Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 64 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 15
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नू ष्ठि॒रं म॑रुतो वी॒रव॑न्तमृती॒षाहं॑ र॒यिम॒स्मासु॑ धत्त। स॒ह॒स्रिणं॑ श॒तिनं॑ शूशु॒वांसं॑ प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । स्थि॒रम् । म॒रु॒तः॒ । वी॒रऽव॑न्तम् । ऋ॒ति॒ऽसह॑म् । र॒यिम् । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒ । स॒ह॒स्रिण॑म् । श॒तिन॑म् । शू॒शु॒ऽवांस॑म् । प्रा॒तः । म॒क्षु । धि॒याऽव॑सुः । ज॒ग॒म्या॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू ष्ठिरं मरुतो वीरवन्तमृतीषाहं रयिमस्मासु धत्त। सहस्रिणं शतिनं शूशुवांसं प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। स्थिरम्। मरुतः। वीरऽवन्तम्। ऋतिऽसहम्। रयिम्। अस्मासु। धत्त। सहस्रिणम्। शतिनम्। शूशुऽवांसम्। प्रातः। मक्षु। धियाऽवसुः। जगम्यात् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! यथा विद्वांसोऽस्मासु स्थिरं वीरवन्तमृतिसाहं सहस्रिणं शतिनं शूशुवांसं रयिं दधति, तथा यूयमपि प्रातर्मक्षु धत्त। यथा धियावसुर्नु जगम्यात् तं प्राप्यानन्दति तथैव यूयमप्येतत्प्राप्यानन्दतेति ॥ १५ ॥

    पदार्थः

    (नु) क्षिप्रार्थे (स्थिरम्) निश्चलम् (मरुतः) वायव इव वर्त्तमानाः (वीरवन्तम्) प्रशस्ता वीरा विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (ऋतिषाहम्) य ऋतिं सत्यं सहते तम्। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (रयिम्) विद्याराज्यसुवर्णादिधनसमूहम् (अस्मासु) (धत्त) धरत (सहस्रिणम्) सहस्रमसंख्यातं प्रशस्तं सुखं विद्यते यस्मिंस्तम्। अत्र तपःसहस्राभ्यां विनीनी। (अष्टा०५.२.१०२) इति सूत्रेण मत्वर्थीय इनिः प्रत्ययः। (शतिनम्) (शूशुवांसम्) सर्वसुखज्ञापकं प्रापकं वा (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) प्रज्ञाकर्मयुक्तः (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात् ॥ १५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथाऽतिप्रशस्यो मेधावी विद्यापुरुषार्थैः संयुक्तो विद्वान् वातादिपदार्थेभ्यो दृढानि बहूनि सुखानि संसाध्यानन्दं प्राप्नोति तथा यूयमप्येतां विद्यां प्राप्यानन्दं भुञ्जत ॥ १५ ॥ अत्र वायुगुणोपदेशादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे उक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) पवन के तुल्य वर्त्तमान ! जैसे विद्वान् लोग (अस्मासु) हम लोगों में (स्थिरम्) निश्चल (वीरवन्तम्) प्रशंसा करने योग्य वीर पुरुषों से युक्त (ऋतिषाहम्) सत्य के सहन करनेवाले (रयिम्) विद्याराज्य और सुवर्ण आदि धन को धारण करें और (धियावसुः) बुद्धि और कर्मों से युक्त विद्वान् (जगम्यात्) शीघ्र प्राप्त हों, वैसे उनको तुम (प्रातः) प्रतिदिन (मक्षु) शीघ्र (धत्त) धारण करो ॥ १५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे अति प्रशंसा करने योग्य, बुद्धिवाला, विद्या, पुरुषार्थों से युक्त विद्वान् जन वायु आदि पदार्थों के सकाश से दृढ़ निश्चल बहुत सुखों को सिद्ध करके आनन्द को प्राप्त होता है, वैसे तुम भी इस विद्या को प्राप्त होकर आनन्द भोगो ॥ १५ ॥ । इस सूक्त में वायु के गुणों का उपदेश करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कैसा धन

    पदार्थ

    १. (नु) = अब हे (मरुतः) = मरुतो ! (अस्मासु) = हममें (रयिम्) = धन को (धत्त) = धारण करो । कैसे धन को ? [क] (स्थिरम्) = जो धन स्थिर है, चञ्चलतारहित है, हमारे पास स्थिर होकर रहनेवाला है, [ख] (वीरवन्तम्) = [वीर्योपेतम् - सा०] शक्ति से युक्त है, हमें निर्बल बनानेवाला नहीं है, [ग] (ऋतीषाहम्) = [गन्तृणां शत्रूनामभिभवितारम् - सा०] जो धन शत्रुओं का पराभव करनेवाला है, हमें निर्बल बनाकर शत्रुओं के वशीभूत करनेवाला नहीं है, [घ] (सहस्त्रिणम्) = [स+हस्] जो धन आनन्द से युक्त है, हमें क्षीणशक्ति करके निरानन्द जीवनवाला नहीं कर देता ; [ङ] (शतिनम्) = जो हमें सौ वर्ष का आयुष्य प्राप्त करानेवाला है, [च] (शूशुवांसम्) = जो गति व वृद्धि का कारण है, जिस धन को प्राप्त करके हम क्रियामय जीवनवाले बने रहते हैं और जो धन हमारी वृद्धि का कारण बनता है । २. ऐसे धन को प्राप्त करके हम उत्तम जीवनवाले ही बने रहें, इसके लिए हे प्रभो ! आप ऐसी कृपा कीजिए कि हमें (प्रातः मक्षु) = प्रातः शीघ्र ही (धियावसुः) = ज्ञानपूर्वक कर्मों द्वारा निवास के लिए आवश्यक धनों का जुटानेवाला व्यक्ति (जगम्यात्) = प्राप्त हो, अर्थात् उत्तम पुरुषों के सङ्ग से हम धनों की सम्भावित हानियों से बचे रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें वृद्धि के कारणभूत धन प्राप्त हों और सत्सङ्ग प्राप्त हो ताकि धन के कारण हमारा जीवन विलासमय न बन जाए ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार है कि हम प्रभु के उपासक बनें [१] । उपासक ज्ञानी व तेजस्वी होते हैं [२] । ये शोधकबल प्राप्त करके पार्थिव व दिव्य प्रलोभनों में नहीं फंसते [३] । प्राणसाधना उतनी ही आवश्यक है जितनी कि देशरक्षा के लिए सैन्य शक्ति [४] । प्राणसाधना से ज्ञान बढ़ता है, शरीर पुष्ट होता है [५] । इस प्राणसाधना से हम अन्तः स्थित ज्ञानस्रोत का दोहन करनेवाले बनते हैं [६] । प्राणसाधना से इन्द्रियाँ बलसम्पन्न होती हैं [७] । प्राणसाधक पुरुष शत्रुओं को पीड़ित करनेवाले तथा लोकों पर सुखों की वर्षा करनेवाले होते हैं [८], स्वस्थ ज्ञानी बनते हैं [९], ज्ञान, धन व बल तीनों का वर्धन करते हैं [१०] । प्राणसाधना हमें यज्ञशील व देदीप्यमान दृष्टिवाला बनाती है [११] । प्राण शरीर के रोगों को नष्ट करते हैं और वृत्तियों को उत्तम बनाते हैं [१२] । इस साधना से हम औरों को लांघ जाते हैं [१३], उत्तम सन्तान प्राप्त करते हैं [१४], वृद्धि के कारणभूत धन के भागी होते हैं [१५] । नोट - ५८ से ६४ तक सूक्त ‘नोधा गौतम’ ऋषि के हैं । एक सूक्त को छोड़कर सब सूक्त “प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्” इस प्रार्थना पर ही समाप्त हुए हैं । वस्तुतः सत्सङ्ग ही हमें ‘नोधा गौतम’ - इन्द्रियों का धारण करनेवाला व प्रशस्तेन्द्रिय बनाता है । यह प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष अब ‘पराशर शाक्त्य’ बनता है - शक्ति का पुञ्ज, शत्रुओं को सुदूर मार भगानेवाला । यह प्रभु का इस प्रकार आराधन करता है -

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रमुख नायकों की स्थापना

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! वीर जनो ! आप लोग ( नु ) शीघ्र ही ( स्थिरम् ) चिरस्थायी, विनाश को प्राप्त न होने वाले ( वीरवन्तम् ) वीर पुरुषों से युक्त (ऋतीषाहम्) युद्ध के विजय करने वाले, ( रयिम् ) ऐश्वर्य को और वीर्यवान् पुरुष को ( अस्मासु ) हममें ( धत्त ) धारण करो। और (सहस्रिणम्) हज़ारों के स्वामी और ( शतिनं ) सैकड़ों के स्वामी, शतदलपति, सहस्रदलपति, ( शुशुवांसं ) समस्त सुखों के दाता महापुरुष को भी हम में (धत्त) स्थापित करो। और ( धियावसुः ) प्रज्ञा और कर्म के धनी पुरुष (मक्षु) शीघ्र ही (प्रातः) दिन के प्रारम्भ समय में, या सभी कार्यों के प्रारम्भ काल में हमें ( जगम्यात् ) प्राप्त हों । इत्यष्टमो वर्गः । इति एकादशोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर वे उक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इसमन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मरुतः ! यथा विद्वांसः अस्मासु स्थिरं वीरवन्तम् ऋतिसाहं सहस्रिणं शतिनं शूशुवांसं रयिं दधति, तथा यूयम् अपि प्रातः मक्षु धत्त यथा धियावसुः नु जगम्यात् तं प्राप्य आनन्दति तथैव यूयम् अपि एतत् प्राप्य आनन्दत इति॥१५॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) वायव इव वर्त्तमानाः=वायु के समान वर्त्तमान ! (यथा)=जैसे, (विद्वांसः) =विद्वान् लोग, (अस्मासु)=हम में, (स्थिरम्) निश्चलम् =स्थिर, (वीरवन्तम्) प्रशस्ता वीरा विद्यन्ते यस्मिँस्तम्= प्रशस्त वीरोंवाले, (ऋतिषाहम्) य ऋतिं सत्यं सहते तम्=ऋतों को सहन करनेवाले, (सहस्रिणम्) सहस्रमसंख्यातं प्रशस्तं सुखं विद्यते यस्मिंस्तम्=असंख्य प्रशस्त सुखवाले, (शतिनम्)=सौ, (शूशुवांसम्) सर्वसुखज्ञापकं प्रापकं वा=सबके सुख को जानने और प्राप्त करानेवाले, (रयिम्) विद्याराज्यसुवर्णादिधनसमूहम्= विद्या,राज्य, सुवर्ण आदि धन के समूह को, (दधति)=धारण करता है, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (प्रातः) प्रतिदिनम्=प्रतिदिन, (मक्षु) शीघ्रम्=शीघ्रता से, (धत्त) धरत=धारण करो। (यथा)=जैसे, (धियावसुः) प्रज्ञाकर्मयुक्तः= प्रज्ञा और कर्म से युक्त, (नु) क्षिप्रार्थे =शीघ्रता से, (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात्=अत्यधिक प्राप्त होता है, (तम्) =उसको, (प्राप्य) =प्राप्त करके, (आनन्दति)=आनन्दित होता है। (तथैव)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (एतत्) =इसे, (प्राप्य) =प्राप्त करके, (आनन्दत)= आनन्दित होओ॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यों ! जैसे अति प्रशंसनीय मेधावी, विद्या और पुरुषार्थों से युक्त विद्वान्, वायु आदि पदार्थों से दृढ़ होकर बहुत सुखों को सिद्ध करके आनन्द प्राप्त करता है, वैसे तुम भी इस विद्या को प्राप्त करके आनन्द भोगो॥१५॥

    विशेष

    सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में वायु के गुणों का उपदेश करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥१५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मरुतः) वायु के समान वर्त्तमान ! (यथा) जैसे (विद्वांसः) विद्वान् लोग (अस्मासु) हम में (स्थिरम्) स्थिर (वीरवन्तम्) प्रशस्त वीरोंवाले, (ऋतिषाहम्) ऋतों को सहन करनेवाले, (सहस्रिणम्) असंख्य प्रशस्त सुखवाले, (शतिनम्) सौ की संख्या में, अर्थात् अनेक (शूशुवांसम्) सबके सुख को जानने और प्राप्त करानेवाला है। (रयिम्) [वह] विद्या, राज्य, सुवर्ण आदि धन के समूह को (दधति) धारण करता है। (तथा) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (प्रातः) प्रतिदिन (मक्षु) शीघ्रता से (धत्त) धारण करो। (यथा) जैसे (धियावसुः) प्रज्ञा और कर्म से युक्त (नु) शीघ्रता से (जगम्यात्) अत्यधिक प्राप्त होता है, (तम्) उसको (प्राप्य) प्राप्त करके (आनन्दति) आनन्दित होता है। (तथैव) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (एतत्) इसे (प्राप्य) प्राप्त करके (आनन्दत) आनन्दित होओ॥१५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नु) क्षिप्रार्थे (स्थिरम्) निश्चलम् (मरुतः) वायव इव वर्त्तमानाः (वीरवन्तम्) प्रशस्ता वीरा विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (ऋतिषाहम्) य ऋतिं सत्यं सहते तम्। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (रयिम्) विद्याराज्यसुवर्णादिधनसमूहम् (अस्मासु) (धत्त) धरत (सहस्रिणम्) सहस्रमसंख्यातं प्रशस्तं सुखं विद्यते यस्मिंस्तम्। अत्र तपःसहस्राभ्यां विनीनी। (अष्टा०५.२.१०२) इति सूत्रेण मत्वर्थीय इनिः प्रत्ययः। (शतिनम्) (शूशुवांसम्) सर्वसुखज्ञापकं प्रापकं वा (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) प्रज्ञाकर्मयुक्तः (जगम्यात्) भृशं विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मरुतो ! यथा विद्वांसोऽस्मासु स्थिरं वीरवन्तमृतिसाहं सहस्रिणं शतिनं शूशुवांसं रयिं दधति, तथा यूयमपि प्रातर्मक्षु धत्त। यथा धियावसुर्नु जगम्यात् तं प्राप्यानन्दति तथैव यूयमप्येतत्प्राप्यानन्दतेति॥१५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथाऽतिप्रशस्यो मेधावी विद्यापुरुषार्थैः संयुक्तो विद्वान् वातादिपदार्थेभ्यो दृढानि बहूनि सुखानि संसाध्यानन्दं प्राप्नोति तथा यूयमप्येतां विद्यां प्राप्यानन्दं भुञ्जत ॥१५॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वायुगुणोपदेशादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा अतिप्रशंसायुक्त बुद्धिमान, विद्या पुरुषार्थाने युक्त विद्वान, वायू इत्यादी पदार्थाच्या साह्याने दृढ व आत्यंतिक सुख प्राप्त करून आनंद भोगतो. तसे तुम्हीही ही विद्या प्राप्त करून आनंद भोगा. ॥ १५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Maruts, heroes of humanity fast as winds, bear among us stable wealth comprising most heroic youth who are ever felicitous and victorious, and happiness of a hundred fold and a thousandfold order. May the spirit of pious intelligence and wealth of mind and soul visit and bless us instantly with the light of dawn.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the Maruts is taught further in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Grant us Maruts, riches attended by off-spring and mortifying to our enemies, riches givers of hundreds and thousands of joys and ever growing. May they who have acquired wealth by various acts, come hither quickly in the morning.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मरुतः) वायव इव वर्तमाना: O heroes mighty like the winds, शुशुवांसम् सर्वसुखज्ञापकं प्रापकवा =That which causes the knowledge of all happiness and helps in getting it.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, as a virtuous extra-ordinarily wise man endowed with wisdom and labour, acquires from the winds and other elements many kinds of happiness after accomolishing many works, in the same manner, you should also acquire the knowledge of this science of air and enjoy happiness.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as the subject of the Maruts (winds and brave heroes) is continued. Here ends the 64th Hymn of the 1st Mandala of the Rigveda and the eighth Varga.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then how are those aforesaid airs, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (marutaḥ) =present like air, (yathā) =like, (vidvāṃsaḥ) =scholars, (asmāsu) =among us, (sthiram) =stable, (vīravantam) =eminently brave, (ṛtiṣāham)=Those who endure the seasons, (sahasriṇam)=The one with innumerable happiness, (śatinam)=in number of hundreds, i.e. many, (śūśuvāṃsam) =is the one who knows and achieves everyone's happiness, (rayim) =to the group of wealth like knowledge, kingdom, gold etc., [vaha]=he, (dadhati) =possesses,(tathā) =similarly, (yūyam) =all of you, (api) =also, (prātaḥ) = every day, (makṣu) =quickly, (dhatta) =possess, (yathā) =like, (dhiyāvasuḥ)= full of wisdom and action, (nu) =quickly, (jagamyāt) =is obtained in abundance, (tam) =to that, (prāpya) =having obtained, (ānandati) =become happy, (tathaiva) =similarly, (yūyam) =all of you, (api) =also, (etat) =to this, (prāpya) =obtaining, (ānandata) =be happy.

    English Translation (K.K.V.)

    O present like air! Like the learned people among us are the ones who are stable and eminently brave, who can tolerate the seasons, who have innumerable happiness, who knows and makes everyone's happiness in a hundred, that is, many. He possesses the groups of wealth like knowledge, kingdom, gold etc. Similarly, you all should possess it quickly every day. Just as a person with wisdom and action quickly achieves a lot and becomes happy after achieving it. Similarly, all of you should also be happy after obtaining it.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. O humans! Just as a highly admirable intelligent, scholar, full of knowledge and efforts, being strengthened by substances like air and other things, attains happiness by attaining many pleasures, in the same way, you too enjoy this knowledge by attaining it. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- By preaching the qualities of air in this hymn, the interpretation of this hymn should be understood to be consistent with the interpretation of the previous hymn.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top