ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 89/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
भ॒द्रं कर्णे॑भिः शृणुयाम देवा भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभि॑र्यजत्राः। स्थि॒रैरङ्गै॑स्तुष्टु॒वांस॑स्त॒नूभि॒र्व्य॑शेम दे॒वहि॑तं॒ यदायुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒द्रम् । कर्णे॑भिः । शृ॒णु॒या॒म॒ । दे॒वाः॒ । भ॒द्रम् । प॒श्ये॒म॒ । अ॒क्षऽभिः॑ । य॒ज॒त्राः॒ । स्थि॒रैः । अङ्गैः॑ । तु॒स्तु॒ऽवांसः॑ । त॒नूभिः॑ । वि । अ॒शे॒म॒ । दे॒वऽहि॑तम् । यत् । आयुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वर रहित पद पाठभद्रम्। कर्णेभिः। शृणुयाम। देवाः। भद्रम्। पश्येम। अक्षऽभिः। यजत्राः। स्थिरैः। अङ्गैः। तुस्तुऽवांसः। तनूभिः। वि। अशेम। देवऽहितम्। यत्। आयुः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 89; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैरेवं कृत्वा किं किमाचरणीयमित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे यजत्रा देवा ! भवत्सङ्गेन तनूभिः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसः सन्तो वयं कर्णेभिर्यद्भद्रं तच्छृणुयामाक्षभिर्यद्भद्रं तत्पश्येम एवं तनूभिः स्थिरैरङ्गैर्यद्देवहितमायुस्तदशेम ॥ ८ ॥
पदार्थः
(भद्रम्) कल्याणकारकमध्ययनाध्यापनम् (कर्णेभिः) श्रोत्रैः। अत्र ऐसभावः। (शृणुयाम) (देवाः) विद्वांसः (भद्रम्) शरीरात्मसुखम् (पश्येम) (अक्षभिः) बाह्याभ्यन्तरैर्नेत्रैः। छन्दस्यपि दृश्यते। (अष्टा०७.१.७६) अनेन सूत्रेणाक्षिशब्दस्य भिस्यनङादेशः। (यजत्रा) यजन्ति सङ्गच्छन्ते ये ते। अमिनक्षियजिवधिपतिभ्योऽत्रन्। (उणा०३.१०३) अनेनौणादिकसूत्रेण यजधातोरत्रन्। (स्थिरैः) निश्चलैः (अङ्गैः) शिर आदिभिर्ब्रह्मचर्यादिभिर्वा (तुष्टुवांसः) पदार्थगुणान् स्तुवन्तः (तनूभिः) विस्तृतबलैः शरीरैः (वि) विविधार्थे (अशेम) प्राप्नुयाम। अत्राऽशूङ् धातो लिङ्याशिष्यङ् (अष्टा०३.१.८६) इत्यङ्। सार्वधातुकसंज्ञया लिङः सलोप इति सकारलोपः। आर्द्धधातुकसंज्ञया शपोऽभावः। (देवहितम्) देवेभ्यो विद्वद्भ्यो हितम् (यत्) (आयुः) जीवनम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
नहि विदुषां सत्पुरुषाणामाप्तानां सङ्गेन विना कश्चित्ससत्यविद्यावचः सत्यं दर्शनं सत्यनिष्ठामायुश्च प्राप्तुं शक्नोति, न ह्येतैर्विना कस्यचिच्छरीमात्मा च दृढो भवितुं शक्यस्तस्मादेतत्सर्वैर्मनुष्यैः सदाऽनुष्ठेयम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को ऐसा करके क्या-क्या करना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (यजत्राः) संगम करनेवाले (देवाः) विद्वानो ! आप लोगों के संग से (तनूभिः) बढ़े हुए बलोंवाले शरीर (स्थिरैः) दृढ़ (अङ्गैः) पुष्ट शिर आदि अङ्ग वा ब्रह्मचर्यादि नियमों से (तुष्टुवांसः) पदार्थों के गुणों की स्तुति करते हुए हम लोग (कर्णेभिः) कानों से (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक पढ़ना-पढ़ाना है, उसको (शृणुयाम) सुनें-सुनावें (अक्षभिः) बाहरी-भीतरली आँखों से जो (भद्रम्) शरीर और आत्मा का सुख है, उसको (पश्येम) देखें, इस प्रकार उक्त शरीर और अङ्गों से जो (देवहितम्) विद्वानों की हित करनेवाली (आयुः) अवस्था है, उसको (वि) (अशेम) वार-वार प्राप्त होवें ॥ ८ ॥
भावार्थ
विद्वान्, आप्त और सज्जनों के संग के विना कोई सत्यविद्या का वचन सत्य-दर्शन और सत्य व्यवहारमय अवस्था को नहीं पा सकता और न इसके विना किसी का शरीर और आत्मा दृढ़ हो सकता है, इससे सब मनुष्यों को यह उक्त व्यवहार वर्त्तना योग्य है ॥ ८ ॥
विषय
भद्र, सुनें, भद्र ही देखें
पदार्थ
१. (देवाः) = हे ज्ञान देनेवाले आचार्यों ! हम जीवन के प्रथमाश्रम में (कर्णेभिः) = कानों से (भद्रं शृणुयाम) = आपसे उच्चारण की जाती हुई कल्याणी वाणी का ही श्रवण करें । हमारे कानों में सदा ज्ञान के शब्द ही पड़ें । २. हे (यजत्राः) = यज्ञों के द्वारा हमारा त्राण करनेवाले देवो ! हम (अक्षभिः) = आँखों से (भद्रं पश्येम) = सदा कल्याणकर कर्मों को ही देखें । हमारे गृहस्थाश्रम में सदा यज्ञ - याग चलते रहें, किन्हीं भी अशुभ कर्मों का वहाँ प्रवेश न हो । ३. अब तृतीयाश्रम में (स्थिरैः अङ्गैः) = स्थिर व दृढ़, पूर्ण स्वस्थ अङ्गों से (तुष्टुवांसः) = हम प्रभु का सतत स्तवन करनेवाले हों । प्रभुस्तवन के द्वारा हम अपने को पूर्ण नीरोग बनानेवाले हों । जीर्ण - शीर्ण होकर उस प्रभु की ओर झुके तो क्या झुके ? और प्रभु की उपासना करते हुए भी रोगी व जीर्ण हो गये तो वह भक्ति भी किस काम की ? ४. इस प्रकार स्तवन से अङ्गों को स्थिर शक्तिवाला बनाते हुए हम (तनूभिः) = इन शरीरों से (देवहितम्) = उस प्रभु से स्थापित (यत् आयुः) = जो जीवन की मर्यादा है, उसे (व्यशेम) = भोगनेवाले हों । अगले मन्त्र में इसी जीवन की मर्यादा का उल्लेख है । हम उस पूर्ण जीवन को प्राप्त करनेवाले हों और इसे लोकहित में व्यतीत करनेवाले बनें ।
भावार्थ
भावार्थ = हम भद्र सुनें, भद्र ही देखें, स्थिर अङ्गोवाले होते हुए प्रभुस्तवन करें और पूर्ण आयुष्य को प्राप्त करें ।
विषय
परमेश्वर की उपासना, प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( यजत्राः ) सत्संग करने योग्य, एवं ईश्वरोपासना करने और विद्या आदि उत्तम पदार्थों के देने हारे ( देवाः ) विद्वान् दानशील पुरुषो ! हम लोग ( कर्णेभिः ) कानों से ( भद्रं ) सुखकारी कल्याणकारक वचनों का ( शृणुयाम ) श्रवण करें । ( अक्षभिः ) आंखों से ( भद्रं पश्येम ) सुखकारी, कल्याण जनक दृश्य को ( पश्येम ) देखें । ( तुष्टुवांसः ) परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करते हुए और ज्ञानयोग्य पदार्थों का यथार्थ रूप से वर्णन करते हुए, हम लोग ( स्थिरैः अङ्गैः ) स्थिर, दृढ़ निश्चल अंगों से और ( तनूभिः ) विस्तृत, हृष्ट पुष्ट शरीरों से ( यद् आयुः ) जो दीर्घ जीवन (देवहितम्) विद्वान् जनों को हितकारी है वह हम भी (अशेम) प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः—१, ५ निचृज्जगती । २, ३, ७ जगती । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराड् बृहती ॥ दशर्चं सूक्तम् ।
विषय
विषय (भाषा)- मनुष्यों को यज्ञ और संगतिकरण करके क्या-क्या करना चाहिये, यह उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे यजत्रा देवाः ! भवत्सङ्गेन तनूभिः स्थिरैः अङ्गैः तुष्टुवांसः सन्तः वयं कर्णेभिःयत् भद्रं तत् शृणुयाम अक्षभिः यत् भद्रं तत् पश्येम एवं तनूभिः स्थिरैः अङ्गैः यत् देवहितम् आयुः तत् {वि} अशेम ॥८॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (यजत्रा) यजन्ति सङ्गच्छन्ते ये ते=यज्ञ और संगतिकरण करनेवाले (देवाः) विद्वांसः=विद्वानों ! (भवत्सङ्गेन)=आपके संगतिकरण से, (तनूभिः)=शरीरों से, (स्थिरैः)= स्थिर, (अङ्गैः)= अङ्गों से, (तुष्टुवांसः) पदार्थगुणान् स्तुवन्तः= पदार्थों और गुणों की स्तुति, (सन्तः)=करते हुए, (वयम्)=हम, (कर्णेभिः) श्रोत्रैः=कानों से, (यत्)=जो, (भद्रम्) कल्याणकारकमध्ययनाध्यापनम्= कल्याण करनेवाला, अध्ययन और अध्यापन है, (तत्)=वह, (शृणुयाम)=सुनें, (अक्षभिः) बाह्याभ्यन्तरैर्नेत्रैः=बाहरी और आन्तरिक नेत्रों से, (यत्)=जो, (भद्रम्) शरीरात्मसुखम्= शरीर और आत्मा का सुख है, (तत्)=वह, (पश्येम)=देखें, (एवम्)=ऐसे ही, (तनूभिः) विस्तृतबलैः शरीरैः=विस्तृत बलों और शरीरों से, (स्थिरैः) निश्चलैः= स्थिर, (अङ्गैः) शिर आदिभिर्ब्रह्मचर्यादिभिर्वा= मस्तिष्क आदि के द्वारा या ब्रह्मचर्य आदि से, (यत्)=जो, (देवहितम्) देवेभ्यो विद्वद्भ्यो हितम्=देवों और विद्वानों की भलाई के लिए, (आयुः) जीवनम्=जीवन है, (तत्)= वह, {वि} विविधार्थे=विविध प्रकार से, (अशेम) प्राप्नुयाम=प्राप्त करें ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- विद्वान्, आप्त और सज्जनों के संग के विना कोई सत्यविद्या का वचन सत्य-दर्शन और सत्य व्यवहारमय अवस्था को नहीं पा सकता और न इसके विना किसी का शरीर और आत्मा दृढ़ हो सकता है, इससे सब मनुष्यों को यह उक्त व्यवहार वर्त्तना योग्य है ॥८॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- आप्त- ऋग्वेद के मन्त्र ०१.८९.०२ में परिभाषित किया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (यजत्रा) यज्ञ और संगतिकरण करनेवाले (देवाः) विद्वानों! (भवत्सङ्गेन) आपके संगतिकरण से (तनूभिः) शरीरों से (स्थिरैः) स्थिर (अङ्गैः) अङ्गों से (तुष्टुवांसः) पदार्थों और गुणों की स्तुति करते (सन्तः) हुए (वयम्) हम (कर्णेभिः) कानों से (यत्) जो (भद्रम्) कल्याण करनेवाला, अध्ययन और अध्यापन है, (तत्) वह (शृणुयाम) सुनें। (अक्षभिः) बाहरी और आन्तरिक नेत्रों से, (यत्) जो (भद्रम्) शरीर और आत्मा का सुख है, (तत्) वह (पश्येम) देखें। (एवम्) ऐसे ही (तनूभिः) विस्तृत बलों और शरीरों से, (स्थिरैः) स्थिर (अङ्गैः) मस्तिष्क आदि के द्वारा या ब्रह्मचर्य आदि से, (यत्) जो (देवहितम्) देवों और विद्वानों की भलाई के लिए (आयुः) जीवन है, (तत्) वह {वि} विविध प्रकार से (अशेम) प्राप्त करें ॥८॥
संस्कृत भाग
भ॒द्रम् । कर्णे॑भिः । शृ॒णु॒या॒म॒ । दे॒वाः॒ । भ॒द्रम् । प॒श्ये॒म॒ । अ॒क्षऽभिः॑ । य॒ज॒त्राः॒ । स्थि॒रैः । अङ्गैः॑ । तु॒स्तु॒ऽवांसः॑ । त॒नूभिः॑ । वि । अ॒शे॒म॒ । दे॒वऽहि॑तम् । यत् । आयुः॑ ॥ विषयः- मनुष्यैरेवं कृत्वा किं किमाचरणीयमित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि विदुषां सत्पुरुषाणामाप्तानां सङ्गेन विना कश्चित्ससत्यविद्यावचः सत्यं दर्शनं सत्यनिष्ठामायुश्च प्राप्तुं शक्नोति, न ह्येतैर्विना कस्यचिच्छरीमात्मा च दृढो भवितुं शक्यस्तस्मादेतत्सर्वैर्मनुष्यैः सदाऽनुष्ठेयम् ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान, आप्त व सज्जनांच्या संगतिशिवाय कुणीही सत्यविद्येची वाणी, सत्यदर्शन व व्यवहार प्राप्त करू शकत नाही व त्यांच्याशिवाय कुणाचे शरीर व आत्मा दृढ होऊ शकत नाही, त्यासाठी सर्व माणसांनी वरील व्यवहाराप्रमाणे वागणे योग्य आहे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Noble people of brilliant, generous and divine nature, help us to hear with our ears what is good and beneficial. Noble people dedicated to yajna, may we, by your favour and kindness see with our eyes what is good and elevating. May we, enjoying with firm and strong bodies and body parts, thanking the Lord Divine and praising the things given by Him live a full life fit for and blest by the divinities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is taught in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Venerable enlightened persons, who are worthy of association, may we in your company ever hear with our ears such words which are beneficial to all (words of study and teachings of the Vedas etc.) and may we ever see with our eyes what ever is good for body and soul. Ever praying with our firm limbs and praising the attributes of different objects, may we attain such state of life through our bodies which will be helpful to the cause of absolutely truthful enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(भद्रम्) १ कल्याणकारकम् अध्ययनाध्यापनम् (२) शरीरात्मसुखम् 1. Beneficial study and teaching of the Vedas etc. 2. The happiness or health of body and soul. (यजत्राः) यजन्ति संगच्छन्ते ये ते = Worthy of association. It is derived from. यज-देवपूजासंगतिकरणदानेषु = It may also men venerable, respectable.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None can obtain the words of true knowledge, true sight and truthful life without the association of truthful learned noble persons. Without this sort of association of noble persons, the body and soul can not get proper strength. Therefore all must have such association of or company with enlightened persons.
Subject of the mantra
What human beings should do by performing yajna and communion? This has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(yajatrā) =who perform yajna and have association in it’s performance, (devāḥ)=scholars (bhavatsaṅgena)=by your association, (tanūbhiḥ) =by bodies, (sthiraiḥ)=stable,(aṅgaiḥ) =by organs, (tuṣṭuvāṃsaḥ+santaḥ)=praising substances and qualities, (vayam) =we, (karṇebhiḥ) = with ears, (yat) =that, (bhadram) =beneficial study and teaching are, (tat) =that, (śṛṇuyāma) =listen, (akṣabhiḥ) =with external and internal eyes, (yat) =that, (bhadram) =there is happiness of body and soul, (tat) =that, (paśyema) =see, (evam) =in the same way, (tanūbhiḥ)=with expanded forces and bodies, (sthiraiḥ) =stable, (aṅgaiḥ) =with brain etc. or celibacy etc., (yat) =that, (devahitam)= for the welfare of deities and scholars, (āyuḥ) =life is, (tat) =that, {vi}=in various ways, (aśema) =obtain.
English Translation (K.K.V.)
O scholars who perform yajna and have association in it’s performance ! By your association, let us hear study and teaching with our ears whatever is beneficial, while praising the substances and qualities from the body's stable organs. See with external and internal eyes the happiness of body and soul. Similarly, with expanded forces and bodies, with a stable mind etc. or through celibacy etc., that which is life for the good of deities and scholars, may be obtained in various ways.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Without the company of scholars, gentlemen and āpta (trusted) people, speech of truthful knowledge, true philosophy, integrity and longevity cannot be attained. Neither can anyone's body and soul become strong without it, hence all human beings should always accomplish it.
TRANSLATOR’S NOTES-
TRANSLATOR’S NOTES- āpta- It has been defined in mantra no. 01.89.02 of Rigveda.
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