ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
ई॒शा॒न॒कृतो॒ धुन॑यो रि॒शाद॑सो॒ वाता॑न्वि॒द्युत॒स्तवि॑षीभिरक्रत। दु॒हन्त्यूध॑र्दि॒व्यानि॒ धूत॑यो॒ भूमिं॑ पिन्वन्ति॒ पय॑सा॒ परि॑ज्रयः ॥
स्वर सहित पद पाठई॒शा॒न॒ऽकृतः॑ । धुन॑यः । रि॒शाद॑सः । वाता॑न् । वि॒ऽद्युतः॑ । तवि॑षीभिः । अ॒क्र॒त॒ । दु॒हन्ति॑ । ऊधः॑ । दि॒व्यानि॑ । धूत॑यः । भूमि॑म् । पि॒न्व॒न्ति॒ । पय॑सा । परि॑ऽज्रयः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईशानकृतो धुनयो रिशादसो वातान्विद्युतस्तविषीभिरक्रत। दुहन्त्यूधर्दिव्यानि धूतयो भूमिं पिन्वन्ति पयसा परिज्रयः ॥
स्वर रहित पद पाठईशानऽकृतः। धुनयः। रिशादसः। वातान्। विऽद्युतः। तविषीभिः। अक्रत। दुहन्ति। ऊधः। दिव्यानि। धूतयः। भूमिम्। पिन्वन्ति। पयसा। परिऽज्रयः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं य एत ईशानकृतो धुनयो रिशादसो धूतयः परिज्रयस्तविषीभिर्विद्युतोऽक्रत ये पयसोऽधर्दुहन्ति भूमिं पिन्वन्ति सेवन्ते तान् वातान् विजानीत ॥ ५ ॥
पदार्थः
(ईशानकृतः) य ईशानानैश्वर्य्ययुक्तान् कुर्वन्ति ते (धुनयः) रजो वृक्षादीन् कम्पयितारः (रिशादसः) ये रिशान् हिंसकान् रोगानदन्ति ते (वातान्) पवनान् (विद्युतः) स्तनयित्नून् (तविषीभिः) बलैः (अक्रत) कुर्वन्ति (दुहन्ति) पिप्रति (ऊधः) उषसम्। ऊधरित्युषर्नामसु पठितम्। (निघं०१.८) (दिव्यानि) शुद्धानि जलादीनि वस्तूनि कर्माणि वा (धूतयः) ये धून्वन्ति (भूमिम्) पृथिवीम् (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिञ्चन्ति वा (पयसा) जलेन रसेन वा (परिज्रयः) ये परितः सर्वतो जीर्णयन्ति ते ॥ ५ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! युष्मभ्यमीश्वरो वायुगुणानुपदिशति। उक्तानुक्तगुणा वायवो विद्युदुत्पादनेन वृष्ट्या भूम्यौषधादिसेचनेन सर्वान् प्राणिनः सुखयन्तीति विजानीत ॥ ५ ॥
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं य एत ईशानकृतो धुनयो रिशादसो धूतयः परिज्रयस्तविषीभिर्विद्युतोऽक्रत ये पयसोधर्दुहन्ति भूमिं पिन्वन्ति सेवन्ते तान् वातान् विजानीत ॥ ५ ॥
पदार्थः
(ईशानकृतः) य ईशानानैश्वर्य्ययुक्तान् कुर्वन्ति ते (धुनयः) रजो वृक्षादीन् कम्पयितारः (रिशादसः) ये रिशान् हिंसकान् रोगानदन्ति ते (वातान्) पवनान् (विद्युतः) स्तनयित्नून् (तविषीभिः) बलैः (अक्रत) कुर्वन्ति (दुहन्ति) पिप्रति (ऊधः) उषसम्। ऊधरित्युषर्नामसु पठितम्। (निघं०१.८) (दिव्यानि) शुद्धानि जलादीनि वस्तूनि कर्माणि वा (धूतयः) ये धून्वन्ति (भूमिम्) पृथिवीम् (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिञ्चन्ति वा (पयसा) जलेन रसेन वा (परिज्रयः) ये परितः सर्वतो जीर्णयन्ति ते ॥ ५ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! युष्मभ्यमीश्वरो वायुगुणानुपदिशति। उक्तानुक्तगुणा वायवो विद्युदुत्पादनेन वृष्ट्या भूम्यौषधादिसेचनेन सर्वान् प्राणिनः सुखयन्तीति विजानीत ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उक्त वायु कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग जो ये (ईशानकृतः) जीवों के ऐश्वर्य्ययुक्त करने (धुनयः) धूलि के वर्षाने, वृक्ष आदि के कम्पाने (रिशादसः) जीवों को दुःख देनेवाले रोगों के नाश करने (धूतयः) सब पदार्थों को कम्पाने और (परिज्रयः) सब ओर से पदार्थों को जीर्ण करनेवाले वायु (तविषीभिः) अपने बलों से (विद्युतः) बिजुली आदि को (अक्रत) उत्पन्न करते हैं तथा जो (पयसा) जल वा रस से (ऊधः) उषा को (दुहन्ति) पूर्ण करते हैं, जो (भूमिम्) पृथिवी (दिव्यानि) शुद्ध जल आदि वस्तु तथा उत्तम कार्य्यों का (पिन्वन्ति) सेवन या सेचन करते हैं (वातान्) उन पवनों को जानो ॥ ५ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोगों के लिये परमेश्वर वायु के गुणों का उपदेश करता है कि कहे वा न कहे गुणवाले वायु बिजुली को उत्पन्न करके वर्षा द्वारा भूमि पर ओषधि आदि के सेचन से सब प्राणियों को सुख देनेवाले होते हैं, ऐसा तुम सब लोग जानो ॥ ५ ॥
विषय
ईशानकृतो धुनयः
पदार्थ
१. (ईशानकृतः) = ये मरुत् - प्राण हमें ईशान बनानेवाले हैं । प्राणसाधना से हम इन्द्रियों को अपने अधीन करते हैं । (धुनयः) = ये प्राण हमारी वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले हैं । (रिशादसः) = ‘ऋश हिंसायाम्’ नाशक तत्वों को खा जानेवाले हैं, भस्मीभूत कर देनेवाले हैं । (तविषीभिः) = बलों से ये अपने साधक को (वातान्) = वायुसम वेगवान् व बली तथा (विद्युतः) = विशिष्ट ज्ञानदीप्तिवाला (अक्रत) = बनाते हैं, एवं प्राणसाधना से [क] मन वासनाशून्य व निर्मल बनता है, [ख] शरीर वायुसम बलवान् तथा [ग] मस्तिष्क ज्योतिष्मान् । २. ये (धूतयः) = वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले प्राण (ऊधः) = वेदवाणीरूप गौ के ऊधस् से (दिव्यानि) = अलौकिक प्रकाशों का (दुहन्ति) = दोहन करते हैं । वासना को विनष्ट करके वेदमन्त्रों के द्रष्ट्रत्व को प्राप्त कराके हमारे मस्तिष्क को प्रकाशमय बनाते हैं । ३. (परिज्रयः) = शरीर में सर्वत्र गति करनेवाले ये प्राण (भूमिम्) = इस शरीर को (पयसा) = [पयः सोमः - शत० १२.७.३.१३] सोम के द्वारा (पिन्वन्ति) = बढ़ाते हैं, अर्थात् सोम के रक्षण से शरीर की शक्तियों को बढ़ाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से मन वासनाशून्य बनता है, शरीर शक्तिशाली और मस्तिष्क ज्योतिर्मय । प्राणसाधना से ज्ञान बढ़ता है, शरीर पुष्ट होता है ।
विषय
वायुओं के समान रुद्र वीरों का वर्णन ।
भावार्थ
( १ ) वीर सैनिकगण ( ईशानकृतः ) राजा को समस्त राष्ट्र का शासक बना देनेहारे, (धुनयः) शत्रुओं को कंपा देनेहारे, (रिशादसः) हिंसकों को हिंसा करने या उनको उखाड़ फेंकनेवाले होकर (तविषीभिः) अपने बलों या बलवान् अस्त्रशस्त्रों से ( वातान् ) प्रचण्ड वायु के झकोरों और ( विद्युतः ) विद्युत् के समान आघातकारी अस्त्रों को भी ( अक्रत ) प्रयोग करें । ( ऊधः ) दुग्ध रस का इच्छुक पुरुष जिस प्रकार गाय के थानों को दोहता है उसी प्रकार वे (धूतयः) शत्रुओं को कंपानेहारे वीर पुरुष ( भूमिम् ) भूमि रूप गौ से ( दिव्यानि ) नाना दिव्य पदार्थों शक्तियों और सारयुक्त ओषधियों को ( दुहन्ति ) प्राप्त करें। और वे ( परिज्रयः ) सब देशों और स्थानों में जानेहारे विद्वान् वीरजन ( पयसा ) दूध से जिस प्रकार बालक को पुष्ट किया जाता है उसी प्रकार और जल जिस प्रकार क्षेत्रको सींचता है उसी प्रकार ( भूमिं ) भूमि को ( पयसा ) पुष्टिकारक अन्नादि पदार्थों और ऐश्वर्य से ( पिन्वन्ति ) सेंचन करते हैं, उसे पुष्ट करते हैं। (२) वायुओं के पक्ष में—वायुगण, सामर्थ्यवान् प्राणों के उत्पादक होने से ‘ईशान् कृत्’ हैं । घातक रोगों के नाश करने से ‘रिशादस’ हैं, वृक्षों को कंपाने से ‘धुनि’ हैं, वे ही प्रचण्डवात और मेघों में विद्युतों के उत्पन्न करते हैं। वे (ऊधः) रात्रि काल में (दिव्यानि) आकाशस्थ जलों को अन्तरिक्ष से ओसरूप में दोहते हैं या आकाश रूप गौ के मेधरूप पयोधरों से जलों को दोहते हैं। और ( पयसा ) जल से और पुष्टिप्रद अन्न से भूमि को सींचते और पूर्ण कर देते हैं। मेघों को कंपाने से ‘धुति’ हैं और सर्वत्र गमन करने से ‘परिज्रि’ हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर उक्त वायु कैसे हैं, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं य एत ईशानकृतः धुनयः रिशादसः धूतयः परिज्रयः तविषीभिः विद्युतः अक्रत ये पयसा ऊधः दुहन्ति {दिव्यानि} भूमिं पिन्वन्ति सेवन्ते तान् वातान् विजानीत ॥५॥
पदार्थ
हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (ये)=जो, (एते)=ये, (ईशानकृतः) य ईशानानैश्वर्य्ययुक्तान् कुर्वन्ति ते=ऐश्वर्य्य युक्त करनेवाले हैं, (धुनयः) रजो वृक्षादीन् कम्पयितारः=वृक्ष आदि को कम्पानेवाले हैं, (रिशादसः) ये रिशान् हिंसकान् रोगानदन्ति ते=जो हिंसक शत्रुओं का नाश करते हैं, (धूतयः) ये धून्वन्ति= जो कम्पाते हैं, (परिज्रयः) ये परितः सर्वतो जीर्णयन्ति ते=जो हर ओर से जीर्ण करते हैं, (तविषीभिः) बलैः=बल से, (विद्युतः) स्तनयित्नून्=विद्युत् युक्त, (अक्रत) कुर्वन्ति= करते हैं, (ये)=जो, (पयसा) जलेन रसेन वा=जल से, (ऊधः) उषसम्=उषा के समान, (दुहन्ति) पिप्रति=जल सिंचन करते हैं, {दिव्यानि} शुद्धानि जलादीनि वस्तूनि कर्माणि वा=शुद्ध जल आदि वस्तुओं या कर्म से, (भूमिम्) पृथिवीम्=पृथिवी का, (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिञ्चन्ति वा=सिञ्चन करते हैं, (तान्)=उन, (वातान्) पवनान्=वायओं को, (विजानीत)=जानो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
हे मनुष्यो ! तुम लोगों के लिये परमेश्वर वायु के गुणों का उपदेश करता है कि कहे वा न कहे गुणवाले वायु बिजुली को उत्पन्न करके वर्षा द्वारा भूमि पर ओषधि आदि के सेचन से सब प्राणियों को सुख देनेवाले होते हैं, ऐसा तुम सब लोग जानो ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब, (ये) जो (एते) ये (ईशानकृतः) ऐश्वर्य्य युक्त करनेवाले हैं, (धुनयः) वृक्ष आदि को कम्पानेवाले हैं, (रिशादसः) जो हिंसक शत्रुओं का नाश करते है, (धूतयः) जो कम्पाते हैं, (परिज्रयः) जो हर ओर से जीर्ण करते हैं और (तविषीभिः) बल से (विद्युतः) विद्युत् युक्त (अक्रत) करते हैं । (ये) जो (पयसा) जल से (ऊधः) उषा के समान, (दुहन्ति) सिंचन करते हैं, {दिव्यानि} शुद्ध जल आदि वस्तुओं या कर्म से (भूमिम्) पृथिवी का, (पिन्वन्ति) सिञ्चन करते हैं, (तान्) उन (वातान्) पवनों को (विजानीत) जानो ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ईशानकृतः) य ईशानानैश्वर्य्ययुक्तान् कुर्वन्ति ते (धुनयः) रजो वृक्षादीन् कम्पयितारः (रिशादसः) ये रिशान् हिंसकान् रोगानदन्ति ते (वातान्) पवनान् (विद्युतः) स्तनयित्नून् (तविषीभिः) बलैः (अक्रत) कुर्वन्ति (दुहन्ति) पिप्रति (ऊधः) उषसम्। ऊधरित्युषर्नामसु पठितम्। (निघं०१.८) (दिव्यानि) शुद्धानि जलादीनि वस्तूनि कर्माणि वा (धूतयः) ये धून्वन्ति (भूमिम्) पृथिवीम् (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिञ्चन्ति वा (पयसा) जलेन रसेन वा (परिज्रयः) ये परितः सर्वतो जीर्णयन्ति ते ॥५॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं य एत ईशानकृतो धुनयो रिशादसो धूतयः परिज्रयस्तविषीभिर्विद्युतोऽक्रत ये पयसोधर्दुहन्ति भूमिं पिन्वन्ति सेवन्ते तान् वातान् विजानीत ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! युष्मभ्यमीश्वरो वायुगुणानुपदिशति। उक्तानुक्तगुणा वायवो विद्युदुत्पादनेन वृष्ट्या भूम्यौषधादिसेचनेन सर्वान् प्राणिनः सुखयन्तीति विजानीत ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! परमेश्वर तुमच्यासाठी वायूंच्या गुणांचा उपदेश करतो की कथित किंवा अकथित गुणयुक्त वायू विद्युत उत्पन्न करून वृष्टीद्वारे भूमीवर औषधी इत्यादींना सिंचित करून सर्व प्राण्यांना सुख देणारे असतात. हे तुम्ही जाणा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Creators and makers of ruling powers on earth, they are the movers and shakers of things and people. Destroyers of the destroyers, they generate winds and lightning with their blazing splendour. They distil the essence of energy from the celestial sources of nature and, vibrating every particle of matter and energy, they feed the earth with the nectar of vitality while they go round in spaces at their tempestuous speed.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are the Maruts is taught further in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should know the winds which make men prosperous when utilised properly in machines etc. which shake trees and other things, which eat away or destroy diseases, which make people tremble, which make things within sway, which make by their force the lightnings, which make the dawn by their water or sap, which spinkle the earth and serve it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(धुनयः) रजोवृक्षादीन् कम्पयितारः = Shakers of sandand trees etc. (ऊध:) उषसम् ऊधरित्युषर्नाम = Down. (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिंचयन्तिवा =Serve or sprinkle.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, God teaches you about the attributes of the Maruts (winds). These airs or winds make all people happy by generating lightning, by raining down water, by sprinking earth and herbs etc. You should know all this well.
Translator's Notes
The epithets used in the mantra are also applicable to to Maruts (the brave soldiers) who by their victory over the wicked persons destroy them, who make their people prosperous.
Subject of the mantra
Then how are the said winds, this subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (ye) =those, (ete) =these, (īśānakṛtaḥ) =Who are the ones who give us this opulence, (dhunayaḥ) =Those who make trees etc. tremble, (riśādasaḥ)=Who destroys violent enemies, (dhūtayaḥ)= who make tremble, (parijrayaḥ)= who decay from all sides and, (taviṣībhiḥ)=by force, (vidyutaḥ)=electrified, (akrata) =make, (ye) =those, (payasā) =by water, (ūdhaḥ) =like that, (duhanti) =irrigate, {divyāni}= by things like pure water or deeds, (bhūmim) =of earth, (pinvanti) =irrigate, (tān) =to those winds, (vātān) pavanoṃ ko (vijānīta) =know.
English Translation (K.K.V.)
O humans! All of you, who are the ones who give us this opulence, who make trees etc. tremble, who destroy violent enemies, who tremble, who decay from every side and electrify with force. Know those winds who irrigate with water like the dawn, who irrigate the earth with pure water etc. or with deeds.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O humans! God preaches to you the qualities of the air. Know this that they are the ones who have said and unsaid qualities, generate wind, electricity, rain and sprinkle oṣadhi (herbal medicines) etc
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
atman.sanatan@gmail.com
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal