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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 85/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ते॑ऽवर्धन्त॒ स्वत॑वसो महित्व॒ना नाकं॑ त॒स्थुरु॒रु च॑क्रिरे॒ सदः॑। विष्णु॒र्यद्धाव॒द्वृष॑णं मद॒च्युतं॒ वयो॒ न सी॑द॒न्नधि॑ ब॒र्हिषि॑ प्रि॒ये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । अ॒व॒र्ध॒न्त॒ । स्वऽत॑वसः । म॒हि॒ऽत्व॒ना । आ । नाक॑म् । त॒स्थुः । उ॒रु । च॒क्रि॒रे॒ । सदः॑ । विष्णुः॑ । यत् । ह॒ । आव॑त् । वृष॑णम् । म॒द॒ऽच्युत॑म् । वयः॑ । न । स्द॒न् । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । प्रि॒ये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेऽवर्धन्त स्वतवसो महित्वना नाकं तस्थुरुरु चक्रिरे सदः। विष्णुर्यद्धावद्वृषणं मदच्युतं वयो न सीदन्नधि बर्हिषि प्रिये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। अवर्धन्त। स्वऽतवसः। महिऽत्वना। आ। नाकम्। तस्थुः। उरु। चक्रिरे। सदः। विष्णुः। यत्। ह। आवत्। वृषणम्। मदऽच्युतम्। वयः। न। सीदन्। अधि। बर्हिषि। प्रिये ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 85; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा विष्णुः प्रिये बर्हिषि वृषणमधिसीदन् वयो न यन्मदच्युतं शत्रुनिरोधकमावत् स्वतवसस्ते ह महित्वना (अवर्धन्त) वर्धन्ते ये विमानादियानेन तस्थुरुरुसदः गच्छन्त्याऽऽगच्छन्ति ते नाकं चक्रिरे ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (ते) मनुष्याः (अवर्धन्त) वर्धन्ते (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषां ते (महित्वना) महिम्ना। महित्वेनेति प्राप्ते वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति विभक्तेर्नादेशः। अत्र सायणाचार्येण व्यत्ययेन नाभावः कृतः सोऽशुद्धः। (आ) समन्तात् (नाकम्) सुखविशेषं स्वर्गम् (तस्थुः) तिष्ठन्तु (उरु) बहु (चक्रिरे) कुर्वन्ति (सदः) सुखस्थानम् (विष्णुः) शिल्पविद्याव्यापनशीलो मनुष्यः (यत्) यम् (ह) किल (आवत्) रक्षणादिकं कुर्यात् (वृषणम्) अग्निजलवर्षणयुक्तं यानसमूहम् (मदच्युतम्) यो मदं हर्षं च्योतति तम् (वयः) पक्षी (न) इव (सीदन्) गच्छन् (अधि) उपरिभावे (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (प्रिये) प्रीतकरे ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा पक्षिण आकाशे सुखेन गत्वाऽऽगच्छन्ति, तथैव ये प्रशस्तशिल्पविद्याविद्भ्योऽध्यापकेभ्यः साङ्गोपाङ्गां शिल्पविद्यां साक्षात्कृत्य तया यानानि संसाध्य सम्यग्रक्षित्वा वर्धयन्ति, त एवोत्तमां प्रतिष्ठां प्रशस्तानि धनानि च प्राप्य नित्यं वर्धन्त इति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (विष्णुः) सूर्यवत् शिल्पविद्या में निपुण मनुष्य (प्रिये) अत्यन्त सुन्दर (बर्हिषि) आकाश में (वृषणम्) अग्नि-जल के वर्षायुक्त विमान के (अधिसीदन्) ऊपर बैठ के (वयो न) जैसे पक्षी आकाश में उड़ते और भूमि में आते हैं, वैसे (यत्) जिस (मदच्युतम्) हर्ष को प्राप्त दुष्टों को रोकनेहारे मनुष्यों की (आवत्) रक्षा करता है, उसको जो (स्वतवसः) स्वकीय बलयुक्त मनुष्य प्राप्त होते हैं (ते ह) वे ही (महित्वना) महिमा से (अवर्धन्त) बढ़ते हैं और जो विमानादि यानों में (आतस्थुः) बैठ के (उरु) बहुत सुखसाधक (सदः) स्थान को जाते-आते हैं, वे (नाकम्) विशेष सुख (चक्रिरे) करते हैं ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पक्षी आकाश में सुखपूर्वक जाके आते हैं, वैसे ही साङ्गोपाङ्ग शिल्पविद्या को साक्षात् करके उससे उत्तम यानादि सिद्ध करके अच्छी सामग्री को रख के बढ़ाते हैं, वे ही उत्तम प्रतिष्ठा और धनों को प्राप्त होकर नित्य बढ़ा करते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    शक्तिशाली पर निरभिमानी

    पदार्थ

    १. (ते) = वे (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुष (अवर्धन्त) = वृद्धि को प्राप्त होते हैं । (स्वतवसः) = [स्व आत्मा] ये आत्मा के बलवाले होते हैं । (महित्वना) = इस आत्मिक बल की महिमा से (नाकं तस्थुः) = स्वर्गलोक में स्थित होते हैं । ये क्लेश का अनुभव नहीं करते - सहनशक्ति के कारण व्याधित होते हुए भी ये प्रसन्नचित होते हैं । (सदः) = अपने निवासस्थान हृदय को (उरु चक्रिरे) = ये विशाल बनाते हैं । इनका हृदय संकुचित नहीं होता । उस विभु प्रभु का निवास होने पर हृदय के संकोच का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । २. (वृषणम्, मदच्युतम्) = शक्तिशाली पर गर्व न करनेवाले पुरुष को (यत्) = चूँकि (ह) = निश्चय से (विष्णुः) = वे सर्वव्यापक प्रभु (आवत्) = रक्षित करते हैं । विष्णु से सुरक्षित निरभिमानी व शक्तिसम्पन्न यह पुरुष (वयः न) = पक्षी की भाँति अर्थात् उसी प्रकार उड़कर शीघ्रता से (प्रिये) = प्रीणित करनेवाले (बर्हिषि) = यज्ञ में (अधिसीदन्) = आधिक्येन स्थित होनेवाला होता है । यज्ञों में स्थित होता हुआ यह प्रीति का अनुभव करता है और इन यज्ञों के द्वारा प्रभु का अर्चन करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्राणसाधना से आत्मिक बल बढ़ता है, मनुष्य यज्ञशील बनता है ।

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    विषय

    वीरों और उसके नायक का सूर्य के समान कर्तव्य ।

    भावार्थ

    वायुगण जिस प्रकार ( स्वतवसः ) अपने बल से युक्त होकर ( नाकं तस्थुः ) आकाश में स्थित हैं उसी प्रकार ( ते ) वे वीर जन भी ( स्वतवसः ) अपने बल से बलशाली होकर ( महित्वना ) अपने बड़े भारी सामर्थ्य से ( अवर्धन्त ) वृद्धि को प्राप्त होते हैं । और ( उरु ) विशाल ( नाकं सदः ) अति सुखप्रद गृह को ( चक्रिरें ) बनावे और (तस्थुः) उस में रहे । ( बर्हिषि ) आकाश में जिस प्रकार (मदच्युतं) जल के गिराने वाले ( वृषणं ) वृष्टिकारक मेघ को ( विष्णुः आवत् ) व्यापक या भीतर २ तक प्रविष्ट होने वाला प्रकाशक सूर्य ( आवत् ) प्राप्त होता है और उस में व्यापता है और उस के उपर के आकाश में ( वयः नः ) पक्षी के समान ऊपर २ रहता है उसी प्रकार (विष्णुः) व्यापक शक्ति और ज्ञान वाला विद्वान् ( मदच्युतं वृषणम् ) शत्रुओं के मद को नाश करने और प्रजा के हर्ष को बढ़ाने वाले सैन्य-गण की ( आ आवत् ) सब प्रकार से रक्षा करे ( प्रिये ) ऐश्वर्य से तृप्ति करने वाले और प्रिय (बर्हिषि अधि) अन्तरिक्ष के समान उच्चासन या भूमि-शासक के पद पर (वयः) आकाश में पक्षी या सूर्य के समान तेजस्वी होकर (अधिसीदन्) अधिष्ठित होकर रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः- १, २,६, ११ जगती । ३, ७, ८ निचृज्जगती । ४, ६, १० विराड्जगती । ५ विराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे क्या करें, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः यथा विष्णुः प्रिये बर्हिषि वृषणम् अधिसीदन् वयः न यत् मदच्युतं शत्रुनिरोधकम् आ वत् स्वतवसः ते ह महित्वना (अवर्धन्त) वर्धन्ते ये विमानादियानेन तस्थुः उरु सदः गच्छन्त्या आगच्छन्ति ते नाकं चक्रिरे ॥७॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों! (यथा)=जिस प्रकार से, (विष्णुः) शिल्पविद्याव्यापनशीलो मनुष्यः= शिल्प विद्या को प्राप्त कर पूर्ण रूप से जानने के स्वभाववाले, (प्रिये) प्रीतकरे= प्रिय, (बर्हिषि) अन्तरिक्षे= अन्तरिक्ष में, (वृषणम्) अग्निजलवर्षणयुक्तं यानसमूहम्= अग्नि और जल की वर्षा करने से युक्त यानों के समूह के, (अधि) उपरिभावे=ऊपर, (सीदन्) गच्छन्=जाते हुए, (वयः) पक्षी= पक्षी के, (न) इव=समान, (यत्) यम्=जिस, (मदच्युतम्) यो मदं हर्षं च्योतति तम्=हर्ष विहीन, (शत्रुनिरोधकम्)= शत्रु को नियंत्रित कर देनेवाला, (आवत्) रक्षणादिकं कुर्यात्=रक्षण आदि का कार्य करे, (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषां ते=अपने निज बल से, (ते)=वे, (ह) किल= निश्चित रूप से, (महित्वना) महिम्ना=महत्त्व में, (अवर्धन्त) वर्धन्ते=बढ़ते हैं, (ये)=जो, (विमानादियानेन)= विमान आदि यान में, (तस्थुः) तिष्ठन्तु=बैठ कर, (उरु) बहु= बहुत, (सदः) सुखस्थानम्= सुखी स्थान को, (गच्छन्त्या)= जाते हुए, (आ) समन्तात्=हर ओर, (गच्छन्ति)=जाते हैं, (ते) मनुष्याः=वे मनुष्य, (नाकम्) सुखविशेषं स्वर्गम्=विशेष सुख को, (चक्रिरे) कुर्वन्ति=करते हैं, अर्थात् स्वर्ग के सुख को प्राप्त करते हैं ॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पक्षी आकाश में सुखपूर्वक जा करके, आ जाते हैं, वैसे ही प्रशस्त शिल्प विद्या मे निपुण अध्यापकों के द्वारा शिल्प विद्या को उसके अङ्गो और उपाङ्गों सहित जानकर के, उसके द्वारा यानों को अच्छे प्रकार से बनाकर के, अच्छे प्रकार से रक्षित होकर बढ़ते हैं, वे ही उत्तम प्रतिष्ठा से प्रशस्त धनों को प्राप्त करके नित्य बढ़ा करते हैं ॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (यथा) जिस प्रकार से (विष्णुः) शिल्प विद्या का ज्ञान प्राप्त कर इसे पूर्ण रूप से जानने के स्वभाववाले, (प्रिये) प्रिय (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (वृषणम्) अग्नि और जल की वर्षा करने से युक्त यानों के समूह के (अधि) ऊपर (सीदन्) जाते हुए (वयः) पक्षी के (न) समान, (यत्) जिस (मदच्युतम्) हर्ष विहीन (शत्रुनिरोधकम्) शत्रु को नियंत्रित कर देनेवाला और (आवत्) रक्षण आदि का कार्य करता है। (स्वतवसः) अपने निज बल से (ते) वे (ह) निश्चित रूप से (महित्वना) महत्त्व में (अवर्धन्त) बढ़ते हैं। (ये) जो (विमानादियानेन) विमान आदि यान में (तस्थुः) बैठ कर (उरु) बहुत (सदः) सुखी स्थान को (गच्छन्त्या) जाते हुए, (आ) हर ओर (गच्छन्ति) जाते हैं, (ते) वे मनुष्य (नाकम्) विशेष रूप से सुख को (चक्रिरे) करते हैं, अर्थात् स्वर्ग के सुख को प्राप्त करते हैं ॥७॥

    संस्कृत भाग

    ते । अ॒व॒र्ध॒न्त॒ । स्वऽत॑वसः । म॒हि॒ऽत्व॒ना । आ । नाक॑म् । त॒स्थुः । उ॒रु । च॒क्रि॒रे॒ । सदः॑ । विष्णुः॑ । यत् । ह॒ । आव॑त् । वृष॑णम् । म॒द॒ऽच्युत॑म् । वयः॑ । न । स्द॒न् । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । प्रि॒ये ॥ विषयः- पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा पक्षिण आकाशे सुखेन गत्वाऽऽगच्छन्ति, तथैव ये प्रशस्तशिल्पविद्याविद्भ्योऽध्यापकेभ्यः साङ्गोपाङ्गां शिल्पविद्यां साक्षात्कृत्य तया यानानि संसाध्य सम्यग्रक्षित्वा वर्धयन्ति, त एवोत्तमां प्रतिष्ठां प्रशस्तानि धनानि च प्राप्य नित्यं वर्धन्त इति ॥७॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पक्षी आकाशात स्वच्छंदपणे विहार करतात तसे संपूर्ण शिल्पविद्येला प्रत्यक्षात आणून उत्तम यान इत्यादी सिद्ध करून त्यात चांगली सामग्री ठेवून वाढ करतात तेच उत्तम प्रतिष्ठा व धन प्राप्त करून नित्य वृद्धिंगत होतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    They surely grow and advance by their own strength and high merit, abide in regions of bliss and expand their home whom Vishnu, lord of knowledge and science, protects while they ride a luxurious plane powered by wind and water and, seated in a beautiful and comfortable chamber, they fly like birds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the Maruts is taught further in the 7th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, An artist uses vehicles like the aeroplanes which contain fire and water in his beloved firmament like the birds and there by attains great delight with Maruts travelling through the air. Those (brave soldiers) strong in them selves ever grow with might and their greatness. They step to the firmament through the aeroplanes and make their seat wide.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विष्णु:) = A great artist, well versed in all arts. (विष्लृ-व्याप्तो) (वृषणम) अग्निजल वर्षणयुक्त्म यानसमूहम् = Band of Vehicles containing fire and water etc. (बर्हिषि) अन्तरिक्षे = In the firmament.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As birds go to the sky and return quite easily, in the same manner, those persons who learn all arts from expert artists and other teachers and master them with all their branches, manufacture vehicles of various kinds, preserve them well and develop them. They are respected every where, achieve admirable wealth and attain prosperity.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted विष्णुः here as शिल्पविद्या व्यापनशिलो मनुष्यः which appears to be strange to some scholars, as they think that the word विष्णु (Vishnu) is used only for God and none else. But the word is derived from विष्लृ-व्याप्तो and in that sense, it can be used for a learned person well-versed in arts etc. It is also used besides God for a person who has taken initiation as it is stated in the Shatapath Brahamana 3.2.1.17 यदह् दीक्षते तद् विष्णुर्भवति । दीक्ष-विद्योपादाने So Rishi Dayananda's interpretation is not imaginary or unfounded.

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    Subject of the mantra

    Then, what should those humans do? This topic is discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =like, (viṣṇuḥ)= those who have the nature to acquire the knowledge of craft and know it completely, (priye) =beloved, (barhiṣi) =in space, (vṛṣaṇam)= group of vehicles capable of showering fire and water, (adhi) =above, (sīdan) =while going, (vayaḥ) =of bird, (na) =like, (yat) =which, (madacyutam)= joyless, (śatrunirodhakam) =controller the enemy and, (āvat) =performs the work of protection etc., (svatavasaḥ) =with one's own strength, (te)=they, (ha) =definitely, (mahitvanā)=in importance, (avardhanta) =grow, (ye) =those, (vimānādiyānena) =in aircrafts etc. vehicle, (tasthuḥ) =sitting, (uru) =very, (sadaḥ) sukhī=to happy place, (gacchantyā) =going, (ā) =to every side, (gacchanti) =go, (te) =those humans, (nākam)= especially happiness, (cakrire) =do, that is, they attain the happiness of heaven.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Just like the one who has the nature of knowing the art of craft completely, who is like a bird flying over a group of vehicles capable of showering fire and water in the beloved space, who controls and protects the joyless enemy, et cetera. They definitely grow in importance on their own strength. Those people who go everywhere by sitting in aircrafts and other vehicles, going to very happy places, they especially enjoy happiness, that is, they attain the happiness of heaven.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as birds fly and come back happily in the sky, in the same way, by knowing the craft along with its divisions and sub-divisions through teachers adept in the vast craft knowledge, by making the vehicles in a good manner, they grow well protected. They are the ones who acquire abundant wealth from good reputation and increase it daily.

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