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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 69/ मन्त्र 8
    ऋषिः - पराशरः शक्तिपुत्रः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा विराट् स्वरः - पञ्चमः

    तत्तु ते॒ दंसो॒ यदह॑न्त्समा॒नैर्नृभि॒र्यद्यु॒क्तो वि॒वे रपां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । तु । ते॒ । दंसः॑ । यत् । अह॑न् । स॒मा॒नैः । नृऽभिः॑ । यत् । यु॒क्तः । वि॒वेः । रपां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्तु ते दंसो यदहन्त्समानैर्नृभिर्यद्युक्तो विवे रपांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। तु। ते। दंसः। यत्। अहन्। समानैः। नृऽभिः। यत्। युक्तः। विवेः। रपांसि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 69; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यानि ते तवैतानि व्रतानि सन्ति तानि केऽपि न मिनन्ति। तानि कानीत्याह। यत्त्वमेभ्यो नृभ्यो यं श्रुष्टिं चकर्थ रपांसि विवेः। यत्ते तवेदं समानैर्नृभिः सह दंसोऽस्ति, तत्तु कश्चिदपि नकिरहन् हन्ति ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (नकिः) नहि (ते) तव (एताः) एतानि (व्रता) व्रतानि शीलानि (मिनन्ति) हिंसन्ति (नृभ्यः) मनुष्यादिभ्यः (यत्) यम् (एभ्यः) वर्त्तमानेभ्यः (श्रुष्टिम्) शीघ्रम् (चकर्थ) करोति (तत्) वक्ष्यमाणम् (तु) पश्चादर्थे (ते) तव (दंसः) कर्म (यत्) यैः (युक्तः) सहितः (विवेः) प्राप्नोषि। अत्र बहुलं छन्दसीति श्लुः। (रपांसि) व्यक्तोपदेशप्रकाशकानि शोभनानि वचनानि ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    सर्वेर्मनुष्यैर्यथा परमेश्वर आप्तो विद्वान् वा पक्षपातं विहाय मनुष्यादिषु सत्यैरुपकारैः कर्मभिः सह वर्त्तते, तथैव सदा वर्त्तितव्यम् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह विद्वान् कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! जो आपके (एताः) ये (व्रता) व्रत हैं वे कोई भी (नकिः) नहीं (मिनन्ति) हिंसा कर सकते हैं (यत्) जो आप (एभ्यः) इन (नृभ्यः) मनुष्यों के लिये (यत्) जिस (श्रुष्टिम्) शीघ्र सत्यविद्यासमूह को (चकर्थ) करते हो वा (रंपासि) सत्कर्म और व्यक्त उपदेशयुक्त वचनों को (विवेः) प्राप्त करते हो तथा (यत्) जो (ते) आप का (इदम्) यह (समानैः) विद्यादि गुणों में तुल्य (नृभिः) मनुष्यों के साथ (दंसः) कर्म है (तत्) उसको (तु) कोई मनुष्य (नकिः) नहीं (अहन्) हनन कर सकता, जो (युक्तः) युक्त होकर आप करते हो, उसको हम लोग भी सत्य ही जानते हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिये कि जैसे परमेश्वर वा पूर्णविद्यायुक्त विद्वान् पक्षपात छोड़कर मनुष्यादि प्राणियों में सत्य उपकार करनेवाले कर्मों के साथ वर्त्तमान है वैसे सदा वर्त्ते ॥ ४ ॥

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    विषय

    व्रतपालन व क्लेशविनाश

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! यह ठीक है (यत्) = कि जो भी (ते) = आपके (एता व्रता) = इन व्रतों को वेदोपदिष्ट पुण्यकर्मों को (नकिः मिनन्ति) = नष्ट नहीं करते हैं, आप (एभ्यः नृभ्यः) = इन प्रगतिशील व्यक्तियों के लिए (श्रुष्टिम्) = सुख को (चकर्थ) = करते हैं । जो मनुष्य व्रतमय जीवन बिताते हैं, प्रभु उन्हें सुख देते हैं । पुण्य का परिणाम क्लेशों का नाश है । २. (तत्) = वह (तु) = तो (ते) = आपका (दंसः) = दर्शनीय कर्म है (यत्) = कि आप (अहन्) = सब विघ्नों को - विघ्नभूत व्यक्तियों को नष्ट करते हैं । आपकी कृपा से सब शुभ कर्म पूर्ण हुआ करते हैं । ३. हे प्रभो ! आप (समानः) = सबमें सम वृत्तिवाले अथवा [सम् आनयति] सबको उत्साहित करनेवाले (नृभिः) = पुरुषों से (यत् युक्तः) = जब युक्त होते हैं तब उन्हें निमित्त बनाकर (रपांसि) = सब दोषों को (विवेः) = दूर करते हैं । आप इन पुरुषों के द्वारा प्रजा में इस प्रकार उत्साहयुक्त प्रेरणा प्राप्त कराते हैं कि उन प्रजाओं के जीवनों से दोष दूर होकर उनमें शुभ गुणों का संचार होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - व्रतपालन से क्लेश नष्ट होते हैं ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वन् ! यानि ते तव एतानि व्रतानि सन्ति तानि के अपि न मिनन्ति। तानि कानि इति आह। यत् {एभ्यः} त्वं अभ्यः नृभ्यः यं श्रुष्टिं चकर्थ रपांसि विवेः। यत् ते तव इदं समानैः नृभिः सह दंसः {युक्तः} अस्ति, तत् तु कश्चिद् अपि नकिः अहन् हन्ति ॥४॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (विद्वन्)= विद्वान् ! (यानि)=जो, (ते) तव=तुम्हारे, (एताः) एतानि=ये, (व्रता) व्रतानि शीलानि=संकल्प, (सन्ति)=हैं। (तानि)=उनमें, (के)=कोई, (अपि)=भी, (न+मिनन्ति) हिंसन्ति=हिंसा नहीं करते हैं। (तानि)=उन, (कानि)=किसी के, (इति) =ऐसे, (आह)=कहते हैं, (यत्) यम्=जिस, {एभ्यः} वर्त्तमानेभ्यः=उपस्थित के लिये, (त्वम्)=तुम, (अभ्यः)= पीड़ा पहुँचाने के लिये, (नृभ्यः) मनुष्यादिभ्यः=मनुष्य आदि के लिये, (यम्) =जिसको, (श्रुष्टिम्) शीघ्रम्=शीघ्र, (चकर्थ) करोति=करते हो, (रपांसि) व्यक्तोपदेशप्रकाशकानि शोभनानि वचनानि= व्यक्त किये गये उपदेशों को, (विवेः) प्राप्नोषि=तुम प्राप्त करते हो, (यत्) यैः=जिनके द्वारा, (ते) तव=तुम्हारे, (इदम्)=इस, (समानैः)=समान, (नृभिः)=मनुष्य के, (सह)=साथ, (दंसः) कर्म= कर्म, {युक्तः} सहितः=जुड़ा हुआ, (अस्ति)=है, (तत्) वक्ष्यमाणम्=कहे हुए के, (तु) पश्चादर्थे=पश्चात्, (कश्चिदत्)=कोई, (अपि)=भी, (नकिः) नहि=नहीं, (अहन्) हन्ति=मारते हैं ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- सब मनुष्यों के द्वारा जिस प्रकार से परमेश्वर और आप्त विद्वान् या पक्षपात को छोड़कर मनुष्य आदि में जो सत्य और उपकार के कर्मों से व्यवहार करता है, वैसे ही सदा व्यवहार करना चाहिए ॥४॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी-आप्त- महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार आप्त की परिभाषा-जो छलादि दोषरहित, धर्मात्मा, विद्वान् सत्योपदेष्टा, सब पर कृपादृष्टि से वर्त्तमान होकर अविद्यान्धकार का नाश करके अज्ञानी लोगों के आत्माओं में विद्यारूप सूर्य का प्रकाश सदा करे, उसको 'आप्त' कहते हैं।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विद्वन्) विद्वान् ! (यानि) जो (ते) तुम्हारे (एताः) ये (व्रता) संकल्प (सन्ति) हैं। (तानि) उनमे (के) कोई (अपि) भी (न+मिनन्ति) हिंसा करने से सम्बन्धित नहीं हैं। (तानि) उनमें (कानि) कोई (इति) ऐसा (आह) कहते हैं कि (यत्) जिस{एभ्यः} उपस्थित के लिये (त्वम्) तुम (अभ्यः) पीड़ा पहुँचाने के लिये, (नृभ्यः) मनुष्य आदि के लिये, (यम्) जिसको (श्रुष्टिम्) शीघ्रता से (चकर्थ) करते हो। (रपांसि) व्यक्त किये गये उपदेशों को (विवेः) तुम प्राप्त करते हो। (यत्) जिनके द्वारा (ते) तुम्हारे (इदम्) इस (समानैः) समान (नृभिः) मनुष्य के (सह) साथ (दंसः) कर्म {युक्तः} जुड़ा हुआ (अस्ति) है। (तत्) कहे हुए [कर्म के] (तु) पश्चात् (कश्चिदत्) कोई (अपि) भी (नकिः+अहन्) मारता नहीं, [अर्थात् हिंसा नहीं करता है] ॥४॥

    संस्कृत भाग

    स्वर सहित पद पाठ नकिः॑ । ते॒ । ए॒ता । व्र॒ता । मि॒न॒न्ति॒ । नृऽभ्यः॑ । यत् । ए॒भ्यः । श्रु॒ष्टिम् । च॒कर्थ॑ ॥ तत् । तु । ते॒ । दंसः॑ । यत् । अह॑न् । स॒मा॒नैः । नृऽभिः॑ । यत् । यु॒क्तः । वि॒वेः । रपां॑सि ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वेर्मनुष्यैर्यथा परमेश्वर आप्तो विद्वान् वा पक्षपातं विहाय मनुष्यादिषु सत्यैरुपकारैः कर्मभिः सह वर्त्तते, तथैव सदा वर्त्तितव्यम् ॥४॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, none of these people violate your laws and discipline since you do good to them, for them. Agni, Lord of light and life, it is your grand act of generosity that you, joining with people of equality, repair their infirmities and ward off their sins without doing violence to anyone or anything.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Agni) is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, none can violate or break these holy vows and laws of thine when thou men and utterest good words of instruction and advice. This is thy most admirable action that with the cooperation of thy comrades, thou smitest down all wicked foes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मिनन्ति) हिंसन्ति मीञ-हिंसायाम् = Violate. (श्रुष्टिम् ) शीघ्रम् = Quickly. (रपांसि ) व्यक्तोपदेशप्रकाशकानि शोभनानि वचनानि = Good words of instruction and advice.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men should behave as God or a learned person true in mind, word and deed perform benevolent acts without prejudice or partiality.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that scholar is?This topic is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan) =scholar, (yāni) =those, (te) =your, (etāḥ) =these, (vratā) =resolutions, (santi) =are, (tāni) =in those, (ke) =any, (api) =also, (na+minanti)=does not relate to violence, (tāni) =in those, (kāni) =any, (iti) =such, (āha) =say that, (yat) =which, {ebhyaḥ} =for the present, (tvam) =you, (abhyaḥ)=To cause pain, (nṛbhyaḥ) =for human etc., (yam) =to whom, (śruṣṭim)=quickly, (cakartha) =do, (rapāṃsi)=the teachings expressed, (viveḥ) =you obtain, (yat) =by whom, (te) =your, (idam) =this, (samānaiḥ) =like, (nṛbhiḥ) =of human, (saha) =with, (daṃsaḥ) =karma, {yuktaḥ}= is attached to. (asti) =is, (tat) =said, [karma ke]=of karma, (tu) =afterwards, (kaścidat) =any, (api) =also, (nakiḥ+ahan) =kills, [arthāt hiṃsā nahīṃ karatā hai] =that is, does not commit violence.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! These are your resolutions. None of them are related to violence. Some of them say that you do it quickly to cause pain to someone present, to a human being etc. You receive the teachings expressed. Through whom karma is attached to a person like you. After the said action, no one kills, that is, does not commit violence.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The way all human beings behave with truth and benevolence in humans etc., leaving aside any bias towards God and āpta scholar, we should always behave in the same way.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    NOTES-(1)- āpta- Definition of āpta according to Maharishi Dayanand Saraswati – One who is devoid of deceit, virtuous, learned preacher of truth, being present with the blessings of all, destroys the darkness of ignorance and always gives light of the sun in the form of knowledge in the souls of ignorant people, is called ' āpta'.

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