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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ ति॑ष्ठ वृत्रह॒न्रथं॑ यु॒क्ता ते॒ ब्रह्म॑णा॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीनं॒ सु ते॒ मनो॒ ग्रावा॑ कृणोतु व॒ग्नुना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ति॒ष्ठ॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । रथ॑म् । यु॒क्ता । ते॒ । ब्रह्म॑णा । हरी॒ इति॑ । अ॒र्वा॒चीन॑म् । सु । ते॒ । मनः॑ । ग्रावा॑ । कृ॒णो॒तु॒ । व॒ग्नुना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तिष्ठ वृत्रहन्रथं युक्ता ते ब्रह्मणा हरी। अर्वाचीनं सु ते मनो ग्रावा कृणोतु वग्नुना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। तिष्ठ। वृत्रऽहन्। रथम्। युक्ता। ते। ब्रह्मणा। हरी इति। अर्वाचीनम्। सु। ते। मनः। ग्रावा। कृणोतु। वग्नुना ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सेनाध्यक्षः स्वभृत्यान् प्रति किं किमादिशेदित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे वृत्रहन् शूरवीर ! ते तव यस्मिन् ब्रह्मणा चालितौ हरी युक्ता स्तस्तमर्वाचीनं रथं त्वमातिष्ठ ग्रावेव वग्नुना वक्तृत्वं सुकृणोत्वित्थं ते मनो वीरान् सुष्ठूत्साहयतु ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (आ) अभितः (तिष्ठ) (वृत्रहन्) मेघं सवित इव शत्रुमतिविच्छेत्तः (रथम्) विमानादियानम् (युक्ता) सम्यक् सम्बद्धौ (ते) तव (ब्रह्मणा) अन्नादिसामग्र्या सह वर्त्तमानेन शिल्पिना सारथिना वा (हरी) हरणशीलावग्निजलाख्यौ तुरङ्गौ वा (अर्वाचीनम्) अधस्ताद् भूमिजलयोरुपगन्तारम् (सु) शोभने (ते) तव (मनः) विज्ञानम् (ग्रावा) मेघ इव विद्वान् यो गृणाति सः (कृणोतु) करोतु (वग्नुना) वाण्या। वग्नुरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सभाध्यक्षैः सेनायां द्वावध्यक्षौ रक्ष्येतां तयोरेकः सेनापतिर्योधयिता द्वितीयो वक्तृत्वेनोत्साहायोपदेशकः। यदा युद्धं प्रवर्त्तेत तदा सेनापतिर्भृत्यान् सुपरीक्ष्योत्साह्य शत्रुभिः सह योधयेद्यतो ध्रुवो विजयस्स्याद् यदा युद्धं निवर्त्तेत तदोपदेशकः सर्वान् योद्धॄन् परिचारकांश्च शौर्यकृतज्ञता धर्म्मकर्मोपदेशेन सूत्साहयुक्तान् कुर्यादेवं कर्तॄणां कदाचित् पराजयो भवितुन्न शक्यते इति वेद्यम् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सेनापति अपनी सेना के भृत्यों को क्या-क्या आज्ञा देवे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (वृत्रहन्) मेघ को सविता के समान शत्रुओं के मारनेहारे शूरवीर ! (ते) तेरे जिस (ब्रह्मणा) अन्नादिसामग्री से युक्त शिल्पि वा सारथि के चलाये हुए (हरी) पदार्थ को पहुँचाने वाले जलाग्नि वा घोड़े (युक्ता) युक्त हैं, उस (अर्वाचीनम्) भूमि, जल के नीचे-ऊपर आदि को जानेवाले (रथम्) रथ में तू (आतिष्ठ) बैठ (ग्रावा) मेघ के समान (वग्नुना) सुन्दर मधुर वाणी में वक्तृत्व को (सुकृणोतु) अच्छे प्रकार कर, उससे (ते) तेरा (मनः) विज्ञान वीरों को अच्छे प्रकार उत्साहित किया करे ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सभापतियों को योग्य है कि सेना में दो प्रकार के अधिकारी रक्खें। उनमें एक सेना को लड़ावे और दूसरा अच्छे भाषणों से योद्धाओं को उत्साहित करे। जब युद्ध हो तब सेनापति अच्छी प्रकार परीक्षा और उत्साह से शत्रुओं के साथ ऐसा युद्ध करावे कि जिससे निश्चित विजय हो और जब युद्ध बन्द हो जाये, तब उपदेशक योद्धा और सब सेवकों को धर्मयुक्त कर्म के उपदेश से अच्छे प्रकार उत्साहित करें, ऐसे करनेहारे मनुष्यों का कभी पराजय नहीं हो सकता ॥ ३ ॥

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    विषय

    अर्वाचीन मन

    पदार्थ

    १. हे (वृत्रहन्) = ज्ञान की आवरणभूत कामादि वासनाओं का हनन करनेवाले इन्द्र ! तू (रथम्) = इस शरीररूप रथ पर (आतिष्ठ) = आरूढ़ हो । यह तेरा शरीर = रथ सब प्रकार से सकलाङ्ग हो—इसमें किसी प्रकार की वि - कलता न हो और यह जीवन = यात्रा के लिए बिल्कुल ठीक - ठाक हो । २. (ब्रह्मणा) = प्रभु ने (ते) = तेरे लिए (हरी युक्ता) = इस शरीर - रथ में घोड़ों को जोत दिया है । ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ ही घोड़े हैं । ये तेरे इस शरीर - रथ को मार्ग पर आगे और आगे ले - चलेंगे । ३. इसी उद्देश्य से (ग्रावा) = ज्ञान का उपदेष्टा गुरु (वग्नुना) ज्ञान के वचनों से (ते) = तेरे (मनः) मन को (सु) = उत्तमता से (अर्वाचीनम्) = अन्तर्मुख गतिवाला (कृणोतु) = करे । ज्ञानी आचार्य के उपदेशों से प्रेरणा प्राप्त करके तेरा मन विषयों में भटकने के स्थान में अन्तर्मुख होकर - निरुद्ध वृत्तिवाला होकर, आत्मदर्शन के लिए उद्यत हो । तेरी यात्रा बहिर्मुखी न होकर अन्तर्मुखी हो । मन ही तो वह लगाम है जिससे कि इन्द्रियरूप अश्व वश में किये जाते हैं । विषयासक्त हो यह लगाम ही निर्बल होकर टूट गई तो घोड़ों को काबू करने का प्रसङ्ग ही न रहेगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ = इस शरीररूप रथ में प्रभु ने इन्द्रियाश्व जोते हैं । मनरूप लगाम अर्वाचीन अन्तर्मुखी व बुद्धिरूप सारथि के काबू में रही तो यात्रा अवश्य पूर्ण होगी ।

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    विषय

    वीर राजा, सेनापति के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( वृत्रहन् ) सूर्य के समान शत्रु दल को छिन्न भिन्न करने हारे ! (ते हरी ) तेरे अधीन कार्य निर्वाहक दो विद्वान्, दो अश्वों के समान ( रथम् ) रथ रूप राज्य कार्यभार में ( युक्ता ) नियुक्त हों । तू उस कार्य पर (आतिष्ठ) अधिष्ठाता रूप से विराज । ( ग्रावा ) उत्तम वचनोपदेशों का देने वाला वाग्मी पुरुष ( वग्नुना ) उत्तम वचनोपदेश से ( ते मनः ) तेरे चित्त को ( सुते ) अभिषेक द्वारा प्राप्त राज्य की ओर ( अर्वाचीनम् कृणोतु ) आकर्षित करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः । इन्द्रो देवता । छन्दः—१, ३–५ निचृदनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ६ भुरिगुष्णिक् । ७-६ उष्णिक् । १०, १२ विराडास्तारपंक्तिः । ११ आस्तारपंक्तिः । २० पंक्तिः । १३-१५ निचृद्गायत्री । १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १७ विराट् त्रिष्टुप्। १८ त्रिष्टुप् । १९ आर्ची त्रिष्टुप् । विंशत्यृचं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर सेनापति अपनी सेना के भृत्यों को क्या-क्या आज्ञा देवे, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे वृत्रहन् शूरवीर ! ते तव यस्मिन् ब्रह्मणा चालितौ हरी युक्ता स्तः तम् अर्वाचीनं रथं त्वम् आ तिष्ठ ग्रावा इव वग्नुना वक्तृत्वं सु कृणोतु इत्थं ते मनः वीरान् सुष्ठु उत्साहयतु ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (वृत्रहन्) मेघं सवित इव शत्रुमतिविच्छेत्तः=सूर्य के द्वारा जैसे बादल को छिन्न-भिन्न किया जाता है, वैसे ही शत्रुओं को नष्ट करनेवाले, (शूरवीर)= शूरवीर ! (ते) तव=तुम्हारे, (यस्मिन्)=जिस, (ब्रह्मणा) अन्नादिसामग्र्या सह वर्त्तमानेन शिल्पिना सारथिना वा चालितौ=अन्न आदि सामग्री से लदे हुए शिल्पियों और सारथियों सहित यानों में, (हरी) हरणशीलावग्निजलाख्यौ तुरङ्गौ वा=चुराये जाने की सम्भावनावाले वाष्प या दो अश्वों से चलाये जानेवाले यानों से, (युक्ता) सम्यक् सम्बद्धौ=अच्छे प्रकार से जुड़े हुए, (स्तः)=हैं, (तम्)=उन, (अर्वाचीनम्) अधस्ताद् भूमिजलयोरुपगन्तारम्=नीचे की ओर भूमि और जल में चलनेवाले और, [आकाश में], (रथम्) विमानादियानम्= विमान आदि यान में, (त्वम्)=तुम, (आ) अभितः=हर ओर से, (तिष्ठ)=बैठो, (ग्रावा) मेघ इव विद्वान् यो गृणाति सः=बादल के समान जोर से शब्द करनेवाले विद्वान् के, (इव)=समान, (वग्नुना) वाण्या=वाणी के, (वक्तृत्वम्)= वाक्पटुता को (सु) शोभने=उत्तम, (कृणोतु) करोतु=बनाओ, (इत्थम्)=इस प्रकार से, (ते) तव=तुम्हारा, (मनः) विज्ञानम्=विशेष ज्ञान, (वीरान्)=वीरों को, (सुष्ठु)= बहुत, (उत्साहयतु)= उत्साहित करे ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सभाध्यक्ष के द्वारा सेना के दोनों अध्यक्षों की रक्षा की जानी चाहिए। उनमे से एक सेनापति युद्ध करे और दूसरा उपदेशक होकर अपनी वाणी से उत्साहित करे। जब युद्ध प्रारम्भ हो जावे तब सेनापति सैनिक वर्ग का परीक्षण करके व उन्हें उत्साहित करके शत्रुओं के साथ युद्ध करे, जिससे विजय निश्चित हो जावे। जब युद्ध सम्पन्न हो जावे तब उपदेशक समस्त युद्ध करनेवालों और सेवा करनेवालों की कृतज्ञता का ज्ञापन, धर्म, कर्म के उपदेश और उत्तम उत्साह से करे। ऐसा करनेवालों की कभी पराजय नहीं हो तकती है, ऐसा जानना चाहिए

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (वृत्रहन्) सूर्य के द्वारा जैसे बादल को छिन्न-भिन्न किया जाता है, वैसे ही शत्रुओं को नष्ट करनेवाले (शूरवीर) शूरवीर ! (ते) तुम्हारे (यस्मिन्) जिस (ब्रह्मणा) अन्न आदि सामग्री से लदे हुए शिल्पियों और सारथियों सहित यानों में, (हरी) चुराये जाने की सम्भावनावाले, वाष्प या दो अश्वों से चलाये जानेवाले यानों से जो (युक्ता) अच्छे प्रकार से जुड़े हुए (स्तः) हैं। (तम्) उन (अर्वाचीनम्) नीचे भूमि में और जल में चलनेवाले और आकाश में, (रथम्) विमान आदि यान में (त्वम्) तुम (आ) हर ओर से (तिष्ठ) बैठो। (ग्रावा) बादल के समान जोर से शब्द करनेवाले विद्वान् के (इव) समान, (वग्नुना) वाणी की (वक्तृत्वम्) वाक्पटुता को (सु) उत्तम (कृणोतु) बनाओ। (इत्थम्) इस प्रकार से (ते) तुम्हारा (मनः) विशेष ज्ञान (वीरान्) वीरों को (सुष्ठु) बहुत (उत्साहयतु) उत्साहित करे ॥३॥

    संस्कृत भाग

    आ । ति॒ष्ठ॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । रथ॑म् । यु॒क्ता । ते॒ । ब्रह्म॑णा । हरी॒ इति॑ । अ॒र्वा॒चीन॑म् । सु । ते॒ । मनः॑ । ग्रावा॑ । कृ॒णो॒तु॒ । व॒ग्नुना॑ ॥ विषयः- पुनः सेनाध्यक्षः स्वभृत्यान् प्रति किं किमादिशेदित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सभाध्यक्षैः सेनायां द्वावध्यक्षौ रक्ष्येतां तयोरेकः सेनापतिर्योधयिता द्वितीयो वक्तृत्वेनोत्साहायोपदेशकः। यदा युद्धं प्रवर्त्तेत तदा सेनापतिर्भृत्यान् सुपरीक्ष्योत्साह्य शत्रुभिः सह योधयेद्यतो ध्रुवो विजयस्स्याद् यदा युद्धं निवर्त्तेत तदोपदेशकः सर्वान् योद्धॄन् परिचारकांश्च शौर्यकृतज्ञता धर्म्मकर्मोपदेशेन सूत्साहयुक्तान् कुर्यादेवं कर्तॄणां कदाचित् पराजयो भवितुन्न शक्यते इति वेद्यम् ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सभापतींनी सेनेत दोन प्रकारचे अधिकारी ठेवावेत. एकाने सेनेला युद्ध करण्यास लावावे व दुसऱ्याने चांगल्या बोलण्याने योद्ध्यांना उत्साहित करावे. जेव्हा युद्ध होईल तेव्हा सेनापतीने चांगल्या प्रकारे परीक्षा करून उत्साहाने शत्रूबरोबर असे युद्ध करावे की निश्चित विजय होईल. युद्ध थांबल्यावर उपदेशक, योद्धे व सेवक यांना धर्मयुक्त कर्माचा उपदेश करून चांगल्या प्रकारे उत्साहित करावे. असे करणाऱ्याचा कधी पराभव होत नाही. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord ruler, breaker of the cloud, releaser of the waters of life, ride your chariot of the latest design and come. The horses are yoked with the right mantra and necessary stuffs. And may the high-priest of knowledge with his words of knowledge exhilarate you at heart.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the commander of an army say to his attendents or soldiers is told in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O destroyer of enemies as the sun of the clouds, O brave commander of the army, ascend thy chariot in the form of aeroplane etc. in which horses or fire and water have been yoked along with the supply of food and other requisites or with an expert artist charioteer, chariot going on earth and even in water. A learned person who is like the cloud may deliver inspiring speech so that your mind or knowledge may well encourage or hearten brave soldiers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रथम्) विमानादियानम् = Vehicle in the form of aeroplane etc. (ब्रह्मणा) अन्नादिसामग्रया सह वर्तमानेन शिल्पिना सारथिना वा। = With the supply of food etc. or with an expert artist charioteer. (हरि) हरणशिलौ अगनिजलाख्या तुरंगौ वा = Horses or firest and water. = (मनः) विज्ञानम् = knowledge. (वग्नुना) वाण्या वग्नुरितिवाङ् नाम (निघ० १.११) = speech.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The President of the State should appoint two officers in change of the army. One should be the Commander of the army who makes his soldiers fight heorically and the other-preacher who by his speeches animates or heartens them. When the battle is going on, the commander of the army should test his soldiers well, should encourage them and should make them bold with their foes, so that they may get a sure victory. When there is a pause or the battle is not actually going on, the preacher should put new spirit among all soldiers and the attendents by preaching to them about bravery, gratitude, righteousness and their duty etc. thus animating and heartening them. Those who do like this, cannot be defeated. (Both these departments should go hand in hand or side by side).

    Translator's Notes

    रथो रहतेः रमते:(निरु०) So all vehicles which create delight or movement may be called in the Vedic terminology. ब्रह्मति अन्ननाम (निघ० २.७) मन-ज्ञाने दिवा०

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    Subject of the mantra

    Then, what orders should the commander give to his army personnel? This topic has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vṛtrahan) =one who destroys the enemies just as the clouds are dispersed by the Sun (śūravīra) =brave, (te) =your, (yasmin) =which, (brahmaṇā)=In vehicles with craftsmen and charioteers loaded with food items, (harī) =vehicles prone to being stolen, drawn by steam or two horses, (yuktā) =well connected, (staḥ) =are, (tam) =those, (arvācīnam)=below in the land, in the vehicles that move on water and in the sky, (ratham)=in aircraft etc. (tvam) =you, (ā)=from all sides, (tiṣṭha) =sit, (grāvā) =of a scholar who speaks as loudly as a cloud, (iva) =like, (vagnunā) =of speech, (vaktṛtvam) =to eloquence, (su) =good, (kṛṇotu) =make, (ittham) =in this way, (te) =your, (manaḥ) =special knowledge, (vīrān) vīroṃ ko (suṣṭhu) =greatly, (utsāhayatu)=encourage.

    English Translation (K.K.V.)

    O brave one who destroys the enemies just as the clouds are dispersed by the Sun! Your vehicles which are prone to being stolen, laden with grain etc. along with craftsmen and charioteers, are well connected and are powered by steam or two horses. You sit from all sides in the vehicles below on land and in water, in the sky, in aircraft etc. Improve your eloquence like a scholar who speaks as loudly as a cloud. In this way, your special knowledge should greatly encourage the warriors.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    here is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Both the army chiefs should be protected by the President of the Assembly. One of them should be a commander and the other one should be an instructor and encourage people with his commands. When the war starts, then the commander should test the soldiers and motivate them and fight with the enemies, so that victory becomes certain. When the war is over, the instructor should express his gratitude to all those who fought and served the war, and preach Dharma (righteousness) and Karma (deeds) with great enthusiasm. One should know that those who do this will never be defeated.

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