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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ नो॑ भ॒द्राः क्रत॑वो यन्तु वि॒श्वतोऽद॑ब्धासो॒ अप॑रीतास उ॒द्भिदः॑। दे॒वा नो॒ यथा॒ सद॒मिद् वृ॒धे अस॒न्नप्रा॑युवो रक्षि॒तारो॑ दि॒वेऽदि॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । भ॒द्राः । क्रत॑वः । य॒न्तु॒ । वि॒श्वतः॑ । अद॑ब्धासः । अप॑रिऽइतासः । उ॒त्ऽभिदः॑ । दे॒वाः । नः॒ । यथा॑ । सद॑म् । इत् । वृ॒धे । अस॑न् । अप्र॑ऽआयुवः । र॒क्षि॒तारः॑ । दि॒वेऽदि॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः। देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेऽदिवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। भद्राः। क्रतवः। यन्तु। विश्वतः। अदब्धासः। अपरिऽइतासः। उत्ऽभिदः। देवाः। नः। यथा। सदम्। इत्। वृधे। असन्। अप्रऽआयुवः। रक्षितारः। दिवेऽदिवे ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सर्वे विद्वांसः कीदृशा भवेयुर्जगज्जनैः सह कथं वर्त्तेरंश्चेत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यथा ये विश्वतो भद्राः क्रतवोऽदब्धासोऽपरीतास उद्भिदोऽप्रायुवो देवाश्च नः सदमायन्तु, तथैते दिवे नोऽस्माकं वृधे रक्षितारोऽसन् सन्तु ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (भद्राः) कल्याणकारकाः (क्रतवः) प्रशस्तक्रियावन्तः शिल्पयज्ञधियो वा (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (विश्वतः) सर्वाभ्यो दिग्भ्यः (अदब्धासः) अहिंसनीयाः (अपरीतासः) अवर्जनीयाः (उद्भिदः) उत्कृष्टतया दुःखविदारकाः (देवाः) दिव्यगुणाः (नः) अस्माकम् (यथा) येन प्रकारेण (सदम्) विज्ञानं गृहं वा (इत्) एव (वृधे) सुखवर्द्धनाय (असन्) सन्तु। लेट्प्रयोगः। (अप्रायुवः) न विद्यते प्रगतः प्रणष्ट आयुर्बोधो येषान्ते। जसादिषु छन्दसि वा वचनमिति गुणविकल्पात् इयङुवङ्प्रकरणे तन्वादीनां छन्दसि बहुलमुपसङ्ख्यानम् (अष्टा०वा०६.४.७७) इति वार्तिकेनोवङादेशः। (रक्षितारः) (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा श्रेष्ठं सर्वर्तुकं गृहं सर्वाणि सुखानि प्रापयति, तथैव विद्वांसो विद्याः शिल्पयज्ञाश्च सर्वसुखकारकाः सन्तीति वेदितव्यम् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब नवासीवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से सब विद्वान् लोग कैसे हों और संसारी मनुष्यों के साथ कैसे अपना वर्त्ताव करें, यह उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    (यथा) जैसे जो (विश्वतः) सब ओर से (भद्राः) सुख करने और (क्रतवः) अच्छी क्रिया वा शिल्पयज्ञ में बुद्धि रखनेवाले (अदब्धासः) अहिंसक (अपरीतासः) न त्याग के योग्य (उद्भिदः) अपने उत्कर्ष से दुःखों का विनाश करनेवाले (अप्रायुवः) जिनकी उमर का वृथा नाश होना प्रतीत न हो (देवाः) ऐसे दिव्य गुणवाले विद्वान् लोग जैसे (नः) हम लोगों को (सदम्) विज्ञान व घर को (आ+यन्तु) अच्छे प्रकार पहुँचावें, वैसे (दिवेदिवे) प्रतिदिन (नः) हमारे (वृधे) सुख के बढ़ाने के लिये (रक्षितारः) रक्षा करनेवाले (इत्) ही (असन्) हों ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सब श्रेष्ठ सब ऋतुओं में सुख देने योग्य घर सब सुखों को पहुँचाता है, वैसे ही विद्वान् लोग, विद्या और शिल्पयज्ञ सुख करनेवाले होते हैं, यह जानना चाहिये ॥ १ ॥

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    विषय

    भद्रक्रतु

    पदार्थ

    १. (नः) = हमें (क्रतवः) = यज्ञरूप उत्तम कर्म (आयन्तु) = प्राप्त हों । जो कर्म [क] (भद्राः) = सबके कल्याण व सुख के जनक हैं, [ख] ये कर्म (विश्वतः) सब ओर से (अदब्धासः) अहिंसित हों = इन कर्मों में आसुर = वृत्ति के लोग विघ्न न कर सकें, [ग] (अपरीतासः) = [अ, परि इत] ये कर्म चारों ओर से घेरे न जा सकें, अर्थात् ये कर्म संकुचित न हों । अधिक - से - अधिक व्यक्तियों का ये कल्याण करनेवाले हों । २. (उद्भिदः) = [उद्भेत्तारः] ये कर्म शत्रुओं को छिन्न - भिन्न करनेवाले हों । वस्तुतः क्रियाशीलता से ही काम - क्रोधादि शत्रुओं पर विजय पाई जाती है । ३. हम इन उत्तम यज्ञादि कर्मों को इसलिए करते रहें (यथा) = जिससे (देवाः) = सब देव - सब प्राकृतिक शक्तियों (सदम् इत्) = सदा ही (नः) = हमारे (वृधे) = वृद्धि व उन्नति के लिए (असन्) = हों । वस्तुतः उत्तम कर्मों के होने पर किसी प्रकार के आधिदैविक कष्ट नहीं आते । समाज के पतन से ही आधिदैविक आपत्तियाँ आया करती हैं । यहाँ 'नः' यह बहुवचनान्त प्रयोग सामाजिक उन्नति का संकेत करता है - हम सबके कर्म उत्तम हों । ४. ये सूर्यादि देव तो हमारे कल्याण के लिए हों ही । ये (देवाः) = विद्वान् लोग भी (अप्रायुवः) = [अ प्र इ उण् - अप्रतिमक्रन्तः] अपने कर्तव्य कर्म में किसी प्रकार का प्रमाद न करते हुए (दिवेदिवे) = प्रतिदिन (रक्षितारः) = हमारी रक्षा करनेवाले हों । ज्ञान देकर ये हमें मार्गभ्रष्ट होने से बचाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हमारे कर्म भद्र हों । सूर्यादि देव हमारे अनुकूल हों । विद्वान् पुरुष ज्ञान - प्रदान द्वारा हमें मार्गभ्रष्ट होने से बचाएँ ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान, विद्यार्थी व प्रकाशमय पदार्थांचे विश्वेदेव पदामध्ये असल्यामुळे वर्णन केलेले आहे. यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, असे जाणले पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे चांगले घर सर्व ऋतूंत सर्व सुख देते. तसेच विद्वान लोक, विद्या व शिल्पयज्ञ सुखदायक असतात, हे जाणले पाहिजे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    From all sides, may noble thoughts, actions and meritorious people come and bless us, people fearless, indispensable, creative and all round saviours. Long lived they be, these noble ones of divine character, ever progressive and protective for us so that our life and home may grow and advance day by day.

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