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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    म॒हाँ इन्द्रः॑ प॒रश्च॒ नु म॑हि॒त्वम॑स्तु व॒ज्रिणे॑। द्यौर्न प्र॑थि॒ना शवः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान् । इन्द्रः॑ । प॒रः । च॒ । नु । म॒हि॒ऽत्वम् । अ॒स्तु॒ । व॒ज्रिणे॑ । द्यौः । न । प्र॒थि॒ना । शवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महाँ इन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शवः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान्। इन्द्रः। परः। च। नु। महिऽत्वम्। अस्तु। वज्रिणे। द्यौः। न। प्रथिना। शवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    यो मूर्त्तिमतः संसारस्य द्यौः सूर्य्यः प्रथिना न सुविस्तृतेन स्वप्रकाशेनेव महान् पर इन्द्रः परमेश्वरोऽस्ति, तस्मै वज्रिणे इन्द्रायेश्वराय न्वस्मत्कृतस्य विजयस्य महित्वं शवश्चास्तु॥५॥

    पदार्थः

    (महान्) सर्वथाऽनन्तगुणस्वभावसामर्थ्येन युक्तः (इन्द्रः) सर्वजगद्राजः (परः) अत्यन्तोत्कृष्टः (च) पुनरर्थे (नु) हेत्वपदेशे। (निरु०१.४) (महित्वम्) मह्यते पूज्यते सर्वैर्जनैरिति महिस्तस्य भावः। अत्रौणादिकः सर्वधातुभ्य इन्नितीन् प्रत्ययः। (अस्तु) भवतु (वज्रिणे) वज्रो न्यायाख्यो दण्डोऽस्यास्तीति तस्मै। वज्रो वै दण्डः। (श०ब्रा०३.१.५.३२) (द्यौः) विशालः सूर्य्यप्रकाशः (न) उपमार्थे। उपसृष्टादुपचारस्तस्य येनोपमिमीते। (निरु०१.४) यत्र कारकात्पूर्वं नकारस्य प्रयोगस्तत्र प्रतिषेधार्थीयः, यत्र च परस्तत्रोपमार्थीयः। (प्रथिना) पृथोर्भावस्तेन। पृथुशब्दादिमनिच्। छान्दसो वर्णलापो वेति मकारलोपः। (शवः) बलम्। शव इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९)॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारोऽस्ति। धार्मिकैर्युद्धशीलैः शूरैर्योद्धृभिर्मनुष्यैः स्वनिष्पादितस्य दुष्टशत्रुविजयस्य धन्यवादा अनन्तशक्तिमते जगदीश्वरायैव देयाः। यतो मनुष्याणां निरभिमानतया राज्योन्नतिः सदैव वर्धेतेति॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त कार्य्यसहाय करनेहारा जगदीश्वर किस प्रकार का है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    (न) जैसे मूर्त्तिमान् संसार को प्रकाशयुक्त करने के लिये (द्यौः) सूर्य्यप्रकाश (प्रथिना) विस्तार से प्राप्त होता है, वैसे ही जो (महान्) सब प्रकार से अनन्तगुण अत्युत्तम स्वभाव अतुल सामर्थ्ययुक्त और (परः) अत्यन्त श्रेष्ठ (इन्द्रः) सब जगत् की रक्षा करनेवाला परमेश्वर है, और (वज्रिणे) न्याय की रीति से दण्ड देनेवाले परमेश्वर (नु) जो कि अपने सहायरूपी हेतु से हमको विजय देता है, उसी की यह (महित्वम्) महिमा (च) तथा बल है॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। धार्मिक युद्ध करनेवाले मनुष्यों को उचित है कि जो शूरवीर युद्ध में अति धीर मनुष्यों के साथ होकर दुष्ट शत्रुओं पर अपना विजय हुआ है, उसका धन्यवाद अनन्त शक्तिमान् जगदीश्वर को देना चाहिये कि जिससे निरभिमान होकर मनुष्यों के राज्य की सदैव बढ़ती होती रहे॥५॥

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    विषय

    विषय(भाषा)- उक्त कार्य्यसहाय करनेहारा जगदीश्वर किस प्रकार का है, सो इस मन्त्र में प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः मूर्त्तिमतः संसारस्य द्यौः सूर्य्यः प्रथिना न सुविस्तृतेन स्वप्रकाशेन इव महान् पर इन्द्रः परमेश्वरः अस्ति, तस्मै वज्रिणे इन्द्राय ईश्वराय नु अस्मत् कृतस्य विजयस्य महित्वं शवः च अस्तु॥५॥

    पदार्थ

    (यो)=जो, (मूर्त्तिमतः)=मूर्त्तिमान् या शरीर धारी या आकार धारी, (संसारस्य)=संसार का, (द्यौः) विशालः सूर्य्य प्रकाशः=सूर्य्य का विशाल प्रकाश, (सूर्य्यः)=सूर्य्य, (प्रथिना) पृथोर्भावस्तेन=विस्तार से प्राप्त होता है, (न)=जैसे, (सुविस्तृतेन)=अच्छी तरह से विस्तार किये हुए, (स्वप्रकाशेन)=अपने प्रकाश, (इव)=की तरह, (महान्)=महान्, (परः)=अत्यन्त श्रेष्ठ, (इन्द्रः) सर्वजगद्राजः=सारे संसार का राजा, (परमेश्वरः)=परमेश्वर, (अस्ति)=है, (तस्मै)=उसके लिये, (वज्रिणे) वज्रो न्यायाख्यो दण्डोऽस्यास्तीति तस्मै=न्याय की रीति से दण्ड देने वाले, (इन्द्राय-ईश्वराय)=परमेश्वर के लिये, (नु) हेत्वपदेशे=प्रतिज्ञा के पुनर्वचन के लिये, (अस्मत्)=हम से, (कृतस्य)=किये हुए का, (विजयस्य)=विजय की, (महित्वम्)=महिमा, (शवः) बलम्=बल, (च)=और, (अस्तु)=हो॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। धार्मिक युद्ध करने के स्वभाव के, शूरवीर, योद्धाओं मनुष्यों के द्वारा अपने से प्रभावित दुष्ट शत्रुओं पर विजय के लिए अनन्त शक्तिमान् परमेश्वर का ही धन्यवाद करना चाहिए। इसलिए मनुष्यों को निरभिमान होकर राज्य की सदैव उन्नति और विकास करना चाहिए॥५॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यो) जो (मूर्त्तिमतः) मूर्त्तिमान् (संसारस्य) संसार के (द्यौः) सूर्य्य के विशाल प्रकाश क्षेत्र से (सूर्य्यः) सूर्य्य (प्रथिना) विस्तार से प्राप्त होता है। वह (न) जैसे (सुविस्तृतेन) अच्छी तरह से विस्तृत किये हुए (स्वप्रकाशेन) अपने प्रकाश (इव) की तरह (महान्) महान् और (परः) अत्यन्त श्रेष्ठ (इन्द्रः) सारे संसार का राजा (परमेश्वरः) परमेश्वर (अस्ति) है। (तस्मै) उस (वज्रिणे) न्याय की रीति से दण्ड देने वाले (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये और (नु) प्रतिज्ञा के पुनर्वचन के लिये (अस्मत्) हमारी (कृतस्य) प्राप्त की हुई (विजयस्य) विजय की (महित्वम्) महिमा (च) और (शवः) बल (अस्तु) हो॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (महान्) सर्वथाऽनन्तगुणस्वभावसामर्थ्येन युक्तः (इन्द्रः) सर्वजगद्राजः (परः) अत्यन्तोत्कृष्टः (च) पुनरर्थे (नु) हेत्वपदेशे। (निरु०१.४) (महित्वम्) मह्यते पूज्यते सर्वैर्जनैरिति महिस्तस्य भावः। अत्रौणादिकः सर्वधातुभ्य इन्नितीन् प्रत्ययः। (अस्तु) भवतु (वज्रिणे) वज्रो न्यायाख्यो दण्डोऽस्यास्तीति तस्मै। वज्रो वै दण्डः। (श०ब्रा०३.१.५.३२) (द्यौः) विशालः सूर्य्यप्रकाशः (न) उपमार्थे। उपसृष्टादुपचारस्तस्य येनोपमिमीते। (निरु०१.४) यत्र कारकात्पूर्वं नकारस्य प्रयोगस्तत्र प्रतिषेधार्थीयः, यत्र च परस्तत्रोपमार्थीयः। (प्रथिना) पृथोर्भावस्तेन। पृथुशब्दादिमनिच्। छान्दसो वर्णलापो वेति मकारलोपः। (शवः) बलम्। शव इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९)॥५॥
    विषयः- पुनः स कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- यो मूर्त्तिमतः संसारस्य द्यौः सूर्य्यः प्रथिना न सुविस्तृतेन स्वप्रकाशेनेव महान् पर इन्द्रः परमेश्वरोऽस्ति, तस्मै वज्रिणे इन्द्रायेश्वराय न्वस्मत्कृतस्य विजयस्य महित्वं शवश्चास्तु॥५॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारोऽस्ति। धार्मिकैर्युद्धशीलैः शूरैर्योद्धृभिर्मनुष्यैः स्वनिष्पादितस्य दुष्टशत्रुविजयस्य धन्यवादा अनन्तशक्तिमते जगदीश्वरायैव देयाः। यतो मनुष्याणां निरभिमानतया राज्योन्नतिः सदैव वर्धेतेति॥५॥

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    विषय

    विस्तृत सैन्य

    पदार्थ

    १. (इन्द्र) - वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (महान्) - महान् हैं  , महनीय और पूजनीय हैं । (नु च) - और (परः) - सर्वोत्कृष्ट हैं । उस प्रभु की महिमा अनन्त है  , वे अनिर्वचनीय महिमावाले हैं  , उनकी महिमा का वर्णन शब्दों से परे है । २. इसी प्रकार प्रभु - कृपा से हमारे राष्ट्र का (इन्द्रः) - मुख्य सेनापति भी (महान्) - शरीर से सशक्त तथा (परः) गुणों से उत्कृष्ट हो । इस (वज्रिणे) - दृढ़ वज्रादि अस्त्रोंवाले सेनापति के लिए (महित्वम्) - दोनों प्रकार की महिमा व आधिक्य (अस्तु) - हो । [क] इसका शरीर सबल हो  , [ख] गुणों से यह उत्कृष्ट हो [महान् परः] अथवा इसके सैनिक शूर हों और अस्त्र चलाने में निपुण हों । 

    ३. इसका (शवः) सेनारूप बल भी (प्रथिना) - विस्तार से (द्यौः न) - द्युलोक के समान हो  , अर्थात् जैसे द्युलोक विस्तृत है उसी प्रकार इसकी सेना भी विशाल हो । इस विशाल सेना से शत्रुओं के हृदय में भय का संचार करनेवाला हो और बिना युद्ध के ही समस्याओं को हल कर सकनेवाला हो । 

    भावार्थ

    भावार्थ - सेनापति सशक्त शरीरवाला वा वीरत्वादि गुणों से उत्कृष्ट हो । उसमें दोनों प्रकार का आधिक्य हो और उसका सैन्यबल विशाल हो । 

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सेनापति

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) समस्त जगत् का राजा, सर्वैश्वर्यवान्, परमेश्वर और शत्रुहन्ता राजा ही ( महान् ) बड़ा है और वही ( परः चन ) सबसे बढ़कर सर्वोत्कृष्ट है । ( वज्रिणे ) न्यायानुसार दण्ड बल से युक्त वीर्यवान् पुरुष को ही ( महित्वम् ) पूजनीय बड़प्पन का पद ( अस्तु ) प्राप्त हो । वह ही ( प्रथिना ) अति विस्तृत ( शवः ) बल से ( द्यौः न ) सूर्य और आकाश के समान महान् और सर्वोपरि है । उसको ही ( शवः ) बल और ज्ञान भी प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. धार्मिक युद्ध करणाऱ्या माणसांनी युद्धात शूरवीर, अत्यंत धैर्यवान माणसांसह दुष्ट शत्रूंवर विजय मिळविला तर त्याबद्दल अनन्त शक्तिमान जगदीश्वराचे धन्यवाद मानले पाहिजेत. कारण त्यामुळे निरभिमानी बनून माणसांचे राज्य सदैव वाढीस लागते. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra is great, supreme and transcendent, self- refulgent like the sun, extensive like space and more. May all the power and grandeur be for the lord of justice and the thunderbolt. May all be dedicated to Him.

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    Subject of the mantra

    What kind of God is as helper of performing aforesaid tasks, is elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yo)=which, (saṃsārasya)=of universe, (mūrttimataḥ)=concrete, (dyauḥ)=Sun region, (sūryyaḥ)=sun, (na)=as, (suvistṛtena)=well expanded, (prathinā)=being obtained in detail, (svaprakāśena)=by its light, (iva)=like it, (mahān)=great, (paraḥ)=extremely great, (indraḥ)=king of whole world, parameśvaraḥ)=God, (asti)=is, (tasmai)=for him, (vajriṇe)=one who imposes punishment according to justice, (indrāya)=for God, (nu)=for restating the oath, (asmat)=our, (kṛtasya)=obtained, (vijayasya)=of victory, (mahitvam)=greatness, (ca)=and, (śavaḥ)=power, (astu)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    Which is obtained by expansion of the Sun from the concrete Sun’s great light region, He is great, extremely superior and king of the whole universe, God. For that God, who imposes punishment through justice and for restating our promise, we must have greatness of our obtained victory and power.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative, in this mantra. One should thank the eternal powerful God for the victory over the wicked enemies affected by Him, by men, warriors and warriors of the nature of righteous warfare. Therefore, human beings should always progress and develop the state without being proud.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that God, is told in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    God is Almighty Supreme. Real Greatness and Glory belongs to that Upholder of the thunderbolt of justice. Wider as the heaven or vast as the sun is His power.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वज्रिणे) वज्रो न्यायाख्यो दण्डोऽस्यास्तीति तस्मै वज्रो वै दण्डः ॥ ( शत० ३.१.५.३१ ) = The Upholder of the thunderbolt of Justice. शवः । शव इतिबलनामसु पठितम् | (निघ० २.९) = Force.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The righteous brave soldiers should offer thanks to the Omnipotent Lord of the world for their victory over the unrighteous foes, so that they may remain free from pride and their country may ever prosper.

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