ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
आदङ्गि॑राः प्रथ॒मं द॑धिरे॒ वय॑ इ॒द्धाग्न॑यः॒ शम्या॒ ये सु॑कृ॒त्यया॑। सर्वं॑ प॒णेः सम॑विन्दन्त॒ भोज॑न॒मश्वा॑वन्तं॒ गोम॑न्त॒मा प॒शुं नरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । अङ्गि॑राः । प्र॒थ॒मम् । द॒धि॒रे॒ । वयः॑ । इ॒द्धऽअ॑ग्नयः । शम्या॑ । ये । सु॒ऽकृ॒त्यया॑ । सर्व॑म् । प॒णेः । सम् । अ॒वि॒न्द॒न्त॒ । भोज॑नम् । अश्व॑ऽवन्तम् । गोऽम॑न्तम् । आ । प॒शुम् । नरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदङ्गिराः प्रथमं दधिरे वय इद्धाग्नयः शम्या ये सुकृत्यया। सर्वं पणेः समविन्दन्त भोजनमश्वावन्तं गोमन्तमा पशुं नरः ॥
स्वर रहित पद पाठआत्। अङ्गिराः। प्रथमम्। दधिरे। वयः। इद्धऽअग्नयः। शम्या। ये। सुऽकृत्यया। सर्वम्। पणेः। सम्। अविन्दन्त। भोजनम्। अश्वऽवन्तम्। गोऽमन्तम्। आ। पशुम्। नरः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इद्धाग्नयो ये नरो मनुष्या यथा सुकृत्यया शम्या पणेः प्रथमं वयो ब्रह्मचर्यार्थमादधिरे सर्वतो दधति ते सर्वं भोजनं समविन्दन्त प्राप्नुवन्त्वाद्यथाऽङ्गिराः अश्वावन्तं गोमन्तं राज्यं प्राप्यानन्दितः पशुं लब्ध्वानन्दी भवति तथा भवन्तु ॥ ४ ॥
पदार्थः
(आत्) अनन्तरम् (अङ्गिराः) प्राण इव प्रियो वत्सः। अङ्गिरस इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) (प्रथमम्) आदिमं ब्रह्मचर्यार्थम् (दधिरे) दधति (वयः) जीवनम् (इद्धाग्नयः) इद्धाः प्रदीप्ता मानसबाह्याग्नयो यैस्ते (शम्या) शान्तियुक्तक्रियया। शमीति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (ये) (सुकृत्यया) शोभनानि कृत्यानि कर्माणि यस्यां तया (सर्वम्) अखिलम् (पणेः) स्तुत्यस्य व्यवहारस्य (सम्) सम्यक् (अविन्दन्त) विन्दन्ते प्राप्नुवन्ति (भोजनम्) पालनं भोग्यमानन्दं वा (अश्वावन्तम्) प्रशस्ता अश्वा विद्यन्ते यस्मिंस्तम् (गोमन्तम्) बह्व्यो गावः सन्त्यस्मिंस्तम् (आ) समन्तात् (पशुम्) स्वमातरम् (नरः) नेतारः ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। केचिदपि मनुष्या ब्रह्मचर्यसेवनेन विना साङ्गोपाङ्गविद्याः प्राप्तुं न शक्नुवन्ति, विद्याशक्तिभ्यां विना राज्याऽधिकारं लब्धुं नार्हन्ति, न चैतद्विरहा जनाः सत्यानि सुखानि प्राप्तुमर्हन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (इद्धाग्नयः) अग्निविद्या को प्रदीप्त करनेहारे (ये) (नरः) नायक मनुष्यो ! आप जैसे (सुकृत्यया) सुकृतयुक्त (शम्या) कर्म और (पणेः) प्रशंसनीय व्यवहार करनेवाले के उपदेश से (प्रथमम्) पहिले (वयः) उमर को ब्रह्मचर्य के लिये (आदधिरे) सब प्रकार से धारण करते हैं वे (सर्वम्) सब (भोजनम्) आनन्द को भोग और पालन को (समविन्दन्त) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं (आत्) इससे अनन्तर जैसे (अङ्गिराः) प्राणवत् प्रिय बछड़ा (पशुम्) अपनी माता को प्राप्त होके आनन्दित होता है, वैसे आप (अश्वावन्तम्) उत्तम घोड़ों से युक्त (गोमन्तम्) श्रेष्ठ गाय और भूमि आदि से सहित राज्य को प्राप्त होके आनन्दित हूजिये ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। कोई भी मनुष्य ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़े विना साङ्गोपाङ्ग विद्याओं को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकते और विद्या सत्कर्म के विना राज्याधिकार को प्राप्त होने योग्य नहीं होते, उक्त प्रकार से रहित मनुष्य सत्य सुख को प्राप्त नहीं हो सकते ॥ ४ ॥
विषय
सर्वं भोजनम्
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार 'भद्रशक्ति' प्राप्त करने पर (आत्) = अब (अङ्गिराः) = अङ्गिरस लोग = अङ्ग - अङ्ग में रसवाले लोग (प्रथमं वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (दधिरे) = धारण करते हैं । बिना शक्ति के उत्कर्ष सम्भव नहीं होता । २. (इत् ह) = निश्चय ही (अग्नयः) = [अग्रणीः] प्रगतिशील व्यक्ति वे ही होते हैं (ये) = जो (सुकृत्यया) = उत्तम क्रियाओंवाली (शम्या) = यज्ञादि क्रिया से युक्त होते हैं । यज्ञीय कर्म हमारे जीवन में प्रगति का कारण होते हैं । ३. ये व्यक्ति (पणेः) = [पण व्यवहारे स्तुतौ च] प्रभु स्मरणपूर्वक व्यवहार करनेवाले के (सर्वम्) = स्वास्थ्यजनक [wholesome] (भोजनम्) = भोजन को (समविन्दन्त) = प्राप्त करते हैं । जो भी व्यक्ति प्रभुस्मरण के साथ क्रियाशील बनता है वह जीवन के सब आवश्यक धनों को प्राप्त करता ही है । ४. (ये नरः) = प्रगतिशील व्यक्ति (अश्वावन्तम्) = उत्तम कर्मेन्द्रियोंवाले (गोमन्तम्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाले तथा (आपशुम्) = [आ मयादायाम्] मर्यादित पाशविक काम = क्रोधादि भावनावाले (वयः) = जीवन को (समविन्दन्त) = प्राप्त करते हैं । काम = क्रोधादि राजस् भावनाएं हैं । इन्हें मर्यादित रखना अत्यन्त आवश्यक है । इनकी अमर्यादा में ही विनाश है । मर्यादित होने पर ये रक्षा का कार्य करती हैं । सात्त्विक भावनाएँ ब्राह्मवृत्ति हैं तो मर्यादित क्रोधादि की राजस् भावनाएँ क्षात्रवृत्ति हैं । 'ब्रह्म+क्षत्र' ही उत्कृष्ट जीवन है, न अकेला ब्रह्म, न अकेला क्षत्र ।
भावार्थ
भावार्थ = अङ्गिरसों का जीवन उत्कृष्ट होता है । अग्नि वे हैं जो यज्ञादि उत्तम कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं । पणि स्वास्थ्यजनक भोजन का सेवन करते हैं । उत्तम जीवन में ब्रह्म व क्षत्र का समन्वय होता है ।
विषय
ब्रह्मचर्य का उत्तम फल ।
भावार्थ
( ये ) जो ( अङ्गिराः ) जलते अंगारों के समान तेजस्वी, ज्ञानी पुरुष ( इद्धाग्नयः ) बाहर की यज्ञाग्नियों और भीतर की प्राणाग्नियों को प्रज्वलित कर के ( सुकृत्यया ) उत्तम कर्तव्य कर्मों से युक्त ( शम्या ) शान्तिजनक साधना से ( प्रथमं ) प्रथम ( वयः ) अवस्था को ब्रह्मचर्य पूर्वक ( दधिरे ) धारण करते हैं अथवा जो ( प्रथमं वयः) मुख्य बल, ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं ( अङ्गिराः पशुम् ) बछड़ा जिस प्रकार अपनी माता को प्राप्त होता है और दूध आदि भोजन वा सुख पाता है उसी प्रकार ( नरः ) मनुष्य ( पणेः ) स्तुति योग्य उत्तम व्यवहार और उपदेश योग्य वेद-ज्ञान के ( भोजनम् ) पालन सामर्थ्य और ( अश्वावन्तं ) अश्वों और ( गोमन्तम् ) गौओं से युक्त ऐश्वर्य को ( सम् अविन्दन्त ) प्राप्त करते हैं । अथवा जो ज्ञानी पुरुष प्रथम बल को धारण करते हैं वे ( पणेः ) स्तुति योग्य, उत्तम व्यवहार-कुशल सम्पन्न पुरुष के योग्य भोजन, अश्वों और गौऔं से युक्त ( प्रशुं ) पशु सम्पत्ति को भी प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-६ गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४, ५ निचृज्जगती । २ जगती । ६ त्रिष्टुप् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे विद्वान् कैसे हों, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इद्धाग्नयः ये नरः मनुष्याः यथा सुकृत्यया शम्या पणेः प्रथमं वयः ब्रह्मचर्यार्थम् आ दधिरे सर्वतः दधति ते सर्वं भोजनं सम् अविन्दन्त प्राप्नुवन्तु अद्यथा {आत्} अङ्गिराः अश्वावन्तं गोमन्तं राज्यं प्राप्य आनन्दितः पशुं लब्ध्वा आनन्दी भवति तथा भवन्तु ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (इद्धाग्नयः) इद्धाः प्रदीप्ता मानसबाह्याग्नयो यैस्ते= मनुष्य की मानसिक ज्ञानाग्नियों और प्रत्यक्ष बाह्य अग्नियो को प्रदीप्त करनेवाले, (ये)=जो, (नरः) नेतारः=अग्रणी, (मनुष्याः)= मनुष्य, (यथा)=जैसे, (सुकृत्यया) शोभनानि कृत्यानि कर्माणि यस्यां तया=उत्तम कर्मों से, (शम्या) शान्तियुक्तक्रियया=शान्ति युक्त क्रिया से, (पणेः) स्तुत्यस्य व्यवहारस्य=स्तुति किये हुए के व्यवहार के, (प्रथमम्) आदिमं ब्रह्मचर्यार्थम्=प्रारम्भिक ब्रह्मचर्य के लिये, (वयः) जीवनम्=जीवन को, (आ) समन्तात्= अच्छे प्रकार से, (दधिरे) दधति=धारण करता है, (ते)=वे, (सर्वम्) अखिलम्=समस्त, (भोजनम्) पालनं भोग्यमानन्दं वा= भोगने योग्य आनन्द को, (सम्) सम्यक् = अच्छे प्रकार से, (अविन्दन्त) विन्दन्ते प्राप्नुवन्ति=प्राप्त करते हैं, (अद्यथा)=आज के, {आत्} अनन्तरम्=बाद, (अङ्गिराः) प्राण इव प्रियो वत्सः= प्राण के समान प्रिय बालक, (अश्वावन्तम्) प्रशस्ता अश्वा विद्यन्ते यस्मिंस्तम्= प्रशस्त अश्वोंवाला, (गोमन्तम्) बह्व्यो गावः सन्त्यस्मिंस्तम्=बहुत गायोंवाला, (राज्यम्)= राज्य को, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (आनन्दितः)= आनन्दित होता है, (पशुम्) स्वमातरम्=अपनी माता को, (लब्ध्वा)=पाकर, (आनन्दी)= आनन्दित, (भवति) = होता है, (तथा)=वैसे ही, (भवन्तु)= होवें ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। किसी भी मनुष्य को ब्रह्मचर्य के पालन के विना वेद के अङ्गो और उपाङ्गो सहित विद्या प्राप्त नहीं हो सकती है। विद्या और शक्ति के विना राज्य का अधिकार प्राप्त करने के योग्य नहीं होते हैं, इनसे से रहित मनुष्य सत्य सुख को प्राप्त करने योग्य नहीं होते हैं ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इद्धाग्नयः) मनुष्य की प्रत्यक्ष बाह्य अग्नियो को प्रदीप्त करनेवाले, (ये) जो (नरः) अग्रणी (मनुष्याः) मनुष्य, (यथा) जैसे (सुकृत्यया) उत्तम कर्मों और (शम्या) शान्ति युक्त क्रिया से (पणेः) स्तुति किये हुए के व्यवहार के (प्रथमम्) प्रारम्भिक ब्रह्मचर्य के (वयः) जीवन को, (आ) अच्छे प्रकार से (दधिरे) धारण करता है। (ते) वे (सर्वम्) समस्त (भोजनम्) भोगने योग्य आनन्द को (सम्) अच्छे प्रकार से, (अविन्दन्त) प्राप्त करते हैं। (अद्यथा) आज के {आत्} बाद (अङ्गिराः) प्राण के समान प्रिय बालक (अश्वावन्तम्) प्रशस्त अश्वोंवाला (गोमन्तम्) बहुत गायोंवाला होकर (राज्यम्) राज्य को (प्राप्य) प्राप्त करके (आनन्दितः) आनन्दित होता है। [जैसे कोई] (पशुम्) अपनी माता को (लब्ध्वा) पाकर (आनन्दी) आनन्दित (भवति) होता है, (तथा) वैसे ही (भवन्तु) होवें ॥४॥
संस्कृत भाग
आत् । अङ्गि॑राः । प्र॒थ॒मम् । द॒धि॒रे॒ । वयः॑ । इ॒द्धऽअ॑ग्नयः । शम्या॑ । ये । सु॒ऽकृ॒त्यया॑ । सर्व॑म् । प॒णेः । सम् । अ॒वि॒न्द॒न्त॒ । भोज॑नम् । अश्व॑ऽवन्तम् । गोऽम॑न्तम् । आ । प॒शुम् । नरः॑ ॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)-अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। केचिदपि मनुष्या ब्रह्मचर्यसेवनेन विना साङ्गोपाङ्गविद्याः प्राप्तुं न शक्नुवन्ति, विद्याशक्तिभ्यां विना राज्याऽधिकारं लब्धुं नार्हन्ति, न चैतद्विरहा जनाः सत्यानि सुखानि प्राप्तुमर्हन्ति ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. कोणतीही माणसे ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या शिकल्याशिवाय सांगोपांग विद्या प्राप्त करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत व विद्या सत्कर्माशिवाय राज्याधिकार प्राप्त करण्यायोग्य बनू शकत नाहीत. याविरुद्ध असणारी माणसे सत्य सुख प्राप्त करू शकत नाहीत. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
And then the scientists of fire and energy, leaders of mankind who light the fires and who first offer the libations into the fire with holy acts of love and peace, win their share of praise and fame with the reward of horses, speed and motion, wealth of cows, sensitivity of mind and senses and the joy of life and celestial vision.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (learned men) is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men who have kindled fire, those persons who in the first stage or part of their life observe perfect Brahmacharya (continenee) of the admirable conduct with peaceful noble acts, acquire all protection and enjoyment. As a calf dear like the Prana is glad to get his mother-cow, in the same manner, you should be glad to get kingdom consisting of the horses, cows and other things.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अंगिरा) प्राण: इव प्रियो वत्सः अत्र जसः स्थाने सुः । अंगिरस इति पदनाम । (निघ० ५.५ ) = Calf dear like Prana. (पणोः) स्तुत्यस्य व्यवहारस्य = Of admirable conduct. (भोजनम्) पालन भोग्यम् प्रानन्दं वा = Protection or enjoyment.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None can acquire the knowledge of the Vedas, their angas and Upangas (branches and subsidiaries) without the observance of Brahamcharya and none can get the kingdom without knowledge and power and without them none can obtain happiness.
Translator's Notes
पण-व्यवहारे स्तुतौ च भुज-पालनाभ्यवहारयोः प्राणो वा अंगिरा: (शतपथ ० ६.१२.२८, ६. ५. a २. ३. ४ )
Subject of the mantra
Then, how should those scholars be? This subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (iddhāgnayaḥ)= the one who kindles the visible external fires of man, (ye) =that, (naraḥ)= the foremost, (manuṣyāḥ)= man, (yathā) =like, (sukṛtyayā)= noble deeds and, (śamyā) =by peaceful actions, (paṇeḥ) praised by behaviour, (prathamam)=celibacy in the beginning, (vayaḥ) =of life, (ā) =well, (dadhire) =possesses, (te) =they, (sarvam) =all, (bhojanam)= to enjoy the pleasure, (sam) =well, (avindanta) =attain, (adyathā) =today, {āt} =afterwards, (aṅgirāḥ) = the child who is as dear as life, (aśvāvantam) =having excellent horses, (gomantam) =having many cows, (rājyam)=the kingdom, (prāpya) =attaing, (ānanditaḥ) =becomes happy, [jaise koī]= Just as someone, (paśum) =to own mother, (labdhvā) =getting, (ānandī) =happy, (bhavati) =becomes, (tathā) =similarly, (bhavantu) =be.
English Translation (K.K.V.)
O the one who kindles the visible external fires of man! who, like the foremost man, who is praised by noble deeds and peaceful actions, embraces the life of celibacy in the beginning well. One gets all the happiness to enjoy the pleasure in a good way. After today, the child who is as dear as life and has excellent horses and many cows, becomes happy after getting the kingdom. Just as someone is happy to find his mother, let it be like that.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. No man can attain knowledge of Vedas including its aṅga aura upāṅga without observing celibacy. Without knowledge and power, people are not capable of attaining the right to rule; and people without these are not capable of attaining true happiness.
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