ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 7
म॒हि॒षासो॑ मा॒यिन॑श्चि॒त्रभा॑नवो गि॒रयो॒ न स्वत॑वसो रघु॒ष्यदः॑। मृ॒गाइ॑व ह॒स्तिनः॑ खादथा॒ वना॒ यदारु॑णीषु॒ तवि॑षी॒रयु॑ग्ध्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हि॒षासः॑ । मा॒यिनः॑ । चि॒त्रऽभा॑नवः । गि॒रयः॑ । न । स्वऽत॑वसः । र॒घु॒ऽस्यदः॑ । मृ॒गाःऽइ॑व । ह॒स्तिनः॑ । स्वा॒द॒थ॒ । वना॑ । यत् । आरु॑णीषु । तवि॑षीः । अयु॑ग्ध्वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
महिषासो मायिनश्चित्रभानवो गिरयो न स्वतवसो रघुष्यदः। मृगाइव हस्तिनः खादथा वना यदारुणीषु तविषीरयुग्ध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठमहिषासः। मायिनः। चित्रऽभानवः। गिरयः। न। स्वऽतवसः। रघुऽस्यदः। मृगाःऽइव। हस्तिनः। खादथ। वना। यत्। आरुणीषु। तविषीः। अयुग्ध्वम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं यद्यथा महिषासश्चित्रभानवो मायिनः स्वतवसो रघुष्यदो गिरवो नेव जलानि हस्तिनो मृगाइव च वना खादथ तथैतेषां तविषीरारुणीष्वयुग्ध्वम् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(महिषासः) पूजितगुणा महान्तः। महिष इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (मायिनः) प्रशस्ता माया प्रज्ञा विद्यते येभ्यस्ते (चित्रभानवः) चित्रा अद्भुता भानवो दीप्तयो येभ्यस्ते (गिरयः) ये जलं गिलन्ति शब्दं वा गृणन्ति ते मेघाः (न) इव (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषु ते (रघुष्यदः) रघव आस्वादाः स्यदश्च प्रश्रवणानि प्रकृष्टगमनानि येषां ते (मृगाइव) हरिणवद् वेगवन्तः (हस्तिनः) किरणाः (खादथ) खादन्ति (वना) वनानि जलानि वा (यत्) यथा (आरुणीषु) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यैस्तान्यरुणानि यानानि तेषामिमाः क्रियास्तासु (तविषीः) बलानि (अयुग्ध्वम्) योजयत ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्नहि वायुभिर्विना गमनभोजनयानचालनादीनि कर्माणि कर्त्तुं शक्यन्ते तस्मादेते वायवो विमाननौकादियानेषु संप्रयोज्याऽग्निजलयोगेन यानानि सद्यश्चालनीयानि ॥ ७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग (यत्) जैसे (महिषासः) बड़े-बड़े सेवन करने योग्य गुणों से युक्त (चित्रभानवः) चित्र-विचित्र दीप्तिवाले (मायिनः) उत्तम बुद्धि होने के हेतु (स्वतवसः) अपने बल से बलवान् (रघुष्यदः) अच्छे स्वाद के कारण वा उत्तम चलन क्रिया से युक्त (गिरयो न) मेघों के समान जलों को तथा (हस्तिनः) हाथी और (मृगाइव) बलवाले हरिणों के समान वेगयुक्त वायु (वना) जल वा वनों को (खादथ) भक्षण करते हैं, वैसे इन (तविषीः) बलों को (आरुणीषु) प्राप्त होते हैं, सुख जिन्हों में, उन सेना और यानों की क्रियाओं में (अयुग्ध्वम्) ठीक-ठीक विचारपूर्वक संयुक्त करो ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि पवनों के विना हमारे चलना, खाना, यान का चलाना आदि काम भी सिद्ध नहीं हो सकते, इससे इन वायुओं को सेना, विमान और नौका आदि यानो में संयुक्त करके अग्नि जलों के संयोग से यानों को शीघ्र चलाया करें ॥ ७ ॥
विषय
महिष व मायी
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित मरुतों प्राणों की साधना करनेवाले पुरुष (महिषासः) = महान् होते हैं, प्रभु की पूजा करनेवाले होते हैं [मह पूजायाम्] । २. (मायिनः) = प्रज्ञावान् होते हैं । ३. (चित्रभानवः) = अद्भुत दीप्तिवाले होते हैं । ४. (गिरयः न) = [गृणाति इति गुरुः - गिरिः] ज्ञान देनेवाले गुरुओं के समान (स्वतवसः) = आत्मिक बलवाले होते हैं । ज्ञान के साथ ये अध्यात्म - वृत्तिवाले होते हैं । ५. (रघुष्यदः) = शीघ्र गमनवाले, अर्थात् प्रत्येक कार्य को स्फूर्ति से करनेवाले होते हैं । ६. (मृगाः इव) = मृगों की भाँति (हस्तिनः) = हाथियों की भाँति (वना) = वानस्पतिक भोजनों को ही (खादथ) = सेवन करते हैं । इन वानस्पतिक भोजनों से इनके जीवन में भी मृगों की स्फूर्ति और हाथियों का बल प्रविष्ट होता हैं । ७. ये महिष व मायी, चित्रभानु व स्वतवस् तथा रघुष्यद् व्यक्ति वे ही हैं (यदारुणीषु) = जिनकी अरुणवर्णा, अर्थात् तेजस्वी इन्द्रियरूप गौवों में हे मरुतो ! आप (तविषीः) = बलों को (अयुग्ध्वम्) = जोतते हो, युक्त करते हो । प्राणसाधना से इन्द्रियाँ बलसम्पन्न होती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना मनुष्य को ‘महिष, मायी, चित्रभानु, स्वतवस् व रघुष्यद्’ बना देती है ।
विषय
पर्वतों और हस्तियों के समान वीर जन ।
भावार्थ
हे वीर पुरुषो! आप लोग (महिषासः) बड़े बलवान्, (मायिनः) अति बुद्धिचातुरी से युक्त, ( चित्रभानवः ) अद्भुत कान्तिमान्, ( गिरयः न ) पर्वतों और मेघों के समान ( स्वतवसः ) अपने पराक्रम पर खड़े होने वाले, ( रघुष्यदः ) अति वेग से जानेवाले हों । ( यत् ) जब आप लोग (अरुणीषु) लाल वर्णवाली, तेजस्विनी, या सुख देनेवाले रथों, यानों की बनी सेनाओं में (तवीषीः) समस्त बलों या सैन्यदलों को (अयुग्ध्वम्) जोड़ दें । तब भी ( हस्तिनः ) हाथी नामक (मृगाः) पशु जिस प्रकार ( वनानि ) जंगलों को खा जाते या उपभोग करते हैं उनको तहस नहस करते हैं उसी प्रकार तुम भी ( हस्तिनः) क्रियाकुशल और सिद्धहस्त बनकर ( मृगाः ) शत्रुओं को खोजनेवाले होकर ( वना ) शत्रु सेनासमूहों को (खादथ) विनाश करो और ( वना ) भोग्य ऐश्वर्यों को (खादथ) भोग करो । वायुपक्ष में—वायुगण बड़े सामर्थ्य वाले, भूमि पर बहनेवाले (मायिनः) कुटिलगामी, अद्भुत दीप्तिवाले, नाना अग्नियों वाले, (गिरयः) जलों को अपने भीतर लेनेवाले, स्वतः बलवान्, वेग से जानेवाले हैं। वे भी हाथियों के समान वनों को वेग से तोड़ते फोड़ते हैं और वे (अरुणीषु) प्रातःवेलाओं में बलों को प्राप्त करावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वे पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं यत् यथा महिषासः चित्रभानवः मायिनः स्वतवसः रघुष्यदः गिरयः न इव जलानि हस्तिनः मृगाइव च वना खादथ तथा एतेषां तविषीः आरुणीषु अयुग्ध्वम् ॥७॥
पदार्थ
हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यत्) यथा=जिस प्रकार से, (महिषासः) पूजितगुणा महान्तः=गुणों से पूजित महान् हो, (चित्रभानवः) चित्रा अद्भुता भानवो दीप्तयो येभ्यस्ते= अद्भुत दीप्तियोंवाले हो, (मायिनः) प्रशस्ता माया प्रज्ञा विद्यते येभ्यस्ते=प्रशस्त माया और प्रज्ञा वाले हो, (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषु ते=अपने बलवाले, (रघुष्यदः) रघव आस्वादाः स्यदश्च प्रश्रवणानि प्रकृष्टगमनानि येषां ते= तीव्र गतिवाले झरने, (गिरयः) ये जलं गिलन्ति शब्दं वा गृणन्ति ते मेघाः=बादल के, (न) इव=समान, (जलानि)= जलों को, (हस्तिनः) किरणाः= किरणों के, (च)=और, (मृगाइव) हरिणवद् वेगवन्तः=हिरन के समान वेग से दौड़ते हुए, (वना) वनानि जलानि वा=वनों और जलों का, (खादथ) खादन्ति= उपभोग कर देते हैं, (तथा)=वैसे ही, (एतेषाम्)=इन सबके, (तविषीः) बलानि=बल, (आरुणीषु) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यैस्तान्यरुणानि यानानि तेषामिमाः क्रियास्तासु=सुख को प्राप्त हो जाते हैं, ऐसे सूर्य के यानों की क्रियाओं में, (अयुग्ध्वम्) योजयत=जोड़ो ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। पवनों के विना हमारे चलने, खाने, यान के चलाने आदि काम नहीं किये जा सकते हैं, इसलिये मनुष्यों के द्वारा इन वायुओं को विमान और नौका आदि यानो में अच्छी तरह से प्रयोग करके, अग्नि और जलों के संयोग से यानों को तत्काल चलाना चाहिये ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यत्) जिस प्रकार से (महिषासः) गुणों से पूजित महान् हो, (चित्रभानवः) अद्भुत दीप्तियोंवाले हो, (मायिनः) प्रशस्त माया और प्रज्ञा वाले हो। (स्वतवसः) अपने बलवाले (रघुष्यदः) तीव्र गतिवाले झरने (गिरयः) बादल के (न) समान (जलानि) जलों को (हस्तिनः) किरणों के (च) और (मृगाइव) हिरन के समान वेग से दौड़ते हुए (वना) वनों और जलों का (खादथ) उपभोग कर देते हैं, (तथा) वैसे ही (एतेषाम्) इन सबके (तविषीः) बल (आरुणीषु) सुख को प्राप्त हो जाते हैं, ऐसे [बलों को] सूर्य के यानों की क्रियाओं में (अयुग्ध्वम्) जोड़ो ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (महिषासः) पूजितगुणा महान्तः। महिष इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (मायिनः) प्रशस्ता माया प्रज्ञा विद्यते येभ्यस्ते (चित्रभानवः) चित्रा अद्भुता भानवो दीप्तयो येभ्यस्ते (गिरयः) ये जलं गिलन्ति शब्दं वा गृणन्ति ते मेघाः (न) इव (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषु ते (रघुष्यदः) रघव आस्वादाः स्यदश्च प्रश्रवणानि प्रकृष्टगमनानि येषां ते (मृगाइव) हरिणवद् वेगवन्तः (हस्तिनः) किरणाः (खादथ) खादन्ति (वना) वनानि जलानि वा (यत्) यथा (आरुणीषु) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यैस्तान्यरुणानि यानानि तेषामिमाः क्रियास्तासु (तविषीः) बलानि (अयुग्ध्वम्) योजयत ॥७॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं यद्यथा महिषासश्चित्रभानवो मायिनः स्वतवसो रघुष्यदो गिरये नेव जलानि हस्तिनो मृगाइव च वना खादथ तथैतेषां तविषीरारुणीष्वयुग्ध्वम् ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्नहि वायुभिर्विना गमनभोजनयानचालनादीनि कर्माणि कर्त्तुं शक्यन्ते तस्मादेते वायवो विमाननौकादियानेषु संप्रयोज्याऽग्निजलयोगेन यानानि सद्यश्चालनीयानि ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. वायूशिवाय आमचे चालणे, खाणे, यान चालविणे इत्यादी कामही सिद्ध होऊ शकत नाही. यामुळे माणसांनी या वायूंना सेना, विमान व नौका इत्यादी यानात संयुक्त करून अग्नी जलाच्या संयोगाने यानांना तात्काळ चालवावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Mighty strong and strengthening, magical stimulators of intelligence and performance, various and versatile in heat and light, innately powerful and firmly rooted as mountains and inherently rich as clouds, the winds are impetuous in motion as the shooting deer and mighty as the elephants which destroy the forests. If you use these brilliant powers of light and winds in your fieriest forces of creation and defence you would destroy the destroyers and protect the beauties of life and nature and enjoy yourselves.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are Maruts is taught further in the seventh mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
You should know and properly utilise these winds which are like the brave heroes who are great possessors of knowledge and wisdom, bright, shining, like mountains in stability or firmness and quick in motion like the deer, mighty like the elephants. They break down or shatter even the forests and shake the waters. Utilise them in various ways to make them speedy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(महिषा:) पूजितगुणा:, महान्त: महिष इति महन्ताम ! (निघ० ३ ३) = Great. (वना) वनानि जलानि वा = Forest or waters. (वनमिति उदक नाम ) (निघ० १.१२) Tr. (अरुणीषु ) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यैस्तानि अरुणानि यानानि तेषाम् इमा: क्रियाः तासु । = In the process of various cars or vehicles.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upmalankara in the Mantra. Men can not make any movement, eating, riding etc. without the winds. Therefore these winds should be properly utilised in aeroplanes, boats and steamers etc. and with the combination of fire and water quick moving vehicles should be constructed.
Subject of the mantra
Then how are those aforesaid air, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yat) =in the manner, (mahiṣāsaḥ)= are great, worshiped with good qualities, (citrabhānavaḥ)=You have amazing radiance, (māyinaḥ) =have immense illusion and wisdom, (svatavasaḥ) =with own strength, (raghuṣyadaḥ)=fast-moving waterfalls, (girayaḥ) =of cloud, (na) =like, (jalāni) =to waters, (hastinaḥ) =of rays, (ca) =and, (mṛgāiva)= running as fast as a deer, (vanā)= of forests and waters, (khādatha) =consume, (tathā) =similarly, (eteṣām) =of all these, (taviṣīḥ)= forces, (āruṇīṣu) attain happiness like this, [baloṃ ko]=to forces, {sūrya ke yānoṃ kī kriyāoṃ meṃ} =In the actions of the Sun's vehicles, (ayugdhvam)= combine.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Just as you all are great, worshiped with good qualities, have amazing radiance, have immense illusion and wisdom. The fast-moving waterfalls with their strength consume the clouds-like waters, the rays and the forests and waters running with the speed of a deer, in the same way all these forces attain happiness, combine such forces to the actions of the Sun's vehicle
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra at two places. Without winds, we cannot do things like walking, eating, driving vehicles, etc., therefore humans should use these winds properly in vehicles like planes, boats etc. and with the combination of fire and water, they should move the vehicles immediately.
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