Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 83 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 83/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अधि॒ द्वयो॑रदधा उ॒क्थ्यं१॒॑ वचो॑ य॒तस्रु॑चा मिथु॒ना या स॑प॒र्यतः॑। असं॑यत्तो व्र॒ते ते॑ क्षेति॒ पुष्य॑ति भ॒द्रा श॒क्तिर्यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ । द्वयोः॑ । अ॒द॒धाः॒ । उ॒क्थ्य॑म् । वचः॑ । य॒तऽस्रु॑चा । मि॒थु॒ना । या । स॒प॒र्यतः॑ । अस॑म्ऽयत्तः । व्र॒ते । ते॒ । क्षे॒ति॒ । पुष्य॑ति । भ॒द्रा । श॒क्तिः । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि द्वयोरदधा उक्थ्यं१ वचो यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः। असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि। द्वयोः। अदधाः। उक्थ्यम्। वचः। यतऽस्रुचा। मिथुना। या। सपर्यतः। असम्ऽयत्तः। व्रते। ते। क्षेति। पुष्यति। भद्रा। शक्तिः। यजमानाय। सुन्वते ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 83; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य ! यथा या यतस्रुचा मिथुना द्वयोर्यदुक्थ्यं वचः सपर्यतस्तथैतौ त्वमदधाः। यो संयतोऽपि ते व्रते क्षेति तस्मिन् भद्रा शक्तिरधि निवसति स पुष्यति पुष्टो भवति तर्हि तस्मै सुन्वते यजमानाय सुखं कथं न वर्द्धेत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (अधि) उपरिभावे (द्वयोः) स्वात्मपरात्मनोः प्रियम् (अदधाः) धेहि (उक्थ्यम्) वक्तुमर्हम् (वचः) सत्यं वचनम् (यतस्रुचा) यता नियताः स्रुचः साधनानि याभ्यामुपदेशाभ्यां तौ (मिथुना) विरोधं विहाय मिलितौ (या) यौ (सपर्यतः) परिचरतः (असंयत्तः) अजितेन्द्रियोऽपि (व्रते) सत्यभाषणादिलक्षणे व्यवहारे (ते) तव (क्षेति) निवसति (पुष्यति) पुष्टो भवति (भद्रा) कल्याणकारिणी (शक्तिः) समर्थता (यजमानाय) उपदेश्याय पालकाय वा (सुन्वते) ऐश्वर्यमिच्छुकाय प्राप्ताय वा ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः परोपकारबुद्ध्या सर्वेषां शरीरात्मनोर्मध्ये पुष्टिविद्याबले ज्ञात्वा विरोधं त्यक्त्वा धर्म्यं व्यवहारं सेवित्वा सततं सर्वान् मनुष्यान् सत्ये व्यवहारे प्रवर्त्तयन्ति, ते मोक्षमाप्नुवन्ति नेतर इति वेद्यम् ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य ! यथा या यतस्रुचा मिथुना द्वयोर्यदुक्थ्यं वचः सपर्यतस्तथैतौ त्वमदधाः। यो असंयतोऽपि ते व्रते क्षेति तस्मिन् भद्रा शक्तिरधि निवसति स पुष्यति पुष्टो भवति तर्हि तस्मै सुन्वते यजमानाय सुखं कथं न वर्द्धेत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (अधि) उपरिभावे (द्वयोः) स्वात्मपरात्मनोः प्रियम् (अदधाः) धेहि (उक्थ्यम्) वक्तुमर्हम् (वचः) सत्यं वचनम् (यतस्रुचा) यता नियताः स्रुचः साधनानि याभ्यामुपदेशाभ्यां तौ (मिथुना) विरोधं विहाय मिलितौ (या) यौ (सपर्यतः) परिचरतः (असंयत्तः) अजितेन्द्रियोऽपि (व्रते) सत्यभाषणादिलक्षणे व्यवहारे (ते) तव (क्षेति) निवसति (पुष्यति) पुष्टो भवति (भद्रा) कल्याणकारिणी (शक्तिः) समर्थता (यजमानाय) उपदेश्याय पालकाय वा (सुन्वते) ऐश्वर्यमिच्छुकाय प्राप्ताय वा ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः परोपकारबुद्ध्या सर्वेषां शरीरात्मनोर्मध्ये पुष्टिविद्याबले ज्ञात्वा विरोधं त्यक्त्वा धर्म्यं व्यवहारं सेवित्वा सततं सर्वान् मनुष्यान् सत्ये व्यवहारे प्रवर्त्तयन्ति, ते मोक्षमाप्नुवन्ति नेतर इति वेद्यम् ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य ! जैसे (या) जो (यतस्रुचा) साधनोपसाधनयुक्त पढ़ाने और उपदेश करनेहारे (मिथुना) दोनों मिलके (द्वयोः) अपना और पराया कल्याण करके जो (उक्थ्यम्) प्रशंसा के योग्य (वचः) वचन को (सपर्यतः) सेवते हैं, वैसे इसका तू (अदधाः) धारण कर। जो (असंयत्तः) अजितेन्द्रिय भी (ते) तेरे (व्रते) सत्यभाषणादि नियम पालन में (क्षेति) निवास करता है, उसमें (भद्रा) कल्याण करनेहारी (शक्तिः) सामर्थ्य (क्षेति) बसती है और वह (पुष्यति) पुष्ट होता है, तब (सुन्वते) ऐश्वर्यप्राप्ति होनेवाले (यजमानाय) सबको सुखके दाता के लिये निरन्तर सुख कैसे न बढ़े ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परोपकारी बुद्धि से सबके शरीर और आत्मा के मध्य पुष्टि और विद्याबल को उत्पन्न कर विरोध छोड़के धर्मयुक्त व्यवहार को सेवन करके निरन्तर सब मनुष्यों को सत्यव्यवहार में प्रवृत्त करते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    भद्रा शक्ति

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! आप गतमन्त्र में वर्णित [देवासः] विद्वानों के द्वारा (द्वयोः) पति = पत्नी दोनों में ही (उक्थ्यं वचः) = प्रशंसनीय व स्तुति के योग्य वचनों को (अधि) = आधिक्येन (अदधाः) = धारण करते हैं । उन पति = पत्नियों में (या) = जो (मिथुना) = द्वन्द्वरूप में दोनों मिलकर (यतस्रुचा) चम्मच को ग्रहण करके (सपर्यतः) = अग्नि का पूजन करते हैं, अग्निहोत्र करते हैं अथवा [स्रुक = वाणी, वाग्वैस्रुचः = शत० ६/३/१/८] वाणी का संयम करके (सपर्यतः) = प्रभु का पूजन करते हैं । २. इस प्रकार के व्यक्ति (अ संयत्तः) = विषयों से बद्ध न हुए हुए हे प्रभो ! (ते व्रते) = आपके व्रत में (क्षेति) = निवास करते हैं । प्रभु का व्रत 'सत्य' है । ये सदा सत्य में चलते हैं और (पुष्यति) = प्रजा, पशु आदि से पुष्ट होते हैं । ३. इन (यजमानाय) = यज्ञशील (सुन्वते) = सोमाभिषव करनेवाले = शरीर में सोम = [वीर्य] = शक्ति को सुरक्षित रखनेवाले व्यक्ति के लिए (भद्रा शक्तिः) = कल्याणकारिणी शक्ति प्राप्त होती है । ४. मन्त्रार्थ से यह स्पष्ट है कि [क] अग्निहोत्र व प्रभुवन्दन करनेवाले बनें । इसके लिए आवश्यक है कि हम कम बोलें, [ख] प्रभु हमें विद्वानों के द्वारा उत्तम ज्ञान की वाणियों को प्राप्त कराएंगे, [ग] विषयों से बद्ध न होते हुए हम सत्य का पालन करें । सत्य का पालन असम्भव तभी होता है जब हम किसी विषय में फंस जाते हैं । [घ] हम यज्ञशील व सोमरक्षक बनकर कल्याणकारिणी शक्ति के स्वामी बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभुकृपा से हमें ज्ञान प्राप्त हो । हम पूजा की वृत्तिवालें हों । सत्य का व्रत लेकर हम यज्ञशील व सोमरक्षण करनेवाले एवं शक्तिशाली बनें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    परमेश्वर और विद्वान् आचार्य का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! गुरो ! परमेश्वर ! ( या ) जो दोनों ( मिथुना ) परस्पर सम्मिलित स्त्री पुरुष, गुरु शिष्य, राजा प्रजा आदि जोड़े (यतस्रुचा) मन, वाणी, प्राणी और इन्द्रिय गण पर वशी होकर ( सपर्यतः ) तेरी सेवा या आज्ञा पालन करते हैं तू ( द्वयोः ) उन दोनों के हित के लिये ( उक्थ्यं वचः ) उपदेश योग्य वचन, वेद-ज्ञान का उपदेश ( अद्धाः ) प्रदान कर, अथवा जो दोनों मिल कर ( द्वयोः उक्थ्यं वचः सपर्यतः ) एक दूसरे के प्रति कहने योग्य ज्ञानोपदेश या आचरण करते हैं उन दोनों को ( अदधाः ) तू धारण पोषण कर । हे परमेश्वर ! जो ( असंयत्तः ) संयम वा जितेन्द्रियता से न रहने वाला पुरुष भी ( ते व्रते ) तेरे उपदेश किये नियम में ( क्षेति ) रहता है उस ( सुन्वते यजमानाय ) ऐश्वर्य के अभिलाषी, अपने आपको अधीन शिष्य रूप से अर्पण करने वाले दानशील पुरुष की ( भद्रा ) कल्याण करने वाली, सुखजनक ( शक्ति ) शक्ति ( पुष्यति) पुष्ट हो जाती है । अर्थात् गुरुसेवा और ईश्वरभक्ति से अजितेन्द्रिय भी जितेन्द्रिय और दुर्बल भी प्रबल हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-६ गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४, ५ निचृज्जगती । २ जगती । ६ त्रिष्टुप् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे विद्वान् उपदेशक कैसे हों, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्य ! यथा या यतस्रुचा मिथुना द्वयोःयत् उक्थ्यं वचः सपर्यतः तथा एतौ त्वम् अदधाः। यः असंयतःअपि ते व्रते क्षेति तस्मिन् भद्रा शक्तिः अधि निवसति स पुष्यति पुष्टः भवति तर्हि तस्मै सुन्वते यजमानाय सुखं कथं न वर्द्धेत ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्यः)= मनुष्य ! (यथा)=जिस प्रकार से, (या) यौ=जो, (यतस्रुचा) यता नियताः स्रुचः साधनानि याभ्यामुपदेशाभ्यां तौ[{ (स्रुचः) विज्ञानयुक्ताः}-महर्षि दयानन्द सरस्वती(ऋ०-०१-१४४-०१)] = संयमित विशेष ज्ञान से युक्त साधनों से उपदेश करनेवाले, (मिथुना) विरोधं विहाय मिलितौ=विरोध को छोड़ते हुए मिलते हुए, (द्वयोः) स्वात्मपरात्मनोः प्रियम्= दोनों अपने आत्मा और परमात्मा के प्रिय, (यत्) =जो, (उक्थ्यम्) वक्तुमर्हम्=कहने के योग्य, (वचः) सत्यं वचनम्= सत्य वचन से, (सपर्यतः) परिचरतः=सम्मान करते हुए, (तथा)=वैसे ही, (एतौ)=इन दोनों को, (त्वम्)=तुम, (अदधाः) धेहि=धारण करो । (यः)=जो, (असंयत्तः) अजितेन्द्रियोऽपि=अजितेन्द्रिय रहते हुए, (अपि)=भी, (ते) तव=तुम्हारे, (व्रते) सत्यभाषणादिलक्षणे व्यवहारे= सत्य भाषण आदि लक्षणों के व्यवहार में, (क्षेति) निवसति=रहता है, (तस्मिन्)=उसमें, (भद्रा) कल्याणकारिणी= कल्याण करने की, (शक्तिः) समर्थता= समर्थता, (अधि) उपरिभावे=आत्मा के ऊँचे होने की अवस्था में, (निवसति)=रहती है, (सः)=वह, (पुष्यति) पुष्टो भवति= परिपूर्ण होता है, (तर्हि)= इसलिये, (तस्मै)= उसके लिये, (सुन्वते) ऐश्वर्यमिच्छुकाय प्राप्ताय वा= ऐश्वर्य के इच्छुक के प्राप्त करने के लिये, (यजमानाय) उपदेश्याय पालकाय वा= उपदेशक के योग्य और उपदेश का पालन करनेवाले के लिये, (सुखम्)= सुख, (कथम्)=कैसे, (न)=न, (वर्द्धेत)= बढ़े ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परोपकारी बुद्धि से सबके शरीर और आत्मा में पुष्ट विद्या के बल को जानकर, विरोध छोड़ करके धर्म के व्यवहार का अनुसरण करके निरन्तर सब मनुष्यों को सत्य व्यवहार में प्रवृत्त करते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं, अन्य नहीं, ऐसा जानना चाहिए॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्यः) मनुष्य ! (यथा) जिस प्रकार से, (या) जो (यतस्रुचा) संयमित विशेष ज्ञान से युक्त साधनों से उपदेश करनेवाले, (मिथुना) विरोध को छोड़कर मिलते हुए, (द्वयोः) अपने आत्मा और परमात्मा दोनों के प्रिय, (यत्) जो (उक्थ्यम्) कहने के योग्य (वचः) सत्य वचन से (सपर्यतः) सम्मान करते हैं, (तथा) वैसे ही (एतौ) इन दोनों को (त्वम्) तुम (अदधाः) धारण करो । (यः) जो (असंयत्तः) अजितेन्द्रिय रहते हुए (अपि) भी (ते) तुम्हारे (व्रते) सत्य भाषण आदि लक्षणों के व्यवहार में (क्षेति) रहता है, (तस्मिन्) उसमें (भद्रा) कल्याण करने की (शक्तिः) समर्थता (अधि) आत्मा के ऊँचे अवस्था में होने से (निवसति) रहती है। (सः) वह (पुष्यति) परिपूर्ण होता है, (तर्हि) इसलिये (तस्मै) उस (सुन्वते) ऐश्वर्य के इच्छुक के प्राप्त करने के लिये (यजमानाय) उपदेशक के योग्य और उपदेश का पालन करनेवाले के लिये (सुखम्) सुख (कथम्) कैसे (न) न (वर्द्धेत) बढ़े ॥३॥

    संस्कृत भाग

    अधि॑ । द्वयोः॑ । अ॒द॒धाः॒ । उ॒क्थ्य॑म् । वचः॑ । य॒तऽस्रु॑चा । मि॒थु॒ना । या । स॒प॒र्यतः॑ । अस॑म्ऽयत्तः । व्र॒ते । ते॒ । क्षे॒ति॒ । पुष्य॑ति । भ॒द्रा । श॒क्तिः । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः परोपकारबुद्ध्या सर्वेषां शरीरात्मनोर्मध्ये पुष्टिविद्याबले ज्ञात्वा विरोधं त्यक्त्वा धर्म्यं व्यवहारं सेवित्वा सततं सर्वान् मनुष्यान् सत्ये व्यवहारे प्रवर्त्तयन्ति, ते मोक्षमाप्नुवन्ति नेतर इति वेद्यम् ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे परोपकारी बुद्धीने सर्वांच्या शरीर व आत्म्याची पुष्टी करतात व विद्याबल उत्पन्न करून विरोध सोडून धर्मयुक्त व्यवहार करतात आणि सदैव सर्व माणसांना सत्य व्यवहारात प्रवृत्त करतात ते मोक्ष प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of yajna, just as you accept the offerings held in the ladles raised by the wedded couple, so graciously listen and accept the holy prayers of the two, ancients and moderns, teacher and disciple, husband and wife, parent and child, for the good of both. Even the loose and the wanton, under your care, find shelter and protection and grow. The gracious power of yajna creates and offers everything for the yajamana.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the learned persons is taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As when two (Preceptor and pupil, husband and wife, king and his subjects, teachers and preachers etc.), endowed with proper means and having self control, jointly and without any kind of animosity worship Thee O God, Thou givest them admirable words through the Vedas. Even if a man who has not perfect control over his mind and senses, dwells in the conduct of truthfulness etc., he the performer of Yajna and charitable acquires auspicious power and prospers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (द्वयोः) स्वात्मपरात्मनोः = Of one's own and others. (क्षेति) निवसति = Dwells. (यतसुचा) यताः नियताःत्र चा: साधनानि याभ्यां त = Endowed with means and having self control.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Only those persons attain liberation who try to develop with knowledge and strength the power of the body and soul of all with the idea of doing good to them, having given up all animosity, always are engaged in righteous conduct and prompt others also to tread upon the path of truth and none else.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then, how should those learned preachers be?This subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyaḥ) =human, (yathā) =In the way, (yā) =that, (yatasrucā) =Those who preach using restrained means with special knowledge, (mithunā)= leaving aside opposition and meeting, (dvayoḥ) =dear to both your soul and God, (yat) =those, (ukthyam)=worth saying, (vacaḥ) =truthful speech, (saparyataḥ) =respect, (tathā) =in the same cway, (etau) =to both of these, (tvam) =you, (adadhāḥ) =possess, (yaḥ) =that, (asaṃyattaḥ) =having unconquered senses, (api) =also,(te) =your, (vrate)=in the behavior of truthful speech etc. characteristics, (kṣeti) =lives, (tasmin) =in that, (bhadrā) =of doing welfare, (śaktiḥ) =capability, (adhi)= due to high state of soul, (nivasati) =lives, (saḥ) =he, (puṣyati) =is complete, (tarhi) =therefore, (tasmai) =for that, (sunvate) =To achieve the desire of opulence, (yajamānāya)=for the preacher and the follower, (sukham) =happiness, (katham) =how, (na) =not, (varddheta)= increase,

    English Translation (K.K.V.)

    O human! In the way, you should embrace both of these, who are dear to both your soul and God and who respect you with words of truth that are worthy of speaking, when you meet people who preach using controlled means with special knowledge, leaving aside opposition and assembly. The one who, despite being having unconquered senses, still practices your truthful speech etc., has the ability to do good because the soul is in a higher state. It is complete, hence how can happiness not increase for the person wishing to attain that opulence, for the preacher and for the one following the preaching?

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Those people, who, with a charitable mind, knowing the power of knowledge established in everyone's body and soul, renouncing opposition and following the practice of righteousness, continuously inspire all people to behave in the right way, they attain salvation and not others, this should be known.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top