एव यूयम् अपि भरत ॥३॥
पदार्थ
हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यथा)=जैसे, (अहम्) =मैं. (अस्मै) सभाध्यक्षाय=सभाध्यक्ष के लिये, (आस्येन) मुखेन= मुख से, (मतीनाम्) मननशीलानां मनुष्याणाम्= मननशील मनुष्यों के, (वावृधध्यै) पुनः पुनर्वर्धितुम्= बार-बार बढ़ाने के लिये, (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु व्रजन्ति गच्छन्ति याभिस्ताभिः=उत्तम रूप से जानेवाले, (अच्छोक्तिभिः) अच्छ श्रेष्ठा उक्तयो वचनानि यासु स्तुतिषु ताभिः= श्रेष्ठ वाणियों वाली स्तुतियों से, (इत्) अपि=भी, (उ) वितर्के=अथवा, (त्यम्) तम्=उस, (उपमम्) दृष्टान्तस्वरूपम्= दृष्टान्त स्वरूप, (स्वर्षाम्) सुखप्रापकम्=सुख प्राप्त करानेवाले को, (आङ्गूषम्) स्तुतिप्राप्तम्= स्तुतियों की प्राप्ति वाले को, (मंहिष्ठम्) अतिशयेन मंहिता वृद्धस्तम्= जिसकी अतिशय वृद्ध है, उस, (सूरिम्) शास्त्रविदम्= शास्त्रों के ज्ञाता को, (भरामि) धरामि=रखता हूँ, (तथा) =वैसे, (एव) =ही, (यूयम्) =तुम सब, (अपि)=भी, (भरत)=रखो॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों के द्वारा मनुष्यों के सुख के लिये अनुपम यत्न किया जाता है, वैसे ही इन के सत्कार के लिये सब मनुष्यों को भी प्रयत्न किया करना चाहिए ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जैसे, (अहम्) मैं (अस्मै) सभाध्यक्ष के लिये (आस्येन) मुख में, (मतीनाम्) मननशील मनुष्यों को (वावृधध्यै) बार-बार बढ़ाने के लिये, (सुवृक्तिभिः) उत्तम रूप से जानेवाली (अच्छोक्तिभिः) श्रेष्ठ वाणियों की स्तुतियों से (इत्) भी, (उ) अथवा (त्यम्) उस (उपमम्) दृष्टान्त स्वरूप (स्वर्षाम्) सुख प्राप्त और (आङ्गूषम्) स्तुतियों की प्राप्ति करनेवाले को, (मंहिष्ठम्) जिसकी अतिशय वृद्धि है, उस (सूरिम्) शास्त्रों के ज्ञाता को (भरामि) [मुख में] रखता हूँ, [अर्थात् उससे प्राप्त ज्ञान को मुख में रखता हूँ ], भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वद्भिर्मनुष्याणां सुखाय सर्वथोत्कृष्टोऽनुपमो यत्नः क्रियते, तथैतेषां सत्काराय मनुष्यैरपि प्रयतितव्यम् ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्मै) सभाध्यक्षाय (इत्) अपि (उ) वितर्के (त्यम्) तम् ( उपमम्) दृष्टान्तस्वरूपम् (स्वर्षाम्) सुखप्रापकम् (भरामि) धरामि (आङ्गूषम्) स्तुतिप्राप्तम् (आस्येन) मुखेन (मंहिष्ठम्) अतिशयेन मंहिता वृद्धस्तम् (अच्छोक्तिभिः) अच्छ श्रेष्ठा उक्तयो वचनानि यासु स्तुतिषु ताभिः (मतीनाम्) मननशीलानां मनुष्याणाम् (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु व्रजन्ति गच्छन्ति याभिस्ताभिः (सूरिम्) शास्त्रविदम् (वावृधध्यै) पुनः पुनर्वर्धितुम् ॥३॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यथाऽहमस्मा आस्येन मतीनां वावृधध्यै सुवृक्तिभिरच्छोक्तिभिः स्तुतिभिरिदुत्यमुपमं स्वर्षामाङ्गूषं मंहिष्ठं सूरिं भरामि तथैव यूयमपि भरत ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा विद्वानांकडून माणसांच्या सुखासाठी उत्कृष्ट, अनुपम यत्न केला जातो. तसा त्यांच्या सत्कारासाठीही सर्व माणसांनी प्रयत्न करावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
For the sake of the advancement of Agni, the ruler, and of the people of knowledge and wisdom, I speak noble and powerfully persuasive words in support of this exemplary, generous, revered and magnanimous hero, a great man of wisdom and piety of conduct.
Subject of the mantra
Then what kind of the Speaker of the Assembly should he be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =like, (aham) =I, (asmai) = for the Speaker of the Assembly, (āsyena) =in mouth, (matīnām) =to thoughtful people, (vāvṛdhadhyai) =to increase again and again, (suvṛktibhiḥ) =going in best way, (acchoktibhiḥ)=with the praises of the best voices, (it) =also, (u) =or,(tyam) =that, (upamam)=illustrative form, (svarṣām) =attaining happiness and, (āṅgūṣam)=to the one who receives praises, (maṃhiṣṭham)= the one who has excessive growth, that, (sūrim)= to the expert in the scriptures, (bharāmi)=place, [mukha meṃ] =in mouth, (tathā) =similarly, (eva) =only,(yūyam) =all of you, (api) =also, (bharata) =place.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Like, I, for the Speaker of the Assembly, in order to increase the contemplative people again and again, with the praises of the best spoken words, or to the example of the one who enjoys happiness and receives praises, whose augmentation is immense, those scriptures. I place the expert of those scriptures in my mouth, you all should also place it in the same way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as scholars make immense efforts for the happiness of human beings, in the same way all human beings should also make efforts for their respect.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Indra) is taught further in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As I offer with my mouth a loud exclamation, with powerful and pure words of praise, to exalt him who is the ideal of all, the giver of good things, the great, the wise knower of the Shastras, (Indra) President of the Assembly, in the same way you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( स्वर्षाम् ) सुखप्रापकम् = The conveyor of happiness. (सूरिम् ) शास्त्रविदुषम् = The knower of the Shastras.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As learned people try their best to bring about the welfare of men, in the same manner, men should also endeavor to honor them.
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