Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 83 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अश्वा॑वति प्रथ॒मो गोषु॑ गच्छति सुप्रा॒वीरि॑न्द्र॒ मर्त्य॒स्तवो॒तिभिः॑। तमित्पृ॑णक्षि॒ वसु॑ना॒ भवी॑यसा॒ सिन्धु॒मापो॒ यथा॒भितो॒ विचे॑तसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्व॑ऽवति । प्रथमः । गोषु । गच्छति । सुप्रऽअवीः । इन्द्र । मत्यैः । तव॑ । ऊतिऽर्भिः । तम् । इत् । पृणति । वसु॑ना । भवीयसा । सिन्धुंम् । आर्पः । यर्था । अभितः । विऽचैतसः ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वावति प्रथमो गोषु गच्छति सुप्रावीरिन्द्र मर्त्यस्तवोतिभिः। तमित्पृणक्षि वसुना भवीयसा सिन्धुमापो यथाभितो विचेतसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वऽवति। प्रथमः। गोषु। गच्छति। सुप्रऽआवीः। इन्द्र। मर्त्यः। तव। ऊतिऽभिः। तम्। इत्। पृणक्षि। वसुना। भवीयसा। सिन्धुम्। आपः। यथा। अभितः। विऽचेतसः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 83; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशे रथे तिष्ठन्कार्याणि साधयेदित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यो मर्त्त्यस्तवोतिभिः सह वर्त्तमानो भृत्योऽश्वावति रथे स्थित्वा गोषु युद्धाय प्रथमो गच्छति तेन त्वं प्रजाः सुप्रावीस्तमिद्यथा विचेतस आपोऽभितः सिन्धुमाप्नुवन्ति यथा भवीयसा वसुना सह प्रजाः पृणक्षि संयुनक्षि तथैव सर्वे संयुजन्तु ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (अश्वावति) संबद्धा अश्वा यस्मिंस्तस्मिन् रथे (प्रथमः) आदिमो भूमिगमनार्थो रथः (गोषु) पृथिवीषु (गच्छति) चलति (सुप्रावीः) सुष्ठु प्रजारक्षाकर्त्ता (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापकसेनापते ! (मर्त्यः) सुशिक्षितो धार्मिको भृत्यो मनुष्यः (तव) (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (तम्) (इत्) एव (पृणक्षि) संयुनक्षि (वसुना) प्रशस्तेन धनेन (भवीयसा) यदतिशयितं भवति तेन (सिन्धुम्) समुद्रं नदीं वा (आपः) जलानि (यथा) येन प्रकारेण (अभितः) सर्वतः (विचेतसः) विगतं चेतः संज्ञानं याभ्यस्ताः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। सेनाध्यक्षादिभी राजपुरुषैर्ये भृत्याः स्वस्वाऽधिकृतेषु कर्मसु यथावन्न वर्त्तेरन् तान् सुदण्ड्य ये चानुवर्त्तेरंस्तान् सुसत्कृत्य बहुभिरुत्तमैः पदार्थैः सत्कारैः सह योजितानां संतोषं सम्पाद्य राजकार्याणि संसाधनीयानि नहि कश्चिद्यथापराधिने दण्डदानेन सुकर्मानुष्ठानाय पारितोषेण च विना यथावद्राजव्यवस्थां संस्थापयितुं शक्नोत्यत एतत्कर्म सदानुष्ठेयम् ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसे रथ में बैठा हुआ कामों को सिद्ध करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सबकी रक्षा करनेहारे राजन् ! जो (मर्त्यः) अच्छी शिक्षायुक्त धार्मिक मनुष्य (तव) तेरी (ऊतिभिः) रक्षा आदि से रक्षित भृत्य (अश्वावति) उत्तम घोड़ों से युक्त रथ में बैठ के (गोषु) पृथिवी विभागों में युद्ध के लिये (प्रथमः) प्रथम (गच्छति) जाता है, उससे तू प्रजाओं को (सुप्रावीः) अच्छे प्रकार रक्षा कर (तमित्) उसी को (यथा) जैसे (विचेतसः) चेतनता रहित जड़ (आपः) जल वा वायु (अभितः) चारों ओर से (सिन्धुम्) नदी को प्राप्त होते हैं, जैसे (भवीयसा) अत्यन्त उत्तम (वसुना) धन से तू प्रजा को (पृणक्षि) युक्त करता है, वैसे ही सब प्रजा और राजपुरुष पुरुषार्थ करके ऐश्वर्य से संयुक्त हों ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सेनापति आदि राजपुरुषों को योग्य है कि जो भृत्य अपने-अपने अधिकार के कर्मों में यथायोग्य न वर्त्तें, उन-उन को अच्छे प्रकार दण्ड और जो न्याय के अनुकूल वर्त्तें, उनका सत्कार कर शत्रुओं को जीत प्रजा की रक्षा कर पुरुषों को प्रसन्न रखके राजकार्यों को सिद्ध करना चाहिये। कोई भी पुरुष अपराधी के योग्य दण्ड और अच्छे कर्मकर्त्ता के योग्य प्रतिष्ठा किये विना यथावत् राज्य की व्यवस्था को स्थिर करने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे इस कर्म का अनुष्ठान सदा करना चाहिये ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    भवीयस् वसु

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (तव ऊतिभिः) = आपके रक्षणों से (सुप्रावीः) = सुरक्षित (मर्त्यः) = मनुष्य (अश्वावति) = इस उत्तम इन्द्रियरूप अश्वों से युक्त रथ में (गोषु) = [गावः वेदवाचः] ज्ञान की वाणियों में अथवा [गम्यन्ते इति गावः] प्राप्त करने योग्य पदार्थों में (प्रथमः गच्छति) = सबसे प्रथम स्थान में स्थित हुआ - हुआ होता है । प्रभु से रक्षित व्यक्ति जहाँ [क] अपने इस शरीररूप रथ के इन्द्रियरूप घोड़ों को उत्तम बना पाता है [ख] वहाँ खूब ही ज्ञान प्राप्त करनेवाला होता है और [ग] सब प्राप्त करने योग्य पदार्थों की प्राप्ति में प्रथम होता है । हम प्रभु की उपासना करते हैं तो प्रभु का रक्षण प्राप्त होता है और हमारे जीवन में उल्लिखित तीन परिणाम होते हैं । २. (तम् इत्) = इस व्यक्ति को ही हे प्रभो ! आप (भवीयसा) [बहुतरेण भवितृतमेन वा = सा०, यदतिशयं भवति तेन = द०] बहुत अधिक अभ्युदय के कारणभूत, अतिशयित (वसुना) = धन से (पृणक्षि) = संयुक्त करते हैं । प्रभुकृपा से इस व्यक्ति को आभ्युदिक कल्याण के लिए पर्याप्त धन की प्राप्ति होती है । ३. आप इस व्यक्ति को इस प्रकार अतिशयित धन से युक्त करते हैं (यथा) = जिस प्रकार (विचेतसः) = स्वास्थ्य - प्रदान के द्वारा विशिष्ट ज्ञान के साधनभूत (आपः) = जल (सिन्धुम्) = समुद्र को (अभितः) सब ओर से प्राप्त होते हैं [पृञ्चन्ति] । समुद्र को नदियाँ जलों से भरती चलती हैं, परन्तु समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं करता, इसी प्रकार इस व्यक्ति को धन खूब ही प्राप्त होता है, परन्तु यह उस धन से गर्वित व उच्छृङ्खल नहीं हो जाता । गीता में यह भावना इस प्रकार कही गई है - "आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी । " [गीता २/७०] चारों ओर से जलों से भरे जा रहे, परन्तु स्थिर मर्यादावाले समुद्र को जैसे जल प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार जिसे ये सब काम्य धन प्राप्त होते हैं, वही शान्ति को प्राप्त होता है, न कि निरन्तर कामनाएँ करनेवाला । बस, इस प्रभु से रक्षित व्यक्ति को खूब ही धन प्राप्त होते हैं, परन्तु ये धन उसके जीवन की मर्यादा को तोड़नेवाले नहीं होते ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम प्रभुरक्षा के पात्र हों । हमारा शरीर = रथ उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला हो । हम खूब ज्ञान प्राप्त करें । आभ्युदयिक धन की प्राप्ति हमें मर्यादित जीवनवाला ही रक्खे ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा के पालने के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) सेनापते ! राजन् ! ( अश्वावति ) अश्व से युक्त रथ या रथारोहियों के सेनादल में ( प्रथमः ) सबसे मुख्य ( मर्त्यः ) पुरुष ( तव ऊतिभिः ) तेरे रक्षा साधनों से स्वयं ( सुप्रावीः ) सुख से समस्त प्रजाजनों की अच्छी प्रकार रक्षा करने में समर्थ होकर ( गोषु ) भूमियों, पशुओं के विजय द्वारा लाभ के निमित्त ( गच्छति ) जावें । अथवा उत्तम प्रजारक्षक पुरुष तेरे किये रक्षार्थ विधानों द्वारा ( अश्वावति ) रथ पर बैठ कर (गोषु गच्छति) भूमियों पर विचरण करे । तू ( तम् इत् ) उसको ही ( भवीयसा वसुना ) बहुत अधिक ऐश्वर्य से ऐसे ( पृणक्षि ) पूर्ण कर ( यथा ) जैसे (विचेतसः आपः) चेतना रहित जलधाराएं अनायास ( अभितः ) सब तरफ़ से आ २ कर ( सिन्धुम् ) महान् सागर को पूर देती हैं। अथवा उस मुख्य पुरुष को इसलिये ऐश्वर्य प्रदान कर (यथा) जिससे ( विचेतसः ) विशेष ज्ञानों वाले ( आपः ) आप्त विद्वान् जन ( सिन्धुम् ) सबको केन्द्र के समान अपने में बांधने वाले सागर के समान गम्भीर राजा को प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-६ गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४, ५ निचृज्जगती । २ जगती । ६ त्रिष्टुप् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सेनापती व उपदेशकाच्या कर्तव्याच्या गुणांचे वर्णन करण्याने या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. सेनापती इत्यादी राजपुरुषांनी जे सेवक यथायोग्य कर्म करीत नाहीत त्यांना चांगल्या प्रकारे शिक्षा करावी व जे न्यायानुकूल वागतात त्यांचा सत्कार करून शत्रूंना जिंकून प्रजेचे रक्षण करावे व माणसांना प्रसन्न करून राज्याचे कार्य सिद्ध करावे. कोणताही पुरुष अपराध्याला योग्य शिक्षा व चांगले कर्म करणाऱ्याला योग्य प्रतिष्ठा दिल्याशिवाय राज्याची व्यवस्था स्थिर ठेवू शकत नाही. त्यामुळे या कर्माचे सदैव अनुष्ठान करावे. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Indra, lord ruler and protector, in a horse- powered chariot the pioneer goes forward first over lands and oceans in the world, man of zeal and courage as he is, protected by all your means of safety and defence. And him you bless with abundant wealth and fame which come to him as prominent rivers from all round join and flow into the sea.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In what kind of chariot should Indra sit and accomplish works is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (Commander of the army) who caustest to attain great wealth, the man who well-protected by thy cars, goes first to the battle field on earth sitting in a chariot drawn by horses, protect thy subjects well through him. Enrich him with abundant wealth, as the unconscious directions to the ocean.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्र) परमैश्वर्य प्रापक सेनापते । = The commander of an army leading to great wealth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is upamalankara or simile used in the Mantra. The commanders of the armies and other officers should punish those workers of the State who do not discharge their duties properly and should honour well with valuable articles those who discharge their duties satisfactorily. One can establish order in the State work without punishing the guilty and rewarding the doers of satisfactory work. There fore this must be done.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top