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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 12
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒यं मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धाय॑सेऽवया॒तां म॒रुतां॒ हेळो॒ अद्भु॑तः। मृ॒ळा सु नो॒ भूत्वे॑षां॒ मन॒: पुन॒रग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धाय॑से । अ॒व॒ऽया॒ताम् । म॒रुता॒म् । हेळः॑ । अद्भु॑तः । मृ॒ळ । सु । नः॒ । भूतु॑ । ए॒षा॒म् । मनः॑ । पुनः॑ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं मित्रस्य वरुणस्य धायसेऽवयातां मरुतां हेळो अद्भुतः। मृळा सु नो भूत्वेषां मन: पुनरग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। मित्रस्य। वरुणस्य। धायसे। अवऽयाताम्। मरुताम्। हेळः। अद्भुतः। मृळ। सु। नः। भूतु। एषाम्। मनः। पुनः। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    हे अग्ने यतस्त्वया मित्रस्य वरुणस्य धायसे योऽयमवयातां मरुतामद्भुतो हेळः क्रियते तेनैषां नोऽस्माकं मनः पुनः सुमृडैवं भूतु तस्मात् तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (अयम्) प्रत्यक्षः (मित्रस्य) सख्युः (वरुणस्य) वरस्य (धायसे) धारणाय (अवयाताम्) धर्मविरोधिनाम् (मरुताम्) मरणधर्माणां मनुष्याणाम् (हेळः) अनादरः (अद्भुतः) आश्चर्ययुक्तः (मृड) आनन्दय। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः । द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (सु) (नः) अस्माकम् (भूतु) भवतु। अत्र शपो लुक्। भूसुवोस्तिङीति गुणाभावः। (एषाम्) भद्राणाम् (मनः) अन्तःकरणम् (पुनः) मुहुर्मुहुः (अग्ने, सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सभाध्यक्षस्य यच्छ्रेष्ठानां पालनं दुष्टानां ताडनं तद्विदित्वा सदाचरणीयम् ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सभा आदि के अधिपति के गुणों का उपदेश करते हैं ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) समस्त ज्ञान देनेहारे सभा आदि के अधिपति ! जिस कारण आपने (मित्रस्य) मित्र वा (वरुणस्य) श्रेष्ठ के (धायसे) धारण वा सन्तोष के लिये जो (अयम्) यह प्रत्यक्ष (अवयाताम्) धर्मविरोधी (मरुताम्) मरने जीनेवाले मनुष्यों का (अद्भुतः) अद्भुत (हेळः) अनादर किया है, उससे (एषाम्) इन (नः) हम लोगों के (मनः) मन को (पुनः) बार-बार (सुमृड) अच्छे प्रकार आनन्दित करो, ऐसे (भूतु) हो, इससे (तव) तुम्हारे (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) मत बेमन हों ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि सभाध्यक्ष का जो श्रेष्ठों का पालन और दुष्टों को ताड़ना देना कर्म है, उसको जानकर सदा आचरण करें ॥ १२ ॥

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    विषय

    प्राणापान की प्रसन्नता [अनुकूलता]

    पदार्थ

    १. (अयम्) = गतमन्त्र में वर्णित यह प्रभुभक्त (मित्रस्य वरुणस्य) = प्राण व अपान के (धायसे) = धारण के लिए समर्थ हो । (मरुताम्) = प्राणों का (अद्भुतः) = विस्मयकारक व महान् (हेळः) = कोप (अवयाताम्) = दूर हो जाए [यातु = याताम् । पदव्यत्यय] । प्राणापान में विकार होने पर शरीर व मन व्याधि व आधियों से भर जाते हैं । एवं, प्राणापान का प्रकोप अत्यन्त महान् है । प्रभुभक्त इस कोप से बचा रहता है । २. हे प्रभो ! प्राणापान के कोप से बचाकर आप (नः) = हमारे लिए (सू) = उत्तमता से (मृळ) = सुख देनेवाले होओ । (एषाम्) = इन मरुतों का (मनः) = मन (पुनः) = फिर (नः) = हमारा (भूतु) = हो, अर्थात् इनके साथ हमारी अनुकूलता हो । इस प्रकार हे (अग्ने) = परमात्मन् । (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में (वयम्) = हम (मा) = मत (रिषाम) = हिंसित हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभुभक्त प्राणापान के कोप से बचा रहता है, इसलिए हमें स्नायु = संस्थान के रोग नहीं होते ।

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    विषय

    अग्नि का भी वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (मित्रस्य वरुणस्य धायसे) मित्र, सूर्य या दिन के प्रकाश और ताप को वरुण, रात्रि काल की शीतलता को धारण करने के लिये (अवयातां मरुतां अद्भुतः हेळः) नीचे और ऊपर की ओर आने जाने वाले, वायुगण का वेष्टन, अर्थात् वातावरण भी अद्भुत आश्चर्यकारी रूप से बना हुआ है ( एषां मनः नः सुभूतु ) इनका स्तम्भन बल हमें सुखकारी होता है उसी प्रकार ( मित्रस्य ) स्नेह करने और प्रजा को मृत्यु कष्ट से बचाने वाले और ( वरुणस्य ) सब से श्रेष्ठ वरण करने योग्य, दुष्ट शत्रुओं के वारक राजा और न्यायाधीश के ( धायसे ) अधिकार-बल और शासन को धारण पोषण करने के लिये ( अवयाताम् ) अधीन होकर कार्यों पर जाने वाले ( मरुताम् ) मनुष्यों, विद्वानों, सैनिकों और प्रजाओं का (हेडः) यह वेष्टन अर्थात् घेरा डाले रहना, और राष्ट्र में जाल के समान फैले रहना, आना जाना और आक्रमण करना भी ( अद्भुतः ) अति आश्चर्यकारी हो । अथवा—मित्रों और श्रेष्ठ पुरुषों के धारण अर्थात् पालन पोषण के लिये ( अवयातां मरुतां हेडः ) नीचे मार्ग पर जाने वाले, नीचवृत्ति के, कुपथगामी पुरुषों को (अद्भुतः) विस्मयकारी रूप से, जैसा उनके जीवन में कभी भी नहीं हुआ हो, ऐसा घोर अनादर, अपमान, कष्ट हो । हे राजन् ! तू ( नः ) हमें ( मृळ ) सुखी कर । और ( एषां ) इन प्रजाजनों, विद्वानों और वीर पुरुषों का ( मनः ) चित्त सदा ( सु भूतु ) उत्तम मार्ग में रहे । ( पुनः ) और हे ( अग्ने ) नायक ! विद्वन् ! ( तव सख्ये ) तेरे मित्र भाव में ( वयम् ) हम (मा रिषाम) कभी पीड़ित न हों।

    टिप्पणी

    ‘हेडः’ — हिडि गत्यनादरयोः । हेड अनादरे । हेड वेष्टने ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः॥ छन्दः–१, ४, ५, ७, ९, १० निचृज्जगती । १२, १३, १४ विराड् जगती । २, ३, १६ त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सभाध्यक्षाने श्रेष्ठांचे पालन व दुष्टांची ताडना केली पाहिजे. हे जाणून माणसांनी सदैव त्याचे आचरण करावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This Agni is the power for the support of Mitra and Varuna, friends and the best people among humanity. It is also the awful terror of the Maruts, forces of defence and justice, against the people of anti-human values. Lord of light, justice and generosity, such as you are, be kind and gracious and a source of peace and joy to the mind of these good and law-abiding people. We pray that we may not suffer any want and misery under your guidance and control as friends.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of the President of the Assembly etc. are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Agni (President of the Assembly or the commander of the Army etc.) as thou showest amazing dishonour to unrighteous mortals in order to support and sustain men of friendly disposition and the noble, be merciful towards us. May thy mind along with thy attendants be gracious towards us. May we not suffer any harm in thy friendship.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अवयाताम्) धर्मविरोधिनाम् = Of the unrighteous persons going against the injunctions of the Dharma. (मरुताम्) मरणधर्माणां मनुष्याणाम् = Of mortal men. (हेड:) अनादर: = Dishonour. (हेड़-अनादरे)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should behave properly after knowing the duty of the President as the protector of the right persons and chatiser of the wicked.

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