ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 82/ मन्त्र 2
ऋषि: - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडास्तारपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अक्ष॒न्नमी॑मदन्त॒ ह्यव॑ प्रि॒या अ॑धूषत। अस्तो॑षत॒ स्वभा॑नवो॒ विप्रा॒ नवि॑ष्ठया म॒ती योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअक्ष॑न् । अमी॑मदन्त । हि । अव॑ । प्रि॒याः । अ॒धू॒ष॒त॒ । अस्तो॑षत । स्वऽभा॑नवः । विप्राः॑ । नवि॑ष्ठया । म॒ती । योज॑ । नु । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । हरी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षन्। अमीमदन्त। हि। अव। प्रियाः। अधूषत। अस्तोषत। स्वऽभानवः। विप्राः। नविष्ठया। मती। योज। नु। इन्द्र। ते। हरी इति ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 82; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यौ ये तव हरी वर्त्तेते तावस्मदर्थं नु योज। हे स्वभानवो विप्रा ! भवन्तः सूर्यादय इव नविष्ठया मती सह सर्वेषां प्रिया भवन्तु सर्वाणि शास्त्राणि ह्यस्तोषत शत्रून् दुःखान्यवाधूषताक्षन्नमीमदन्तास्मानपीदृशान् कुर्वन्तु ॥ २ ॥
पदार्थः
(अक्षन्) शुभगुणान् प्राप्नुवन्तु (अमीमदन्त) आनन्दन्तु (हि) खलु (अव) विरुद्धार्थे (प्रियाः) प्रीतियुक्ताः सन्तः (अधूषत) शत्रून् दुःखानि वा दूरीकुरुत (अस्तोषत) स्तुत (स्वभानवः) स्वकीया भानवो दीप्तयो येषां ते (विप्राः) मेधाविनः (नविष्ठया) अतिशयेन नूतनया (मती) बुद्ध्या (योज) योजय (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) सभाध्यक्ष (ते) (हरी) ॥ २ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरुत्तमगुणकर्मस्वभावयुक्तस्य सर्वथा प्रशंसिताचरणस्य सेनाद्यध्यक्षस्योपदेशकस्य वा गुणप्रशंसनाऽनुकरणाभ्यां नवीनौ विज्ञानपुरुषार्थौ वर्धयित्वा सर्वदा प्रसन्नतयाऽऽनन्दो भोक्तव्यः ॥ २ ॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सभापते ! जो (ते) तेरे (हरी) धारण-आकर्षण करनेहारे वाहन वा घोड़े हैं उनको तू हमारे लिये (नु योज) शीघ्र युक्त कर, हे (स्वभानवः) स्वप्रकाशस्वरूप सूर्यादि के तुल्य (विप्राः) बुद्धिमान् लोगो ! आप (नविष्ठया) अतिशय नवीन (मती) बुद्धि के सहित होके (प्रियाः) प्रिय हूजिये, सबके लिये सब शास्त्रों की (हि) निश्चय से (अस्तोषत) प्रशंसा आप किया करिये, शत्रु और दुःखों को (अवाधूषत) छुड़ाइये, (अक्षन्) विद्यादि शुभगुणों में व्याप्त हूजिये, (अमीमदन्त) अतिशय करके आनन्दित हूजिये और हमको भी ऐसे ही कीजिये ॥ २ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि श्रेष्ठ गुण-कर्म्म-स्वभावयुक्त सब प्रकार उत्तम आचरण करनेहारे सेना और सभापति तथा सत्योपदेशक आदि के गुणों की प्रशंसा और कर्मों से नवीन-नवीन विज्ञान और पुरुषार्थ को बढ़ाकर सदा प्रसन्नता से आनन्द का भोग करें ॥ २ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी श्रेष्ठ गुणकर्म स्वभावयुक्त सर्व प्रकारे उत्तम आचरण करणारी सेना व सभापती आणि सत्योपदेश इत्यादींच्या गुणांची प्रशंसा करावी व कर्मानी नवनवे विज्ञान व पुरुषार्थ वाढवून सदैव प्रसन्न राहून आनंद भोगावा. ॥ २ ॥
English (1)
Meaning
Noble men acquiring holy knowledge, rejoicing, dearest favourite saints and sages brilliant with their innate genius and virtue, ward off the evil and pray to Indra with latest words of wisdom and homage. Indra, yoke your horses (on the wing and come to join the yajna).
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Dhiman
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal