Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 61 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 61/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒स्मा इदु॒ सप्ति॑मिव श्रव॒स्येन्द्रा॑या॒र्कं जु॒ह्वा॒३॒॑ सम॑ञ्जे। वी॒रं दा॒नौक॑सं व॒न्दध्यै॑ पु॒रां गू॒र्तश्र॑वसं द॒र्माण॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । इत् । ऊँ॒ इति॑ । सप्ति॑म्ऽइव । श्र॒व॒स्या । इन्द्रा॑य । अ॒र्कम् । जु॒ह्वा॑ । सम् । अ॒ञ्जे॒ । वी॒रम् । दा॒नऽओ॑कसम् । व॒न्दध्यै॑ । पु॒राम् । गू॒र्तऽश्र॑वसम् । द॒र्माण॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा इदु सप्तिमिव श्रवस्येन्द्रायार्कं जुह्वा३ समञ्जे। वीरं दानौकसं वन्दध्यै पुरां गूर्तश्रवसं दर्माणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै। इत्। ऊँ इति। सप्तिम्ऽइव। श्रवस्या। इन्द्राय। अर्कम्। जुह्वा। सम्। अञ्जे। वीरम्। दानऽओकसम्। वन्दध्यै। पुराम्। गूर्तऽश्रवसम्। दर्माणम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 61; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथाऽहं श्रवस्या जुह्वा स्मा इन्द्रायेदु वन्दध्यै सप्तिमिव गूर्त्तश्रवसं पुरां दर्माणं दानौकसमर्कं वीरमित् समञ्जे सम्यक्कामये तथा तं यूयमपि कामयध्वम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (अस्मै) सभ्याय विदुषे (इत्) एव (उ) वितर्के (सप्तिमिव) यथा वेगवानश्वः (श्रवस्या) आत्मनः श्रवणेच्छया (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (अर्कम्) अर्च्यन्ते येन तम् (जुह्वा) जुहोति गृह्णाति ददाति वा यया तया (सम्) सम्यगर्थे (अञ्जे) कामये। अत्र विकरणलुक् व्यत्ययेन आत्मनेपदं च। (वीरम्) विद्याशौर्यगुणयुक्तम् (दानौकसम्) दानमोकश्च यस्य तम् (वन्दध्यै) अभिवन्दितुं स्तोतुम् (पुराम्) शत्रुनगराणाम् (गूर्त्तश्रवसम्) गूर्त्तं निगलितं श्रवः शास्त्रश्रवणं येन तम् (दर्माणम्) विदारयितारम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्या रथेऽश्वान् योजयित्वा तदुपरि स्थित्वा गमनाऽऽगमनाभ्यां कार्याणि साध्नुवन्ति तथा वर्त्तमानैर्विद्वद्भिर्वीरैः सह सङ्गत्य सर्वाणि कार्याणि मनुष्यैः साधनीयानि ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे मैं (श्रवस्या) अपने करने की इच्छा (जुह्वा) विद्याओं के लेने-देनेवाली क्रियाओं से (अस्मै) इस (इन्द्राय) परमैश्वर्य प्राप्त करनेवाले (इत्) सभाध्यक्ष का ही (उ) विशेष तर्क के साथ (वन्दध्यै) स्तुति कराने के लिये (सप्तिमिव) वेगवाले घोड़े के समान (गूर्त्तश्रवसम्) जिसने सब शास्त्रों के श्रवणों को ग्रहण किया है (पुराम्) शत्रुओं के नगरों के (दर्माणम्) विदारण करने वा (दानौकसम्) दान वा स्थानयुक्त (अर्कम्) सत्कार के हेतु (वीरम्) विद्या शौर्यादि गुणयुक्त वीर (इत्) ही को (समञ्जे) अच्छे प्रकार कामना करता हूँ, वैसी तुम भी कामना किया करो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग रथ में घोड़े को जोड़ उस के ऊपर स्थित होकर जाने-आने से कार्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे वर्त्तमान विद्वान् वीर पुरुषों के सङ्ग से सब कार्यों को मनुष्य लोग सिद्ध करें ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वाणी के साथ स्तोत्रों का वर्गीकरण

    पदार्थ

    १. (अस्मै इन्द्राय इत् उ) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए ही (श्रवस्या) = ज्ञान व यश की प्राप्ति के हेतु से (अर्कम्) = स्तोत्र को (जुह्वा) = आह्वान - साधन वागिन्द्रिय से (समञ्जे) = समक्त करता हूँ - मिला देता हूँ उसी प्रकार मिला देता हूँ (इव) = जैसे (श्रवस्या) = अन्न - प्राप्ति की कामना से जानेवाला (सप्तिम्) = घोड़े को रथ में जोड़ता है । मेरी वाणी प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करती है, मेरी वाणी के साथ स्तोत्रों का एकीकरण हो जाता है । मैं सदा स्तोत्रों का जाप करता हूँ और मेरा जीवन ज्ञान व यश से पूर्ण हो जाता है । इस प्रकार वाणी से स्तोत्रों को युक्त करके मैं उस प्रभु के (वंदध्यै) = वन्दन के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ जो प्रभु (वीरम्) = वीर हैं, हमारे शत्रुओं का नाश करने में कुशल हैं, (दानौकसम्) = दान के तो घर ही हैं, हमें सब - कुछ देनेवाले हैं, (गूर्तश्रवसम्) = अत्यन्त उत्कृष्ट ज्ञानवाले हैं और (पुराम्) = असुरों की तीन पुरियों के (दर्माणम्) = विदारण करनेवाले हैं । प्रभु - स्तवन से काम, क्रोध व लोभ ने जो इन्द्रियों, मन व बुद्धि में अपने किले बनाये हैं, उनका भंग हो जाता है, इसलिए प्रभु को त्रिपुरारि कहा जाता है । इन असुरों के दुर्गों का भंग करके प्रभु हमारे इन मृत शरीरों का ही विदारण कर देते हैं । हमें फिर इन शरीरों के लेने की आवश्यकता नहीं रह जाती ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - स्तवन हमारे जीवन को ज्ञानयुक्त व यशस्वी बनाता है । वे प्रभु अन्ततः हमें इस शरीर - बन्धन से ऊपर उठाते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा के गुणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (सप्तिम् इव) रथ के संचालन के लिए जिस प्रकार वेगवान् घोड़े को लगाया जाता है उसी प्रकार (अस्मै) इस (इन्द्राय एत् उ) परम ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, राष्ट्र के पालक, या सेनापत्य पद को अच्छी प्रकार संचालन करने के लिए (जुह्वा) अपनी वाणी या आज्ञा से (अर्कं) स्तुति योग्य अथवा (अर्कं) सूर्य के समान तेजस्वी ( वीरम् ) शत्रुओं को उखाड़ देने में समर्थ, वीर्यवान्, सामर्थ्यवान् ( दानौकसम् ) दान देने योग्य ऐश्वर्यों के एकमात्र आश्रय स्थान ( गूर्तश्रवम् ) गुरु के श्रवण करने योग्य ज्ञान को धारण करने वाले अथवा अन्यों के प्रति उपदेश करनेवाले, या यशस्वी, (पुरां) शत्रुओं के प्रकोटों और मोर्चों, नगरों और दुर्गों के ( दर्माणम् ) तोड़ने हारे पुरुष को (वन्दध्यै) प्रस्तुत करने के लिये (श्रवस्था) अन्न और ऐश्वर्य की वृद्धि कामना से (सम् अंजे) मैं सबके सामने प्रकट करूं । और उसे मुख्य पद पर स्थापित करूं । परमेश्वर के पक्ष में—सर्वशक्तिमान्, ज्ञानों का एकाश्रय, ज्ञानोपदेशों का परम गुरु और देहबन्धनों का तोड़ने हारा है। ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से उसकी स्तुति के लिए (जुह्वा अर्कं समंजे) वाणी से स्तुति का प्रकाश करूं । इति सप्तविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, १४, १६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ९ निचृत् विष्टुप् । ३, ४, ६, ८, १०, १२ पंक्तिः । ५, १५ विराट पंक्तिः । ११ भुरिक् पंक्ति: । १३ निचृतपंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा अहं श्रवस्या जुह्वा अस्मै इन्द्राय इत् उ वन्दध्यै सप्तिमिव गूर्त्तश्रवसं पुरां दर्माणं दानौकसम् अर्कं वीरम् इत् समञ्जे सम्यक् कामये तथा तं यूयम् अपि कामयध्वम् ॥५॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यथा)=जैसे, (अहम्)=मैं, (श्रवस्या) आत्मनः श्रवणेच्छया=अपनी सुनने की इच्छा से,(जुह्वा) जुहोति गृह्णाति ददाति वा यया तया= यज्ञ करता है या [आहुतियों का] आदान प्रदान करता है, (अस्मै) सभ्याय विदुषे=सभा के विद्वान् में, (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय=परमेश्वर को प्राप्त करानेवाले के लिये, (इत्) एव=ही, (उ) वितर्के=अथवा, (वन्दध्यै) अभिवन्दितुं स्तोतुम्=स्तुति करनेवाले को, (सप्तिमिव) यथा वेगवानश्वः= वेगवाले अश्व के समान, (गूर्त्तश्रवसम्) गूर्त्तं निगलितं श्रवः शास्त्रश्रवणं येन तम्=शास्त्रों का अतिशय श्रवण करनेवाले, (पुराम्) शत्रुनगराणाम्= शत्रुओं के नगरों को, (दर्माणम्) विदारयितारम् =तोड़-फोड़ देनेवाले, (दानौकसम्) दानमोकश्च यस्य तम्= दान का आश्रय लेनेवाले की, (अर्कम्) अर्च्यन्ते येन तम्= जिससे अर्चना करते हैं, (वीरम्) विद्याशौर्यगुणयुक्तम्=उस विद्या और शौर्य के गुणों से युक्त की, (इत्) एव=ही, (सम्) सम्यगर्थे=पूर्ण रूप से, (अञ्जे) कामये=कामना करें, (तथा)=वैसे ही, (तम्)=उसकी, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (कामयध्वम्)= कामना करो ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य रथ में घोड़ों को जोड़कर उस के ऊपर स्थित होकर जाने-आने से कार्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही मनुष्यों को वर्त्तमान विद्वान् वीर पुरुषों की सङ्गति से सब कार्यों को सिद्ध करना चाहिए ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जैसे, (अहम्) मैं (श्रवस्या) अपनी सुनने की इच्छा से (जुह्वा) यज्ञ करनेवाले या [आहुतियों के] आदान प्रदान करनेवाले (अस्मै) सभा के विद्वान् में, (इन्द्राय) परमेश्वर को प्राप्त करानेवाले के लिये (इत्) ही, (उ) अथवा (वन्दध्यै) स्तुति करनेवाले के लिये, (सप्तिमिव) वेगवाले अश्व के समान (गूर्त्तश्रवसम्) शास्त्रों का अतिशय श्रवण करनेवाले, (पुराम्) शत्रुओं के नगरों को (दर्माणम्) तोड़-फोड़ देनेवाले और (दानौकसम्) दान का आश्रय लेनेवाले की (अर्कम्) जिससे अर्चना करते हैं। (वीरम्) उस विद्या और शौर्य के गुणों से युक्त की (इत्) ही (सम्) पूर्ण रूप से (अञ्जे) कामना करें। (तथा) वैसे ही (तम्) उसकी, (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (कामयध्वम्) कामना करो ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्मै) सभ्याय विदुषे (इत्) एव (उ) वितर्के (सप्तिमिव) यथा वेगवानश्वः (श्रवस्या) आत्मनः श्रवणेच्छया (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (अर्कम्) अर्च्यन्ते येन तम् (जुह्वा) जुहोति गृह्णाति ददाति वा यया तया (सम्) सम्यगर्थे (अञ्जे) कामये। अत्र विकरणलुक् व्यत्ययेन आत्मनेपदं च। (वीरम्) विद्याशौर्यगुणयुक्तम् (दानौकसम्) दानमोकश्च यस्य तम् (वन्दध्यै) अभिवन्दितुं स्तोतुम् (पुराम्) शत्रुनगराणाम् (गूर्त्तश्रवसम्) गूर्त्तं निगलितं श्रवः शास्त्रश्रवणं येन तम् (दर्माणम्) विदारयितारम् ॥५॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यथाऽहं श्रवस्या जुह्वास्मा इन्द्रायेदु वन्दध्यै सप्तिमिव गूर्त्तश्रवसं पुरां दर्माणं दानौकसमर्कं वीरमित् समञ्जे सम्यक्कामये तथा तं यूयमपि कामयध्वम् ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्या रथेऽश्वान् योजयित्वा तदुपरि स्थित्वा गमनाऽऽगमनाभ्यां कार्याणि साध्नुवन्ति तथा वर्त्तमानैर्विद्वद्भिर्वीरैः सह सङ्गत्य सर्वाणि कार्याणि मनुष्यैः साधनीयानि ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माणसे रथांना घोडे जुंपून त्यात बसून जाण्या-येण्याचे कार्य करतात तसे विद्यमान विद्वान वीर पुरुषांच्या संगतीने सर्व कार्य माणसांनी सिद्ध करावे. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Meaning

    As a driver yokes the horse to the master’s chariot to drive him on, so, in honour of Indra and in order to celebrate and exalt him, the brave hero as he is, treasure home of charity and destroyer of enemy strongholds, whose fame rings far and wide, I compose a song in my own words and offer it as a libation to him with my own ladle in homage.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =like, (aham) =I, (śravasyā)=with own desire to listen, (juhvā)+[āhutiyoṃ ke]= those who perform sacrifices or exchange offerings, (asmai) =in the scholar of gathering, (indrāya)= for the one who attains God, (it) =only, (u) =or, (vandadhyai) =for the one who praises, (saptimiva)=like a swift horse, (gūrttaśravasam)=those who listen to the scriptures a lot, (purām)=to enemy cities, (darmāṇam)=saboteurs and, (dānaukasam)= one who takes refuge in charity, (arkam)=with which we worship, (vīram)=of that person endowed with the qualities of knowledge and bravery, (it) =only, (sam) =absolutely (añje) =wish for, (tathā) =in the same way, (tam) =of that, (yūyam) =all of you, (api) =also, (kāmayadhvam) =desire.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! As, I wish to listen to the one who performs Yajna or the one who exchanges offerings in the gathering of yajna, the one who helps in attaining God, or the one who praises Him, who listens to the scriptures intensely like a swift horse, who destroys the cities of the enemies. The one, who destroys and takes refuge in the charity, whom we worship. We should wish only for someone with the qualities of knowledge and bravery. In the same way, you all desire Him.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as people attach horses to a chariot and accomplish their tasks by sitting on top of it and going and coming, similarly people should accomplish all their tasks by the company of the present learned and brave men.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, as I desiring good reputation with charity and other acts, combine praise with truthful utterance, as a man harnesses a horse to a car, in order to celebrate or glorify Indra (the President of the Assembly ) etc. who is heroic, munificent or liberal donor, highly learned in Shastras and destroyer of the cities of the wicked, in the same manner, you should also desire him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (आंजे) कामये = desire. ( अंजू-व्यक्तिम्रक्षरण कान्तिगतिषु ) here the meaning of कान्ति-कामन। or desire has been taken Tr. [गूर्तश्रवसम्] गूर्त निगलितं श्रवः शास्त्रश्रवणं येन = He who has studied the Shastras well.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men accomplish their works by harnessing speedy horses in the chariots and going to distant places to achieve their objects, in the same manner, men should accomplish all their purposes by associating themselves with highly learned and brave persons.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Subject of the mantra- Then how is he, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =like, (aham) =I, (śravasyā)=with own desire to listen, (juhvā)+[āhutiyoṃ ke]= those who perform sacrifices or exchange offerings, (asmai) =in the scholar of gathering, (indrāya)= for the one who attains God, (it) =only, (u) =or, (vandadhyai) =for the one who praises, (saptimiva)=like a swift horse, (gūrttaśravasam)=those who listen to the scriptures a lot, (purām)=to enemy cities, (darmāṇam)=saboteurs and, (dānaukasam)= one who takes refuge in charity, (arkam)=with which we worship, (vīram)=of that person endowed with the qualities of knowledge and bravery, (it) =only, (sam) =absolutely (añje) =wish for, (tathā) =in the same way, (tam) =of that, (yūyam) =all of you, (api) =also, (kāmayadhvam) =desire.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! As, I wish to listen to the one who performs Yajna or the one who exchanges offerings in the gathering of yajna, the one who helps in attaining God, or the one who praises Him, who listens to the scriptures intensely like a swift horse, who destroys the cities of the enemies. The one, who destroys and takes refuge in the charity, whom we worship. We should wish only for someone with the qualities of knowledge and bravery. In the same way, you all desire Him.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as people attach horses to a chariot and accomplish their tasks by sitting on top of it and going and coming, similarly people should accomplish all their tasks by the company of the present learned and brave men.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top