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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 69/ मन्त्र 4
    ऋषिः - पराशरः शक्तिपुत्रः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    जने॒ न शेव॑ आ॒हूर्यः॒ सन्मध्ये॒ निष॑त्तो र॒ण्वो दु॑रो॒णे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जने॑ । न । शेव॑ । आ॒ऽहूर्यः॑ । सन् । मध्ये॑ । निऽस॑त्तः । र॒ण्वः । दु॒रो॒णे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जने न शेव आहूर्यः सन्मध्ये निषत्तो रण्वो दुरोणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जने। न। शेवः। आऽहूर्यः। सन्। मध्ये। निऽसत्तः। रण्वः। दुरोणे ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 69; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    सर्वैर्मनुष्यैर्यो गोनामूधर्न जने शेवो न वेधा अदृप्तः स्वाद्म पितूनां दुरोणे रण्व आहूर्यः सभाया मध्ये निषत्तो विजानन् सन्नग्निरिव वर्त्तते स सदैव सेवनीयः ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (वेधाः) ज्ञानवान्। वेधा इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (अदृप्तः) मोहरहितः (अग्निः) अग्निरिव ज्ञानप्रकाशकः (विजानन्) सर्वविद्या अनुभवन् (ऊधः) दुग्धाधिकरणम् (न) इव (गोनाम्) धेनूनाम्। अत्र गोः पादान्ते इति वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यपादान्तेऽपि नुट्। (स्वाद्म) स्वादिष्ठानाम्। अत्र सुपां सुलुगित्यामो लोपः। (पितूनाम्) अन्नानाम्। पितुरित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (जने) गुणैरुत्कृष्टे सेवनीये (न) इव (शेवः) सुखकारी (आहूर्यः) आह्वातव्यः। अत्र ह्वेञ् धातोर्बाहुलकाद्यक् रुडागमश्च। (सन्) (मध्ये) सभायाः (निषत्तः) निषण्णः (रण्वः) रमयिता (दुरोणे) गृहे। दुरोण इति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा गवां दुग्धस्थानं यथा च विद्वज्जनः सर्वस्य हितकारी भवति, तथैव शुभैर्गुणैर्व्याप्ताः सभादिषु स्थिताः सभाध्यक्षादयो यूयं सर्वान् सुखयत ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर यह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिये कि जो (गोनाम्) गौओं के (ऊधः) दूध के स्थान के (न) समान (जने) गुणों से उत्तम सेवने योग्य मनुष्य में (शेवः) सुख करनेवाले के (न) समान (वेधाः) पूर्ण ज्ञानयुक्त (अदृप्तः) मोहरहित (स्वाद्म) स्वादिष्ठ (पितूनाम्) अन्नों का भोक्ता (दुरोणे) घर में (रण्वः) रमण करनेवाला (आहूर्य्यः) आह्वान करने योग्य सभा के मध्य में (निषत्तः) स्थित (विजानन्) सब विद्या का अनुभव करता हुआ (अग्निः) अग्नि के तुल्य ज्ञानप्रकाश से युक्त सभाध्यक्ष है, इसका सदा सेवन करो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोगों को चाहिये कि जैसे गौओं का ऐन दूध आदि से सबको सुख देता है, वैसे विद्वान् मनुष्य सब का उपकारी होता है, वैसे ही सब में अभिव्याप्त जीव के मध्य में अन्तर्य्यामी रूप से व्याप्त ईश्वर पक्षपात को छोड़ के न्याय करता है, वैसे सभा आदि में स्थित सभापति तुम सबको सुख करानेवाले होओ ॥ २ ॥

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    विषय

    वेधा व अदृप्त 

    पदार्थ


    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु द्वारा रक्षित व्यक्ति (वेधाः) = विधाता - निर्माता होता है । वह राष्ट्र में कुछ - न - कुछ निर्माण का कार्य करता है, परन्तु (अदृप्तः) = वह उन कर्मों का गर्व नहीं करता । कर्म करता और उन्हें प्रभु - अर्पण करता चलता है । इस प्रकार वह (कुरु कर्म त्यजेति च) = इस वैदिक सिद्धान्त का पालन करता है । इस सिद्धान्त पर आचरण करनेवाला यह व्यक्ति (अग्निः) = अग्रणी - आगे और आगे चलनेवाला प्रगतिशील होता है । यह विघ्नों से घबरा नहीं जाता । 

    २. ऐसा बनने के लिए यह (गोनां ऊधः न) = गौओं के ऊधस् की भाँति, गौओं से प्राप्त दूध की भाँति (पितूनाम्) = अन्नों के (स्वाद्म) = स्वादों को (विजानन्) = विशेषरूप से जाननेवाला होता है । इसे गौओं के दूध के स्वाद का पता होता है और अन्नों के स्वाद को यह जानता है । (मद्य) = मांसादि के स्वाद से यह अनभिज्ञ होता है, अर्थात् उन पदार्थों का यह कभी प्रयोग नहीं करता । वस्तुतः इस सात्त्विक आहार का ही यह परिणाम है कि यह अहंकारशून्य व प्रगतिशील होता है । 

    ३. इस प्रकार सात्त्विक वृत्तिवाला यह व्यक्ति जने लोगों में (शेवः न) = सुखकर की भाँति (आहूर्यः) = आह्वान के योग्य होता है । यह सब लोगों के हित की बात सोचता है और इसी से सब आपद्ग्रस्त मनुष्य समय - समय पर इसे ही पुकारते हैं । 

    ४. आहातव्य (सन्) = होता हुआ यह (मध्ये निषत्तः) = लोगों के मध्य में आसीन होता है । यह संसार को माथापञ्ची व मायाजाल समझकर दूर एकान्त स्थानों को ही नहीं ढूँढता रहता । यह (दुरोणे) = गृह में (रण्वः) = रमणीय होता है । घर की इसके कारण शोभा बढ़ती हैं । दूरोणे का अर्थ [दुर् ओण् - अपनयन] बुराई का अपनयन होने पर - यह भी हो सकता है कि बुराई को दूर कर यह रमणीय जीवनवाला होता है । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम कर्म करें परन्तु उन कर्मों का गर्व न करें और अपने जीवन को निर्दोष व रमणीय बनाएँ । 

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    विषय

    आचार्य उत्तम, शासक, सभाध्यक्ष आदि का वर्णन

    भावार्थ

    हे राजन् ! सभाध्यक्ष ! ( ते ) तेरे नियत किये एवं उपदिष्ट ( एता ) इन ( व्रता ) कर्तव्यों और धर्मों का ( नकिः ) कोई भी (मिनन्ति) नाश नहीं करे, कोई भी नहीं तोड़ें । ( यत् ) जिस तू ( एभ्यः) इन ( नृभ्यः ) मनुष्यों के हित के लिये ( श्रुष्टिम् ) अति शीघ्र ही सुख जनक कार्य, प्रबन्ध अथवा उत्तम अन्नादि भोग्य पदार्थ ( चकर्थ ) प्रदान करता है । और ( यत् ) जिस कारण सेतू (समानैः) अपने समान मान आदर और बल से युक्त विद्वान् (नृभिः) नायक, नेता पुरुषों के साथ ( युक्तः ) मिलकर ( रपांसि ) आज्ञा-वचनों को ( विवेः ) प्रकट करता है। और उनसे मिलकर ( यत् ) जब ( ते ) तेरा ( यत् ) जो भी कार्य होता है ( तत् ) उसको भी कोई (नकिः अहन्) कोई नाश नहीं करे । अथवा—( यत्-ते दंसः अहन् ) जब कोई तेरे कार्य का नाश करे, (तत्) तभी तू (नृभिः युक्तः रपांसि विवेः) अपने समान बलवान् पुरुषों से मिलकर उनके सहोद्योग से बाधक कारणों को दूर कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशरः शक्तिपुत्र ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पंक्तिः । २, ३ निचृत् पंक्तिः। ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ विराट् पंक्तिः पंचर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर यह विद्वान् कैसा हो, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- सर्वैः मनुष्यैः यः गोनाम् ऊधः न जने शेवः न वेधाः अदृप्तः स्वाद्म पितूनां दुरोणे रण्वः आहूर्यः सभायाः मध्ये निषत्तः विजानन् सन् अग्निः इव वर्त्तते स सदैव सेवनीयः ॥२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (सर्वैः)=समस्त, (मनुष्यैः)= मनुष्यों के द्वारा, (यः)=जो, (गोनाम्) धेनूनाम्=गायों के, (ऊधः) दुग्धाधिकरणम्=थन के, (न) इव=समान, (जने) गुणैरुत्कृष्टे सेवनीये=उत्कृष्ट गुणों में जो पालन करने योग्य हैं, (शेवः) सुखकारी=सुख देनेवालों के, (न) इव=समान, (वेधाः) ज्ञानवान्= ज्ञानवान्, (अदृप्तः) मोहरहितः = मोह रहित, (स्वाद्म) स्वादिष्ठानाम्= स्वादिष्ठ, (पितूनाम्) अन्नानाम्=अन्नों के, (दुरोणे) गृहे=घर में, (रण्वः) रमयिता=आनन्द देनेवाला, (आहूर्यः) आह्वातव्यः=आह्वान करने योग्यों की, (मध्ये) सभायाः=सभा में, (निषत्तः) निषण्णः=आसीन होता हुआ, (विजानन्) सर्वविद्या अनुभवन्=समस्त विद्याओं का अनुभव करता, (सन्)= हुआ, (अग्निः) अग्निरिव ज्ञानप्रकाशकः=अग्नि के समान ज्ञान के प्रकाशक के, (इव)= समान, (वर्त्तते)=होता है, (सः)=वह, (सदैव)=सदैव, (सेवनीयः)=पूजा किये जाने के योग्य होता है ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे गौओं का दूध देने के स्थान हैं और जैसे विद्वान् मनुष्य सबके हितकारी होते है, वैसे ही शुभ गुणों से व्याप्त सभा आदि में स्थित सभा आदि का अध्यक्ष तुम सबको सुखी करानेवाला होवे॥२॥ (ऋग्वेद ०१.६९.०२)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (सर्वैः)=समस्त (मनुष्यैः) मनुष्यों के द्वारा (यः) जो (गोनाम्) गायों के (ऊधः) थन के (न) समान (जने) पालन करने योग्य उत्कृष्ट गुणों से (शेवः) सुख देनेवालों के (न) जैसा (वेधाः) ज्ञानवान्, (अदृप्तः) मोह रहित, (स्वाद्म) स्वादिष्ठ (पितूनाम्) अन्नों के द्वारा (दुरोणे) घर में (रण्वः) आनन्द देनेवाला, (आहूर्यः) आह्वान करने योग्यों की (मध्ये) सभा में (निषत्तः) आसीन होता हुआ, (विजानन्) समस्त विद्याओं का अनुभव करता (सन्) हुआ, (अग्निः) ज्ञान प्रकाशक अग्नि के समान के (इव) समान (वर्त्तते) होता है, (सः) वह (सदैव) सदैव (सेवनीयः) पूजा किये जाने के योग्य होता है ॥२॥

    संस्कृत भाग

    स्वर सहित पद पाठ वे॒धाः । अदृ॑प्तः । अ॒ग्निः । वि॒ऽज॒नन् । ऊधः॑ । न । गोना॑म् । स्वाद्म॑ । पि॒तू॒नाम् ॥ जने॑ । न । शेव॑ । आ॒ऽहूर्यः॑ । सन् । मध्ये॑ । निऽस॑त्तः । र॒ण्वः । दु॒रो॒णे ॥ विषयः- पुनर्विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा गवां दुग्धस्थानं यथा च विद्वज्जनः सर्वस्य हितकारी भवति, तथैव शुभैर्गुणैर्व्याप्ताः सभादिषु स्थिताः सभाध्यक्षादयो यूयं सर्वान् सुखयत ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा परमेश्वर किंवा पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान भेदभाव न करता मनुष्य इत्यादी प्राण्यांवर खरे उपकार करतात तसे सर्व माणसांनी वागावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord of light and intelligence, free from pride and infatuation, knower of right and wrong, light and dark, generous as cow’s udders overflowing with milk, Agni ripens and sweetens the food of life. Like a benefactor of humanity, worthy of invocation and invitation, sanctified in the middle of the home, it adds to the delight of the family.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a learned persons be is taught further in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That man should be always served or respected by all who being wise, humble and discriminating is well-versed in all sciences, is Illuminator of all knowledge like the fire, is like the udder of the cows which gives sweetness to the milk, eater of nourishing food who diffuses happiness like a benevolent person, amongst mankind. He like a bliss-giver to be invited by men, sits gracious in the middle of the house or an assembly like Agni or leader.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वेधा:) ज्ञानवान् वेधा इति मेधाविनाम (निघ० ३.१५ ) = Wise. (अदृप्तः ) मोहरहितः = Free from illusion or pride, humble. पितूनाम्) अन्नानाम् पितुरित्यन्ननाम (निघ० २.७) = Of food. (दुरोणे) गृहे दुरोणे इति गृहनाम (निघ० ३.४ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the udder of the cows and a learned wiseman are benevolent to all, in the same manner, the President of the assembly sitting in the assembly etc. and others should give joy and happiness to all.

    Translator's Notes

    Prof. Wilson has translated वेधा: as wise and Griffith as (Sage)अदृपतः has been translated both by Wilson and Griffith as humble. Are these epithets applicable in the case of the material fire and yet these Western translators take Agni only as fire while Rishi Dayananda Sarasvati taking such epithets as वेधाः कविः, विजानन् प्रचेताः, त्रिश्वचर्षणिः etc. has interpreted the word Agni as God or a learned leader etc.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that scholar should be?This subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (sarvaiḥ)=All, (manuṣyaiḥ)by human being, (yaḥ) =who, (gonām) =of cow’s, (ūdhaḥ) =of udder, (na) =like,(jane)=excellent qualities to follow, (śevaḥ) =who gives happiness (na) =like, (vedhāḥ) =knowledgeable, (adṛptaḥ) =free from attachment, (svādma) =delicious, (pitūnām) =by foods, (duroṇe) =in the house, (raṇvaḥ) ānanda =giver, (āhūryaḥ)=of those capable of being invoked, (madhye) =in the gathering, (niṣattaḥ) =siting, (vijānan+ san) =experiencing all knowledge, (agniḥ)= like the illuminator of knowledge fire, (iva) =like, (varttate) =is, (saḥ) =that, (sadaiva) =always,(sevanīyaḥ)= Is worthy of being worshipped.

    English Translation (K.K.V.)

    By all human beings, who is like the udder of a cow, who gives happiness through excellent qualities, who is knowledgeable, free from attachment, who gives happiness in the house through delicious food, who sits in the gathering of those who are worthy of being invoked, who experiences all the knowledge. The illuminator of knowledge is like fire, he is always worthy of being worshipped.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as figurative in this mantra. Just as there are places to milk cows and just as learned people are beneficial to everyone, in the same way, the president of the meeting etc. situated in a meeting place filled with auspicious qualities should be the one who makes you all happy.

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