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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 62/ मन्त्र 8
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगार्षीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स॒नाद्दिवं॒ परि॒ भूमा॒ विरू॑पे पुन॒र्भुवा॑ युव॒ती स्वेभि॒रेवैः॑। कृ॒ष्णेभि॑र॒क्तोषा रुश॑द्भि॒र्वपु॑र्भि॒रा च॑रतो अ॒न्यान्या॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒नात् । दिव॑म् । परि॑ । भूम॑ । विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे । पु॒नः॒ऽभुवा॑ । यु॒व॒ती इति॑ । स्वेभिः॑ । एवैः॑ । कृ॒ष्णेभिः॑ । अ॒क्ता । उ॒षाः । रुश॑त्ऽभिः । वपुः॑ऽभिः । आ । च॒र॒तः॒ । अ॒न्याऽअ॑न्या ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सनाद्दिवं परि भूमा विरूपे पुनर्भुवा युवती स्वेभिरेवैः। कृष्णेभिरक्तोषा रुशद्भिर्वपुर्भिरा चरतो अन्यान्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सनात्। दिवम्। परि। भूम। विरूपे इति विऽरूपे। पुनःऽभुवा। युवती इति। स्वेभिः। एवैः। कृष्णेभिः। अक्ता। उषाः। रुशत्ऽभिः। वपुःऽभिः। आ। चरतः। अन्याऽअन्या ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 62; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ रात्रिदिवसदृष्टान्तेन स्त्रीपुरुषौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे स्त्रीपुरुषौ ! युवां यथा सनाद्दिवं भूमा प्राप्य पुनर्भुवा युवती इव विरूपे अक्तोषाः स्वेभीरुशद्भिर्वपुभिः कृष्णेभिरेवैः सहान्यान्या पर्य्याचरतस्तथा स्वयंवरविधानेन विवाहं कृत्वा परस्परौ प्रीतिमन्तौ भूत्वा सततमानन्देतम् ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (सनात्) सनातनात्कारणात् (दिवम्) सूर्यप्रकाशं प्राप्य (परि) सर्वतः (भूमा) भूमिम्। अत्र सुपां सुलुक् इति डादेशः। (विरूपे) विविधं रूपं ययोरह्नो रात्रेश्च ते (पुनर्भवा) ये पुनः पुनः पर्य्यायेण भवतस्ते। अत्र सुपां सुलुक् इत्याकारादेशः। (युवती) युवावस्थास्थे स्त्रियाविव (स्वेभिः) दक्षिणादिभिरवयवैः (एवैः) प्रापकैः इण्शीभ्यां वन्। (उणा०१.१५४) अनेनात्रेण्धातोर्वन् प्रत्ययः। (कृष्णेभिः) परस्पराकर्षणैर्विलेखनैः (अक्ता) अनक्त्यञ्जनवत्पदार्थानाच्छादयति सा रात्रिः (उषाः) दिनं च। (रुशद्भिः) प्रापकै रूपादिगुणैः (वपुर्भिः) स्वाकृत्यादिभिः शरीरैः (आ) समन्तात् (चरतः) गच्छत आगच्छतश्च (अन्यान्या) भिन्ना भिन्ना पृथक् पृथक् संयुक्ते च। अत्र वीप्सायां द्विर्वचनम् ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सर्वदा चक्रवत्परिवर्त्तमाने रात्रिदिने परस्परं संयुक्ते वर्त्तेते तथा विवाहितो स्त्रीपुरुषौ संप्रीत्या सर्वदा वर्त्तेयाताम् ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब रात्रि और दिन के दृष्टान्त से स्त्री और पुरुष किस-किस प्रकार वर्त्तमान करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे स्त्री-पुरुषो ! तुम जैसे (सनात्) सनातन कारण से (दिवम्) सूर्य्य प्रकाश और (भूमा) भूमि को प्राप्त होकर (पुनर्भुवा) वार-वार पर्य्याय से उत्पन्न होके (युवती) युवावस्था को प्राप्त हुए स्त्री-पुरुष के समान (विरूपे) विविध रूप से युक्त (अक्ता) रात्रि (उषाः) दिन (स्वेभिः) क्षण आदि अवयव (रुशद्भिः) प्राप्ति के हेतु रूपादि गुणों के साथ (वपुर्भिः) अपनी आकृति आदि शरीर वा (कृष्णेभिः) परस्पर आकर्षणादि को (एवैः) प्राप्त करनेवाले गुणों के साथ (अन्यान्या) भिन्न-भिन्न परस्पर मिले हुए (पर्य्याचरतः) जाते-आते हैं, वैसे स्वयंवर अर्थात् परस्पर की प्रसन्नता से विवाह करके एक-दूसरे के साथ प्रीतियुक्त होके सदा आनन्द में वर्त्तें ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे चक्र के समान सर्वदा वर्त्तमान रात्रि-दिन परस्पर संयुक्त वर्त्तते हैं, वैसे विवाहित स्त्री-पुरुष अत्यन्त प्रेम के साथ वर्त्ता करें ॥ ८ ॥

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    विषय

    दिन - रात का चक्र

    पदार्थ

    १. (विरूपे) = परस्पर विपरीत रूपवाले अथवा विशिष्ट रूपवाले (पुनः भुवा) = प्रतिदिन फिर - फिर होनेवाले (युवती) = हमें अच्छाइयों से सम्पृक्त तथा बुराइयों से विपृक्त करनेवाले उषा व रात्रि (सनात्) = सनातनकाल से (दिवं भूमा) = इस द्युलोक व पृथिवीलोक में (स्वेभिः एवैः) = अपनी गतियों से (परिचरतः) = पर्यावृत होते रहते हैं । उषा आती है, दिन के रूप में परिवर्तित होकर, आगे बढ़ती हुई रात्रि के लिए स्थान खाली कर देती है । रात्रि भी अपने यौवन से आगे बढ़कर वृद्ध होती है और उषा के लिए स्थान बनाकर चली जाती है । ये सृष्टि के आरम्भ से फिर - फिर आ ही रही है । ये कभी वृद्ध होकर समाप्त हो जाएंगी और आना बन्द कर देंगी, ऐसी बात नहीं है । ये युवती हैं । २. (कृष्णेभिः वपुर्भिः अक्ता) = अन्धकारमय अतएव कृष्ण शरीरों से रात्रि आती है तो (रुशद्धिः) = चमकते हुए प्रकाशमय शरीरों से (उषाः) = उषः काल आता है । इस प्रकार ये रात्रि और उषा (अन्यान्या) = परस्पर व्यतिहारेण (आचरतः) = इस संसार में गतिवाली होती हैं । रात्रि जाती है तो उषा आती है और उषा जाती है तो रात्रि का आगमन होता है । यह दिन - रात का चक्र हमें शक्ति से युक्त तथा श्रान्ति से वियुक्त करने के लिए आवश्यक है । दिन कर्म के द्वारा हमारी शक्ति को बढ़ाता है तो रात्रि हमारी थकावट को दूर करके हमें फिर से शक्तिसम्पन्न करती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - यह दिन - रात्रि का चक्र हमारी उन्नति के लिए अद्भुत महत्त्व रखता है, परन्तु रात्रि उससे कम आवश्यक नहीं ।

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    विषय

    दिन रात्रि के समान स्त्री पुरुष तथा राजा प्रजा का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    (अक्ता) रात्रि ( कृष्णेभिः ) काले अन्धकार से बने (वपुर्भिः) रूपों से और ( उषाः ) दिन वेला (रुशद्भिः) कान्तिमय ( वपुर्भिः ) रूपों से (अन्या-अन्या) एक दूसरे के पीछे क्रम से (आचरतः) आती जाती हैं । और वे दोनों ( सनात् ) सनातन, अनादिकाल से ( विरूपे ) एक दूसरे से भिन्न रूप या कान्तिवाली ( पुनः-भुवा ) पुनः पुनः उत्पन्न होने वाले होकर (स्वेभिः एवैः) अपने आगमनों, व्यवहारों से (दिवं भूमा) सूर्य और पृथ्वी की (परिचरतः) सेवाया परिक्रमा करती अर्थात् उन पर आश्रित हैं। सूर्य के उदय से दिन और पृथ्वी की आड़ से रात्रि उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार ( युवती ) एक दूसरे से सम्बद्ध होकर युवावस्था में स्थित स्त्रीपुरुष दोनों (सनात्) अनादि कारण से और अनादि काल ले (दिवं भूमा परि) सूर्य और पृथ्वी के समान (स्वेभिः एवैः) अपने कार्य व्यवहारों से ( परि आचरतः ) आचरण करें । वे दोनों (विरूपे) शरीर रचना में एक दूसरे से भिन्न आकृति, रुचि और चेष्टा वाले ( पुनः भुवा ) वार २ एकत्र रहने वाले, तथा सन्तान रूप में पुनः उत्पन्न होने वाले हों। उन दोनों में ले स्त्री, (अक्ता) रात्रि के समान (अक्ता) नाना गुणों और प्रेमों को प्रकट करने वाली तथा स्नान, अनुलेपन तथा अभ्यंग और उज्वल आभूषणादि से कान्तिमती होकर (कृष्णेभिः) आकर्षण करनेवाले रूपों से युक्त हो । और ( उषा ) दिन या सर्य के समान प्रतिपक्षियों को तापकारी और स्त्री के प्रति कामनावान् अभिलाषुक होकर पुरुष ( रुशद्भिः ) उज्वल कान्तिमय ( वपुर्भिः ) स्वरूपों से युक्त होकर रहे । और वे दोनों ( अन्या-अन्या ) एक दूसरे के प्रति ( आचरतः ) सब प्रकार से अनुकूल आचरण करें । इसी प्रकार राजा प्रजा या राजा और भूमि भी सूर्य और पृथिवी या दिन और रात्रि के समान भिन्न रुचि होकर भी अपने व्यवहारों को वार २ मिलावें । ऐश्वर्य आदि आकर्षक गुणों से प्रजा और पराक्रम आदि तेजोमय रूपों से राजा रहे । वे एक दूसरे के उपकार करते रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ४, ६ विराडार्षी त्रिष्टुप् । २, ५, ९ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । १०—१३ आर्षी त्रिष्टुप् । भुरिगार्षी पंक्तिः । त्रयो दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अब रात्रि और दिन के दृष्टान्त से स्त्री और पुरुष किस-किस प्रकार व्यवहार करें, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे स्त्रीपुरुषौ ! युवां यथा सनाद् दिवं भूमा प्राप्य पुनर्भवा युवती इव विरूपे अक्ता उषाः स्वेभी रुशद्भिः वपुभिः कृष्णेभिः एवैः सह अन्यान्या परि आ चरतः तथा स्वयंवरविधानेन विवाहं कृत्वा परस्परौ प्रीतिमन्तौ भूत्वा सततम् आनन्देतम् ॥८॥

    पदार्थ

    हे (स्त्रीपुरुषौ)= स्त्री और पुरुषों ! (युवाम्)=तुम दोनों, (यथा)=जैसे, (सनात्) सनातनात्कारणात्=सनातन कारणों से, (दिवम्) सूर्यप्रकाशं प्राप्य= सूर्य के प्रकाश को प्राप्त करके, (भूमा) भूमिम्=पृथिवी को, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (पुनर्भवा) ये पुनः पुनः पर्य्यायेण भवतस्ते=जो बार-बार अवसर से होते हो, (युवती) युवावस्थास्थे स्त्रियाविव=युवा अवस्था में स्त्री के, (इव)= समान, (विरूपे) विविधं रूपं ययोरह्नो रात्रेश्च ते=जिसका दिन और रात्रि में विविध रूप है, वह, (अक्ता) अनक्त्यञ्जनवत्पदार्थानाच्छादयति सा रात्रिः= रात्रि के समान पदार्थों को [अन्धकार से] ढक देती है, (उषाः) दिनं च=और दिन में, (स्वेभिः) दक्षिणादिभिरवयवैः= दक्षिण आदि के अवयवों के द्वारा, (रुशद्भिः) प्रापकै रूपादिगुणैः= रूप आदि गुणों को प्राप्त कराने से, (वपुर्भिः) स्वाकृत्यादिभिः शरीरैः=अपने शरीर की आकृतियों आदि के द्वारा, (कृष्णेभिः) परस्पराकर्षणैर्विलेखनैः= परस्पर आकर्षण के चिह्नों से, (एवैः) प्रापकैः इण्शीभ्यां वन्= प्राप्त कराने वाला, (सह)=साथ, (अन्यान्या) भिन्ना भिन्ना पृथक् पृथक् संयुक्ते च= पृथक्-पृथक् और संयुक्त रूप से भी, (परि) सर्वतः=हर ओर से, (आ) समन्तात्=अच्छी तरह से, (चरतः) गच्छत आगच्छतश्च=जाते और आते हुए, (तथा)=वैसे ही, (स्वयंवरविधानेन)= स्वयंवर के नियम से, (विवाहम्)= विवाह, (कृत्वा)=करके, (परस्परौ)= परस्पर, (प्रीतिमन्तौ)= प्रीति करनेवाले, (भूत्वा)=होकर, (सततम्)=निरन्तर, (आनन्देतम्)= आननन्दित रहें ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा जैसे सर्वदा चक्र के समान बदलनेवाले रात्रि-दिन में परस्पर संयुक्त रूप में व्यवहार कियाजाता है, वैसे ही विवाहित स्त्री-पुरुषों के द्वारा आपस में प्रीति पूर्वक सर्वदा व्यवहार किया जाना चाहिए ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (स्त्रीपुरुषौ) स्त्री और पुरुषों ! (युवाम्) तुम दोनों, (यथा) जैसे (सनात्) सनातन कारणों से (दिवम्) सूर्य के प्रकाश को प्राप्त करके और (भूमा) पृथिवी को (प्राप्य) प्राप्त करके, (पुनर्भवा) जो बार-बार अवसर से होते हैं, उनमें (युवती) युवा अवस्था में स्त्री के (इव) समान, (विरूपे) जिसका दिन और रात्रि में विविध रूप होता है, उस (अक्ता) रात्रि के समान पदार्थों को [अन्धकार से] ढक देती है (उषाः) और दिन में (स्वेभिः) दक्षिण आदि के अवयवों के द्वारा (रुशद्भिः) रूप आदि गुणों को प्राप्त कराने से (वपुर्भिः) अपने शरीर की आकृतियों आदि के द्वारा (कृष्णेभिः) परस्पर आकर्षण के चिह्नों से (एवैः) प्राप्त कराने वाले के (सह) साथ (अन्यान्या) पृथक्-पृथक् और संयुक्त रूप से भी (परि) हर और (आ) अच्छी तरह से (चरतः) जाते व आते हुए, (तथा) वैसे ही (स्वयंवरविधानेन) स्वयंवर के नियम से (विवाहम्) विवाह (कृत्वा) करके (परस्परौ) परस्पर (प्रीतिमन्तौ) प्रीति करनेवाले (भूत्वा) होकर (सततम्) निरन्तर (आनन्देतम्) आनन्दित रहें ॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सनात्) सनातनात्कारणात् (दिवम्) सूर्यप्रकाशं प्राप्य (परि) सर्वतः (भूमा) भूमिम्। अत्र सुपां सुलुक् इति डादेशः। (विरूपे) विविधं रूपं ययोरह्नो रात्रेश्च ते (पुनर्भवा) ये पुनः पुनः पर्य्यायेण भवतस्ते। अत्र सुपां सुलुक् इत्याकारादेशः। (युवती) युवावस्थास्थे स्त्रियाविव (स्वेभिः) दक्षिणादिभिरवयवैः (एवैः) प्रापकैः इण्शीभ्यां वन्। (उणा०१.१५४) अनेनात्रेण्धातोर्वन् प्रत्ययः। (कृष्णेभिः) परस्पराकर्षणैर्विलेखनैः (अक्ता) अनक्त्यञ्जनवत्पदार्थानाच्छादयति सा रात्रिः (उषाः) दिनं च। (रुशद्भिः) प्रापकै रूपादिगुणैः (वपुर्भिः) स्वाकृत्यादिभिः शरीरैः (आ) समन्तात् (चरतः) गच्छत आगच्छतश्च (अन्यान्या) भिन्ना भिन्ना पृथक् पृथक् संयुक्ते च। अत्र वीप्सायां द्विर्वचनम् ॥८॥ विषयः- अथ रात्रिदिवसदृष्टान्तेन स्त्रीपुरुषौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे स्त्रीपुरुषौ ! युवां यथा सनाद्दिवं भूमा प्राप्य पुनर्भुवा युवती इव विरूपे अक्तोषाः स्वेभीरुशद्भिर्वपुभिः कृष्णेभिरेवैः सहान्यान्या पर्य्याचरतस्तथा स्वयंवरविधानेन विवाहं कृत्वा परस्परौ प्रीतिमन्तौ भूत्वा सततमानन्देतम् ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सर्वदा चक्रवत्परिवर्त्तमाने रात्रिदिने परस्परं संयुक्ते वर्त्तेते तथा विवाहितो स्त्रीपुरुषौ संप्रीत्या सर्वदा वर्त्तेयाताम् ॥८॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की, जसे चक्राप्रमाणे रात्र व दिवस परस्पर सदैव संयुक्त होऊन राहतात तसे विवाहित स्त्री-पुरुषांनी अत्यंत प्रेमाने राहावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Since time immemorial, from the same eternal cause, co-existent and cooperative from heaven to earth, the two complementarities of distinctive forms, night and day, both ever young and born again and again, move on and on by their own path together yet separately, the night in the forms of darkness and the day in the forms of light. Both move in and on serving the heaven and earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should husband and wife behave is taught by the illustration of day and night.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men and women, as night and dawn of various complexion, repeatedly born, but ever youthful, traverse in their revolutions alternately, from a remote period, earth and heaven, night with her dark, dawn with her luminous limbs, so you should marry each other according to your deliberate choice made of your own accord and enjoy happiness, loving mutually with legitimate attractions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (एवैः) प्रापकैः इण्शीभ्यां वन् (उणा० १.१५४) अनेनात्र इण् धातोर्वन् प्रत्ययः । (कृष्णेभिः) परस्पराकर्षणादिलेखतः ।। = With mutual attractions.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As day and night revolve like the wheels being associated with each other, so should the married couple behave with mutual love.

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    Subject of the mantra

    Now, how men and women should behave using the example of night and day, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (strīpuruṣau) =women and men, (yuvām) =both of you, (yathā) =like, (sanāt)= for eternal reasons, (divam)=by receiving sunlight and, (bhūmā) =to earth, (prāpya) =obtaining, , (punarbhavā)=in those chances which occur repeatedly, (yuvatī)=of a woman in her youth, (iva) =like, (virūpe)= which has different forms during day and night, (aktā)+[andhakāra se] Covers things[with darkness] like night, (uṣāḥ) =and during the day, (svebhiḥ) by elements of the south etc., (ruśadbhiḥ)=by acquiring qualities like form etc., (vapurbhiḥ) =by the shapes of own body etc., (kṛṣṇebhiḥ)= by signs of mutual attraction, (evaiḥ)=recipient's, (saha) =with, (anyānyā)=separately and jointly too, (pari) =to every side, (ā) =properly, (carataḥ) =going and coming, (tathā) =similarly, (svayaṃvaravidhānena) =by the rule of self-selection, (vivāham) =marriage, (kṛtvā) =solemnizing, (parasparau) =mutual, (prītimantau)= those who love, (bhūtvā) =being, (satatam)=continuously, (ānandetam)=remain happy.

    English Translation (K.K.V.)

    O women and men! Both of you, like a woman in her youth, who has different forms during the day and night, like the night, which happens again and again by chance, after receiving the light of the Sun and after receiving the earth, due to the eternal causes. covers things with darkness and during the day, by attaining qualities like form etc. through the components of the south etc., and by giving signs of mutual attraction through the shapes of one's body etc., separately and also jointly, going and coming in every way well. Similarly, after marrying according to the rules of self-selection, being mutually loving, remain happy continuously.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as human beings always behave together with each other in the day and night that changes like the wheel, in the same way married men and women should always behave with each other with love.

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