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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    दे॒वानां॑ भ॒द्रा सु॑म॒तिर्ऋ॑जूय॒तां दे॒वानां॑ रा॒तिर॒भि नो॒ नि व॑र्तताम्। दे॒वानां॑ स॒ख्यमुप॑ सेदिमा व॒यं दे॒वा न॒ आयुः॒ प्र ति॑रन्तु जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वाना॑म् । भ॒द्रा । सु॒ऽम॒तिः । ऋ॒जु॒ऽय॒ताम् । दे॒वाना॑म् । रा॒तिः । अ॒भि । नः॒ । नि । व॒र्त॒ता॒म् । दे॒वाना॑म् । स॒ख्यम् । उप॑ । से॒दि॒म॒ । व॒यम् । दे॒वाः । नः॒ । आयुः॑ । प्र । ति॒र॒न्तु॒ । जी॒वसे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्। देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवानाम्। भद्रा। सुऽमतिः। ऋजुऽयताम्। देवानाम्। रातिः। अभि। नः। नि। वर्तताम्। देवानाम्। सख्यम्। उप। सेदिम। वयम्। देवाः। नः। आयुः। प्र। तिरन्तु। जीवसे ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    सर्वैर्मनुष्यैस्तेभ्यः किं प्रापणीयमित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    वयं या ऋजूयतां देवानां भद्रा सुमतिर्या ऋजयूतां देवानां रातिः यदृजूयतां देवानां भद्रं सख्यं चाऽस्ति तदेतत्सर्वं नोऽस्मभ्यमभिनिवर्त्तताम्। तच्चोपसेदिमोपप्राप्नुयाम य उक्ता देवास्ते नोऽस्माकं जीवस आयुः प्रतिरन्तु ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (देवानाम्) विदुषाम् (भद्रा) कल्याणकारिणी (सुमतिः) शोभना बुद्धिः (ऋजूयताम्) आत्मन ऋजुमिच्छताम् (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (रातिः) विद्यादानम्। अत्र मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः। (अष्टा०३.३.१६) अनेन भावे क्तिन् स चोदात्तः। (अभि) आभिमुख्ये (नः) अस्मभ्यम् (नि) नित्यम् (वर्त्तताम्) (देवानाम्) दयया विद्यावृद्धिं चिकीर्षताम् (सख्यम्) मित्रभावम् (उप) (सेदिम) प्राप्नुयाम। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (वयम्) (देवाः) विद्वांसः (नः) अस्माकम् (आयुः) जीवनम् (प्र) (तिरन्तु) सुशिक्षया वर्द्धयन्तु (जीवसे) जीवितुम्। इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवमाचष्टे। देवानां वयं सुमतौ कल्याण्यां मतौ। ऋजुगामिनाम्। ऋतुगामिनामिति वा। देवानां दानमभि नो निवर्तताम्। देवानां सख्यमुपसीदेम वयम्। देवा न आयुः प्रवर्धयन्तु चिरं जीवनाय। (निरु०१२.३९) ॥ २ ॥

    भावार्थः

    नह्याप्तानां विदुषां सङ्गेन ब्रह्मचर्यादिनियमैश्च विना कस्यापि शरीरात्मबलं वर्द्धितुं शक्यं तस्मात्सर्वैरेतेषां सङ्गो नित्यं विधेयः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    सब मनुष्यों को विद्वानों से क्या-क्या पाना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    (वयम्) हम लोग जो (ऋजूयताम्) अपने को कोमलता चाहते हुए (देवानाम्) विद्वान् लोगों की (भद्रा) सुख करनेवाली (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि वा जो अपने को निरभिमानता चाहनेवाले (देवानाम्) दिव्य गुणों की (रातिः) विद्या का दान और जो अपने को सरलता चाहते हुए (देवानाम्) दया से विद्या की वृद्धि करना चाहते हैं, उन विद्वानों का जो सुख देनेवाला (सख्यम्) मित्रपन है, यह सब (नः) हमारे लिये (अभि+नि+वर्त्तताम्) सम्मुख नित्य रहे। और उक्त समस्त व्यवहारों को (उप+सेदिम) प्राप्त हों। और उक्त जो (देवाः) विद्वान् लोग हैं, वे (नः) हम लोगों के (जीवसे) जीवन के लिये (आयुः) उमर को (प्र+तिरन्तु) अच्छी शिक्षा से बढ़ावें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    उत्तम विद्वानों के सङ्ग और ब्रह्मचर्य्य आदि नियमों के विना किसी का शरीर और आत्मा का बल बढ़ नहीं सकता, इससे सबको चाहिये कि इन विद्वानों का सङ्ग नित्य करें और जितेन्द्रिय रहें ॥ २ ॥

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    विषय

    भद्रा सुमति

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की समाप्ति पर कहा था कि देव हमारा रक्षण करें, हमें मार्गभ्रष्ट होने से बचाएँ । उस मार्ग का प्रतिपादन प्रस्तुत मन्त्र में करते हैं । जीवन के प्रथमाश्रम में (ऋजूयताम्) = ऋजु अर्थात् आर्जव - सरलता से युक्त मार्ग की कामना करनेवाले, सरल मार्ग से चलनेवाले (देवानाम्) = देवों की (भद्रा सुमतिः) = कल्याणी बुद्धि हमें प्राप्त हो । प्रथमाश्रम में हम सरल जीवनवाले, दिव्य वृत्तिवाले तथा विद्वान् आचार्यों के समीप रहते हुए ज्ञान प्राप्त करें और अपनी मति को कल्याणी बनाने का ध्यान करें । हमारी बुद्धि विनाश की दिशा में न सोचकर निर्माण की दिशा में ही सोचे । २. अब द्वितीयाश्रम में (देवानाम्) = [देवो दानाद्वा] दानशील यज्ञीय पुरुषों की (रातिः) = दान की वृत्ति (नः अभिनिवर्तताम्) = हमारे जीवनों में भी अभिनिष्पन्न हो । गृहस्थ में हम दान की वृत्तिवाले हों । ब्रह्मचर्याश्रम का मुख्य धर्म 'सुमति का सम्पादन' था तो गृहस्थ का सर्वमहान् धर्म दानवृत्ति को अपनाना है । गृहस्थ अपने इस दान से सब आश्रमियों का धारण व पालन करता है, इसीलिए गृहस्थ ज्येष्ठाश्रमी कहलाता है । ३. अब जीवन के तृतीयाश्रम में (वयम्) = हम (देवानाम् )= देवों की = ज्ञानदीप्त पुरुषों की (सख्यम्) = मित्रता को (उपसेदिम) = प्राप्त हों । उत्तम संग से अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए यत्नशील हों । अपने ज्ञान को परिपक्व करके ही हम जीवन के चतुर्थाश्रम में ज्ञानप्रसार का कार्य कर पाएँगे । अपने में ज्ञान भरेंगे ही नहीं तो ज्ञान को बाँटनेवाले भी कैसे बन पाएँगे? ४. अब (देवाः) = सूर्यादि सब देव (नः आयुः) = हमारे जीवन को (प्रतिरन्तु) = खूब बढ़ाएँ ताकि (जीवसे) = हम ज्ञान - प्रसार के द्वारा लोकहित करते हुए उत्कृष्ट जीवन को बितानेवाले हों । यह जीवन का अन्तिम प्रयाण शुद्ध निः स्वार्थतावाला हो । निः स्वार्थ जीवन ही वस्तुतः जीवन है । सूर्य आदि सब देव स्वार्थशून्यता के साथ प्रकाश आदि देने के कार्यों में लगे हुए हैं, इसी प्रकार हमें भी चलना है । ५. एवं, हमारी जीवनयात्रा क्रमशः "सुमति = सम्पादन, दान, देवमैत्री व ज्ञान = प्रसार" में पूर्ण हो । यही मार्ग है । हम इससे भ्रष्ट न हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हमारी जीवनयात्रा 'देवों की सुमति प्राप्त करने से' आरम्भ हो । दान की वृत्ति को हम अपनाएँ । देवों की मित्रतावाले होकर ज्ञान से अपने को भर लें । ज्ञान - प्रसार करते हुए उत्कृष्ट जीवन बिताएँ ।

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    विषय

    धर्मात्मा विद्वान् पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( ऋज्यताम् ) सरल मार्ग से जाने वाले धर्मात्मा ( देवानाम् ) विद्वानों की ( भद्रा ) कल्याण और सुख देने वाली ( सुमतिः ) उत्तम बुद्धि, उनके उत्तम ज्ञान (नः) हमें ( नि वर्तताम् ) सदा प्राप्त हों । सरल, धर्मात्मा ( देवानां ) विद्वानों की ( भद्रा रातिः नः नि वर्तताम् ) सुखदायी कल्याणमय विद्या आदि का उपदेश रूप दान हमें सदा प्राप्त हो । ( वयम् ) हम ( देवानाम् ) दानशील, विजयी, उत्साही, तेजस्वी पुरुषों के ( सख्यम् ) मित्र भावों को ( उप सेदिम ) सदा प्राप्त करें । वे ( देवाः ) विद्वान् जन ( नः ) हमारे ( आयुः ) जीवन को ( जीवसे ) दीर्घ काल तक जीवन के लिये ( प्र तिरन्तु ) खूब बढ़ावें ! उसी प्रकार ( ऋज्यताम् ) ऋतु अनुकूल प्राप्त होने वाले या प्राण बल को धारण करने वाले अग्नि, वायु, जलु, पृथिवी, सूर्य आदि दिव्यगुण वाले तेजस्वी पदार्थों का ( सुमतिः ) उत्तम स्तम्भन बल तथा धर्मात्मा विद्वानों की शुभ मति हमें प्राप्त हो उनकी उत्तम (रातिः) दानशक्ति हमें प्राप्त हो । हम उनकी ( सख्यम् ) अनुकूलता को प्राप्त करें। वे हमारे जीवन की वृद्धि करने वाले हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- सब मनुष्यों को विद्वानों से क्या-क्या पाना चाहिये, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- वयं या ऋजूयतां देवानां भद्रा सुमतिः या ऋजयूतां देवानां रातिः यत् ऋजूयतां देवानां भद्रं सख्यं च अस्ति तत् एतत् सर्वं नः अस्मभ्यम् अभि नि वर्त्तताम्। तत् च उप सेदिम उप प्राप्नुयाम य उक्ताः देवाः ते नः अस्माकं जीवसे आयुः प्र तिरन्तु ॥२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (वयम्)=हम, (या)=जो, (ऋजूयताम्) आत्मन ऋजुमिच्छताम्=आत्मा से ईमानदार होने की कामना करते हुए, (देवानाम्) दिव्यगुणानाम्=दिव्य गुणों की, (भद्रा) कल्याणकारिणी=कल्याण करनेवाली, (सुमतिः) शोभना बुद्धिः=उत्तम बुद्धि के द्वारा, (या)=जो, (ऋजूयताम्) आत्मन ऋजुमिच्छताम्= अपने लिये ईमानदार होने की कामना करते हुए, (देवानाम्) विदुषाम्=विद्वानों के, (रातिः) विद्यादानम्=विद्या के दान को, (यत्)=जो, (ऋजूयताम्) आत्मन ऋजुमिच्छताम्= आत्मा से ईमानदार होने की कामना करते हुए, (देवानाम्) दयया विद्यावृद्धिं चिकीर्षताम्=दया से विद्या की वृद्धि की कामना करते हुए, (भद्रम्)= कल्याण करनेवाली, (सख्यम्) मित्रभावम्=मित्रता के भाव की, (च)=भी, (अस्ति)=है, (तत्)=उस, (एतत्)=इस, (सर्वं)=सबको, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (नि) नित्यम्=नित्य, (वर्त्तताम्)=व्यवहार करें, (तत्)=उसको, (च)=और, (उप)=समीपता से, (सेदिम) प्राप्नुयाम=प्राप्त कीजिये, (यः)=जो, (उक्ताः)=कहे गये, (देवाः) विद्वांसः=विद्वान् हैं, (ते)=वे, (नः) अस्माकम्=हमारे, (जीवसे) जीवितुम्= जीवन के लिये और (आयुः) जीवनम्=आयु को, (प्र)=प्रकृष्ट रूप से, (तिरन्तु) सुशिक्षया वर्द्धयन्तु=उत्तम शिक्षा से बढ़ावें ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- आप्त विद्वानों की सङ्गति और ब्रह्मचर्य्य आदि नियमों के विना किसी के भी शरीर और आत्मा के बल की वृद्धि नहीं सकती है, इसलिये सबको उनके साथ नित्य सङ्गति नियम से करनी चाहिए ॥२॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- आप्त- महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार आप्त की परिभाषा-जो छलादि दोषरहित, धर्मात्मा, विद्वान् सत्योपदेष्टा, सब पर कृपादृष्टि से वर्त्तमान होकर अविद्यान्धकार का नाश करके अज्ञानी लोगों के आत्माओं में विद्यारूप सूर्य का प्रकाश सदा करे, उसको 'आप्त' कहते हैं।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (वयम्) हम (या) जो (देवानाम्) दिव्य गुणों की (भद्रा) कल्याण करनेवाली (सुमतिः) उत्तम बुद्धि के द्वारा, (या) जो (ऋजूयताम्) आत्मा से ईमानदार होने की कामना करते हुए, (देवानाम्) विद्वानों के (रातिः) विद्या के दान को (यत्) जो (देवानाम्) दया से विद्या की वृद्धि की कामना करते हुए, (भद्रम्) कल्याण करनेवाले (सख्यम्) मित्रता के भाव की (च) भी (अस्ति) है। (तत्) उस, (एतत्) इस (सर्वं) सबको (नः) हमारे लिये (अभि) सामने से (नि) नित्य (वर्त्तताम्) व्यवहार करें (च) और (तत्) उसको (उप) समीपता से (सेदिम) प्राप्त कीजिये। (यः) जो (उक्ताः) कहे गये (देवाः) विद्वान् हैं, (ते) वे (नः) हमारे (जीवसे) जीवन के लिये (आयुः) आयु को (प्र) प्रकृष्ट रूप से (तिरन्तु) उत्तम शिक्षा से बढ़ावें ॥२॥

    संस्कृत भाग

    दे॒वाना॑म् । भ॒द्रा । सु॒ऽम॒तिः । ऋ॒जु॒ऽय॒ताम् । दे॒वाना॑म् । रा॒तिः । अ॒भि । नः॒ । नि । व॒र्त॒ता॒म् । दे॒वाना॑म् । स॒ख्यम् । उप॑ । से॒दि॒म॒ । व॒यम् । दे॒वाः । नः॒ । आयुः॑ । प्र । ति॒र॒न्तु॒ । जी॒वसे॑ ॥ विषयः- सर्वैर्मनुष्यैस्तेभ्यः किं प्रापणीयमित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नह्याप्तानां विदुषां सङ्गेन ब्रह्मचर्यादिनियमैश्च विना कस्यापि शरीरात्मबलं वर्द्धितुं शक्यं तस्मात्सर्वैरेतेषां सङ्गो नित्यं विधेयः ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उत्तम विद्वानांची संगत व ब्रह्मचर्य इत्यादी नियम याशिवाय कुणाचेही शरीर व आत्म्याचे बल वाढू शकत नाही. त्यामुळे सर्वांनी विद्वानांची संगती नित्य करावी व जितेंद्रिय राहावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the holy wisdom of the noble people dedicated to truth, simplicity and divinity come and bless us. May the wealth and generosity of the self-realised souls ever shine on us. May we ever be close to the love and friendship of the creative and brilliant people. May all powers of divinity bless us with good health and long age for a noble and full life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should all men gain from the learned persons is taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May we possess the benevolent and pure wisdom of learned persons of up-right nature leading innocent lives free from all deceit and hypocrisy. May the enlightened persons desiring the advancement of knowledge, gives education May we cultivate friendship with learned men. May the enlightened truthful persons enable us to extend the span of our life by giving noble advice and instructions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ऋज्यताम् ) आत्मन: ऋजुमिच्छताम् = Of men leading upright life. men of straight forward nature free from deceit and hypocrisy. (देवानाम्) दयया विद्यावृद्धिं चिकीर्षताम् = Of enlightened persons desiring the advancement of knowledge out of kindness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is not possible for any one to increase his physical and spiritual power without the association of absolutely truthful learned persons and the observance of Brahamcharya (continence) and other rules. Therefore, all should ever have the association with learned wise persons.

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    Subject of the mantra

    What should be achieved by all humans from scholars? This is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam) =We, (yā) =those, (devānām)= of the divine virtues, (bhadrā)= beneficent, (sumatiḥ)=through superior intelligence, (yā) =who, (ṛjūyatām) wishing to be honest from the soul, (devānām) =of scholars, (rātiḥ) =of imparting of knowledge, (yat) =who, (devānām)=mercifully wishing for the growth of knowledge, (bhadram)=welfare givers, (sakhyam)=sense of friendship, (ca) =also, (asti) =is, (tat) =that, (etat) =this, (sarvaṃ) =all, (naḥ) =for us, (abhi) =from front, (ni) =daily, (varttatām) =dea, (ca) =and, (tat) =to that, (upa) =closely, (sedima) =attain, (yaḥ) =those,(uktāḥ) =said, (devāḥ) =scholars are, (te) =they, (naḥ) =our, (jīvase) =for life, (āyuḥ)= life span, (pra)=eminently, (tirantu)= increase with excellent education.

    English Translation (K.K.V.)

    We, who wish to be honest with our souls through our good intellect which promotes the welfare of the divine virtues, who wish for the growth of knowledge through kindness, who impart knowledge to the scholars, who also have the feeling of friendship which helps in welfare. Deal with that and all this in front of us daily and attain it closely. Those who are said to be scholars, may they increase the life span of our lives through excellent education.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- Without the company of āpta (trusted) scholars and the rules like celibacy etc., no one's strength of body and soul can increase, hence everyone should have daily association with them as a providence.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    TRANSLATOR’S NOTES- āpta- Definition of āpta according to Maharishi Dayanand Saraswati – One who is devoid of deceit, virtuous, learned preacher of truth, being present with the blessings of all, destroys the darkness of ignorance and always gives light of the sun in the form of knowledge in the souls of ignorant people, is called ' āpta'.

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