ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 69/ मन्त्र 3
ऋषिः - पराशरः शक्तिपुत्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
वे॒धा अदृ॑प्तो अ॒ग्निर्वि॑जा॒नन्नूध॒र्न गोनां॒ स्वाद्मा॑ पितू॒नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठवे॒धाः । अदृ॑प्तः । अ॒ग्निः । वि॒ऽज॒नन् । ऊधः॑ । न । गोना॑म् । स्वाद्म॑ । पि॒तू॒नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वेधा अदृप्तो अग्निर्विजानन्नूधर्न गोनां स्वाद्मा पितूनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठवेधाः। अदृप्तः। अग्निः। विऽजानन्। ऊधः। न। गोनाम्। स्वाद्म। पितूनाम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 69; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
सर्वैर्मनुष्यैर्यो गोनामूधर्न जने शेवो न वेधा अदृप्तः स्वाद्म पितूनां दुरोणे रण्व आहूर्यः सभाया मध्ये निषत्तो विजानन् सन्नग्निरिव वर्त्तते स सदैव सेवनीयः ॥ २ ॥
पदार्थः
(वेधाः) ज्ञानवान्। वेधा इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (अदृप्तः) मोहरहितः (अग्निः) अग्निरिव ज्ञानप्रकाशकः (विजानन्) सर्वविद्या अनुभवन् (ऊधः) दुग्धाधिकरणम् (न) इव (गोनाम्) धेनूनाम्। अत्र गोः पादान्ते इति वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यपादान्तेऽपि नुट्। (स्वाद्म) स्वादिष्ठानाम्। अत्र सुपां सुलुगित्यामो लोपः। (पितूनाम्) अन्नानाम्। पितुरित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (जने) गुणैरुत्कृष्टे सेवनीये (न) इव (शेवः) सुखकारी (आहूर्यः) आह्वातव्यः। अत्र ह्वेञ् धातोर्बाहुलकाद्यक् रुडागमश्च। (सन्) (मध्ये) सभायाः (निषत्तः) निषण्णः (रण्वः) रमयिता (दुरोणे) गृहे। दुरोण इति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा गवां दुग्धस्थानं यथा च विद्वज्जनः सर्वस्य हितकारी भवति, तथैव शुभैर्गुणैर्व्याप्ताः सभादिषु स्थिताः सभाध्यक्षादयो यूयं सर्वान् सुखयत ॥ २ ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर यह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
सब मनुष्यों को चाहिये कि जो (गोनाम्) गौओं के (ऊधः) दूध के स्थान के (न) समान (जने) गुणों से उत्तम सेवने योग्य मनुष्य में (शेवः) सुख करनेवाले के (न) समान (वेधाः) पूर्ण ज्ञानयुक्त (अदृप्तः) मोहरहित (स्वाद्म) स्वादिष्ठ (पितूनाम्) अन्नों का भोक्ता (दुरोणे) घर में (रण्वः) रमण करनेवाला (आहूर्य्यः) आह्वान करने योग्य सभा के मध्य में (निषत्तः) स्थित (विजानन्) सब विद्या का अनुभव करता हुआ (अग्निः) अग्नि के तुल्य ज्ञानप्रकाश से युक्त सभाध्यक्ष है, इसका सदा सेवन करो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोगों को चाहिये कि जैसे गौओं का ऐन दूध आदि से सबको सुख देता है, वैसे विद्वान् मनुष्य सब का उपकारी होता है, वैसे ही सब में अभिव्याप्त जीव के मध्य में अन्तर्य्यामी रूप से व्याप्त ईश्वर पक्षपात को छोड़ के न्याय करता है, वैसे सभा आदि में स्थित सभापति तुम सबको सुख करानेवाले होओ ॥ २ ॥
विषय
वेधा व अदृप्त
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु द्वारा रक्षित व्यक्ति (वेधाः) = विधाता - निर्माता होता है । वह राष्ट्र में कुछ - न - कुछ निर्माण का कार्य करता है, परन्तु (अदृप्तः) = वह उन कर्मों का गर्व नहीं करता । कर्म करता और उन्हें प्रभु - अर्पण करता चलता है । इस प्रकार वह (कुरु कर्म त्यजेति च) = इस वैदिक सिद्धान्त का पालन करता है । इस सिद्धान्त पर आचरण करनेवाला यह व्यक्ति (अग्निः) = अग्रणी - आगे और आगे चलनेवाला प्रगतिशील होता है । यह विघ्नों से घबरा नहीं जाता ।
२. ऐसा बनने के लिए यह (गोनां ऊधः न) = गौओं के ऊधस् की भाँति, गौओं से प्राप्त दूध की भाँति (पितूनाम्) = अन्नों के (स्वाद्म) = स्वादों को (विजानन्) = विशेषरूप से जाननेवाला होता है । इसे गौओं के दूध के स्वाद का पता होता है और अन्नों के स्वाद को यह जानता है । (मद्य) = मांसादि के स्वाद से यह अनभिज्ञ होता है, अर्थात् उन पदार्थों का यह कभी प्रयोग नहीं करता । वस्तुतः इस सात्त्विक आहार का ही यह परिणाम है कि यह अहंकारशून्य व प्रगतिशील होता है ।
३. इस प्रकार सात्त्विक वृत्तिवाला यह व्यक्ति जने लोगों में (शेवः न) = सुखकर की भाँति (आहूर्यः) = आह्वान के योग्य होता है । यह सब लोगों के हित की बात सोचता है और इसी से सब आपद्ग्रस्त मनुष्य समय - समय पर इसे ही पुकारते हैं ।
४. आहातव्य (सन्) = होता हुआ यह (मध्ये निषत्तः) = लोगों के मध्य में आसीन होता है । यह संसार को माथापञ्ची व मायाजाल समझकर दूर एकान्त स्थानों को ही नहीं ढूँढता रहता । यह (दुरोणे) = गृह में (रण्वः) = रमणीय होता है । घर की इसके कारण शोभा बढ़ती हैं । दूरोणे का अर्थ [दुर् ओण् - अपनयन] बुराई का अपनयन होने पर - यह भी हो सकता है कि बुराई को दूर कर यह रमणीय जीवनवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम कर्म करें परन्तु उन कर्मों का गर्व न करें और अपने जीवन को निर्दोष व रमणीय बनाएँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांना विज्ञान व विद्वानाच्या संगतीशिवाय सर्व सुख प्राप्त होऊ शकत नाही, हे जाणले पाहिजे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord of light and intelligence, free from pride and infatuation, knower of right and wrong, light and dark, generous as cow’s udders overflowing with milk, Agni ripens and sweetens the food of life. Like a benefactor of humanity, worthy of invocation and invitation, sanctified in the middle of the home, it adds to the delight of the family.
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