ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 82/ मन्त्र 6
यु॒नज्मि॑ ते॒ ब्रह्म॑णा के॒शिना॒ हरी॒ उप॒ प्र या॑हि दधि॒षे गभ॑स्त्योः। उत्त्वा॑ सु॒तासो॑ रभ॒सा अ॑मन्दिषुः पूष॒ण्वान्व॑ज्रि॒न्त्समु॒ पत्न्या॑मदः ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒नज्मि॑ । ते॒ । ब्रह्म॑णा । के॒शिना॑ । हरी॒ इति॑ । उप॑ । प्र । या॒हि॒ । द॒धि॒षे । गभ॑स्त्योः । उत् । त्वा॒ । सु॒तासः॑ । र॒भ॒साः । अ॒म॒न्दि॒षुः॒ । पू॒ष॒ण्ऽवान् । व॒ज्रि॒न् । सम् । ऊँ॒ इति॑ । पत्न्या॑ । अ॒म॒दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युनज्मि ते ब्रह्मणा केशिना हरी उप प्र याहि दधिषे गभस्त्योः। उत्त्वा सुतासो रभसा अमन्दिषुः पूषण्वान्वज्रिन्त्समु पत्न्यामदः ॥
स्वर रहित पद पाठयुनज्मि। ते। ब्रह्मणा। केशिना। हरी इति। उप। प्र। याहि। दधिषे। गभस्त्योः। उत्। त्वा। सुतासः। रभसाः। अमन्दिषुः। पूषण्ऽवान्। वज्रिन्। सम्। ऊँ इति। पत्न्या। अमदः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 82; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्भृत्याः किं कुर्य्युस्तेन स किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे वज्रिन् सेनाध्यक्ष ! यथाऽहं ते तव ब्रह्मणा युक्ते रथे केशिना हरी युनज्मि यत्र स्थित्वा त्वं गभस्त्योरश्वरशनां दधिषे उपप्रयाहि यथा रभसाः सुतासः सुशिक्षिता भृत्या यं त्वा उ उदमन्दिषुरानन्दयेयुस्तथैतानानन्दय। पूषण्वान् स्वकीयया पत्न्या सह सममदः सम्यगानन्द ॥ ६ ॥
पदार्थः
(युनज्मि) युक्तौ करोमि (ते) तव (ब्रह्मणा) अनादिना सह (केशिना) सूर्यरश्मिवत्प्रशस्तकेशयुक्तौ (हरी) बलिष्ठावश्वौ (उप) सामीप्ये (प्र) (याहि) गच्छाऽऽगच्छ (दधिषे) धरसि (गभस्त्योः) हस्तयोः। गभस्ती इति बाहुनामसु पठितम्। (निघं०२.५) (उत्) उत्कृष्टे (त्वा) त्वाम् (सुतासः) विद्याशिक्षाभ्यामुत्तमाः सम्पादिताः (रभसाः) वेगयुक्ताः (अमन्दिषुः) हर्षयन्तु (पूषण्वान्) अरिशक्तिनिरोधकैर्वीरैः सह (वज्रिन्) प्रशस्तास्त्रयुक्त (सम्) सम्यक् (उ) वितर्के (पत्न्या) युद्धादौ सङ्गमनीये यज्ञे संयुक्तया स्त्रिया (अमदः) आनन्द ॥ ६ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्येऽश्वादिसंयोजका भृत्यास्ते सुशिक्षिता एव रक्षणीयाः स्वस्त्र्यादयोऽपि स्वानुरक्ता एव करणीयाः स्वयमप्येतेष्वनुरक्तास्तिष्ठेयुः सर्वदायुक्ताः सन्तः सुपरीक्षितैरेतैर्धर्म्याणि कार्याणि संसाधयेयुः ॥ अत्र सेनापतिरीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर उसके भृत्य क्या करें और उस रथ से वह क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (वज्रिन्) उत्तम शस्त्रयुक्त सेनाध्यक्ष ! जैसे मैं (ते) तेरे (ब्रह्मणा) अन्नादि से युक्त नौका रथ में (केशिना) सूर्य की किरण के समान प्रकाशमान (हरी) घोड़ों को (युनज्मि) जोड़ता हूँ, जिसमें बैठ के तू (गभस्त्योः) हाथों में घोड़ों की रस्सी को (दधिषे) धारण करता है, उस रथ से (उप प्र याहि) अभीष्ट स्थानों को जा। जैसे बलवेगादि युक्त (सुतासः) सुशिक्षित (भृत्याः) नौकर लोग जिस (त्वा) तुझको (उ) अच्छे प्रकार (उदमन्दिषुः) आनन्दित करें, वैसे इनको तू भी आनन्दित कर और (पूषण्वान्) शत्रुओं की शक्तियों को रोकनेहारा तू अपनी (पत्न्या) स्त्री के साथ (सममदः) अच्छे प्रकार आनन्द को प्राप्त हो ॥ ६ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जो अश्वादि की शिक्षा सेवा करनेहारे और उनको सवारियों में चलानेवाले भृत्य हों, वे अच्छी शिक्षायुक्त हों और अपनी स्त्री आदि को भी अपने से प्रसन्न रख के आप भी उनमें यथावत् प्रीति करे। सर्वदा युक्त होके सुपरीक्षित स्त्री आदि में धर्म कार्यों को साधा करें ॥ ६ ॥ ।इस सूक्त में सेनापति और ईश्वर के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥
विषय
प्रभु का उपदेश
पदार्थ
१. गतमन्त्रों में जीव की [योजा न्विन्द्र ते हरी] इस प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि (ते ब्रह्मणा) = [बृहि वृद्धौ] तेरे वर्धन के दृष्टिकोण से मैं (केशिना) = प्रकाश की रश्मियोंवाले इन (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (युनज्मि) = तेरे शरीर - रथ में जोतता हूँ । (उपप्रयाहि) = इस रथ से तू मेरे समीप आनेवाला हो । इसके लिए तू (गभस्त्योः) = अपने हाथों में (दधिषे) = इन घोड़ों की लगामों को धारण करनेवाला बन । २. (उत) और (रभसाः) शक्ति को देनेवाले [Robust बनानेवाले] (सुतासः) = भोजन से उत्पन्न ये सोमकण (त्वा) = तुझे (अमन्दिषः) = आनन्दित करें । सोमकणों के रक्षण से तू आनन्द का अनुभव कर । यही मार्ग प्रभु के समीप पहुँचने का है । इसके विपरीत तो विषय = प्रवणता का मार्ग है जोकि मनुष्य को प्रभु से दूर और दूर ले - जाता है । ३. हे जीव ! तू (पूषण्वान्) = अपना उचित पोषण करनेवाला बन । (वज्रिन्) = हाथ में क्रियाशीलतारूप वज्र को लिये हुए हो और (पत्न्या) = इस वेदवाणीरूप पत्नी के साथ (समु मदः) = खूब ही हर्ष का अनुभव कर । तेरा शरीर पुष्ट हो, हाथों में क्रिया हो, मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण हो ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभु ने हमारे वर्धन के लिए इन्द्रियाश्वों को शरीर में जोता है । घोड़ों की लगाम को काबू करके हम आगे बढ़ें ; स्वस्थ, क्रियाशील व ज्ञानी बनें ।
विशेष / सूचना
विशेष = सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है कि प्रभु हमारी प्रार्थनाओं को सुनें [१] । हम विप्र बनें [२], जितेन्द्रिय बनकर प्रभु को प्राप्त हों [३] । हमारा यह रथ दृढ व प्रकाशमय हो [४], इसमें ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व जुते हों [५], इनकी लगाम हमारे हाथ में हो और हम आगे बढ़ें [६] । 'हम प्रथम हों, उत्तम वसुओं से पूर्ण हों' - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
मराठी (1)
भावार्थ
अश्व इत्यादींना प्रशिक्षण देऊन त्यांची सेवा करणारे व त्यांच्यावर स्वार होणारे सेवक चांगले प्रशिक्षित असावेत. तसेच सेनाध्यक्षांनी आपल्या पत्नीलाही प्रसन्न ठेवून त्यांच्यावर प्रेम करावे. सदैव सुपरीक्षित पत्नीला धर्मकार्यात सम्मिलित करून घ्यावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I yoke your horses of beautiful mane to the chariot with holy chant of divine hymns and delicacies for sacred presents and gifts. Hold the reins in your hands and proceed for home. And then, lord of the thunderbolt and leader of heroic warriors, there, enthusiastic and ecstatic friends, well-trained, educated and cultured would join you for delightful company. And then, go and meet your wife and, with her, enjoy yourself with the family.
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