ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 15
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यस्मै॒ त्वं सु॑द्रविणो॒ ददा॑शोऽनागा॒स्त्वम॑दिते स॒र्वता॑ता। यं भ॒द्रेण॒ शव॑सा चो॒दया॑सि प्र॒जाव॑ता॒ राध॑सा॒ ते स्या॑म ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मै॑ । त्वम् । सु॒ऽद्र॒वि॒णः॒ । ददा॑शः । अ॒ना॒गाः॒ऽत्वम् । अ॒दि॒ते॒ । स॒र्वऽता॑ता । यम् । भ॒द्रेण॑ । शव॑सा । चो॒दया॑सि । प्र॒जाऽव॑ता । राध॑सा । ते॒ । स्या॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मै त्वं सुद्रविणो ददाशोऽनागास्त्वमदिते सर्वताता। यं भद्रेण शवसा चोदयासि प्रजावता राधसा ते स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मै। त्वम्। सुऽद्रविणः। ददाशः। अनागाःऽत्वम्। अदिते। सर्वऽताता। यम्। भद्रेण। शवसा। चोदयासि। प्रजाऽवता। राधसा। ते। स्याम ॥ १.९४.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 15
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सुद्रविणोऽदिते जगदीश्वर विद्वन् वा यतस्त्वं सर्वताता यस्मा अनागास्त्वं ददाशः। यं भद्रेण शवसा प्रजावता राधसा सह वर्त्तमानां कृत्वा शुभे व्यवहारे चोदयासि प्रेरयेः। तस्मात्तवाज्ञायां विद्वच्छिक्षायां च वर्त्तमाना ये वयं प्रयतेमहि ते वयमेतस्मिन् कर्मणि स्थिराः स्याम ॥ १५ ॥
पदार्थः
(यस्मै) मनुष्याय (त्वम्) जगदीश्वरो विद्वान् वा (सुद्रविणः) शोभनानि द्रविणांसि यस्मात्तत्सम्बुद्धौ (ददाशः) ददासि। अत्र दाशृधातोर्लेटो मध्यमैकवचने शपः श्लुः। (अनागास्त्वम्) निष्पापत्वम्। इण आगोऽपराधे च। उ० ४। २१९। अत्र नञ्पूर्वादागःशब्दात्त्वे प्रत्ययेऽन्येषामपि दृश्यत इत्युपधाया दीर्घत्वम्। (अदिते) विनाशरहित (सर्वताता) सर्वतातौ सर्वस्मिन् व्यवहारे। अत्र सर्वदेवात्तातिल्। ४। ४। १४२। इति सूत्रेण सर्वशब्दात्स्वार्थे तातिल् प्रत्ययः। सुपां सुलुगिति सप्तम्या डादेशः। (यम्) (भद्रेण) सुखकारकेण (शवसा) शरीरात्मबलेन (चोदयासि) प्रेरयसि (प्रजावता) प्रशस्ताः प्रजा विद्यन्ते यस्मिंस्तेन (राधसा) विद्यासुवर्णादिधनेन सह (ते) त्वदाज्ञायां वर्त्तमानाः (स्याम) भवेम ॥ १५ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। यस्मिन्मनुष्येऽन्तर्यामीश्वरः पापाकरणत्वं प्रकाशयति स मनुष्यो विद्वत्सङ्गप्रीतिः सन् सर्वविधं धनं शुभान् गुणांश्च प्राप्य सर्वदा सुखी भवति तस्मादेतत्कृत्यं वयमपि नित्यं कुर्याम ॥ १५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (सुद्रविणः) अच्छे-अच्छे धनों के देने और (अदिते) विनाश को न प्राप्त होनेवाले जगदीश्वर वा विद्वन् ! जिस कारण (त्वम्) आप (सर्वताता) समस्त व्यवहार में (यस्मै) जिस मनुष्य के लिये (अनागास्त्वम्) निरपराधता को (ददाशः) देते हैं तथा (यम्) जिस मनुष्य को (भद्रेण) सुख करनेवाले (शवसा) शारीरिक, आत्मिक बल और (प्रजावता) जिसमें प्रशंसित पुत्र आदि हैं उस (राधसा) विद्या, सुवर्ण आदि धन से युक्त करके अच्छे व्यवहार में (चोदयासि) लगाते हैं, इससे आपकी वा विद्वानों की शिक्षा में वर्त्तमान जो हम लोग अनेकों प्रकार से यत्न करें (ते) वे हम इस काल में स्थिर (स्याम) हों ॥ १५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस मनुष्य में अन्तर्यामी ईश्वर धर्मशीलता को प्रकाशित करता है, वह मनुष्य विद्वानों के सङ्ग में प्रेमी हुआ सब प्रकार के धन और अच्छे-अच्छे गुणों को पाकर सब दिनों सुखी होता है, इससे इस काम को हम लोग भी नित्य करें ॥ १५ ॥
विषय
निरपराधता
पदार्थ
१. हे (सुद्रविणः) = शोभन धनोंवाले प्रभो ! (अदिते) = खण्डन व नाश न होने देनेवाले प्रभो ! (सर्वताता) = सब कर्मों का विस्तार करनेवाले इस जीवनयज्ञ में (यस्मै) = जिस भी व्यक्ति के लिए (त्वम्) = आप (अनागाः) = निरपराधता को (ददाश) = देते हैं और २. (यम्) = जिसको आप (भद्रेण) = कल्याण व सुख देनेवाली (शवसा) = शक्ति व क्रिया से (चोदयासि) = प्रेरित करते हैं, ऐसे हम (ते) = आपके (प्रजावता) = उत्तम सन्तानोंवाले अथवा उत्तम शक्तियों के विस्तारवाले (राधसा) = कार्यसाधक धन के साथ (स्याम) = हों ।
भावार्थ
भावार्थ = हम [क] प्रभु से उत्तम धनों व स्वास्थ्य को प्राप्त करके निरपराध जीवनयज्ञ का विस्तार करनेवाले हों, [ख] हमारी शक्ति व क्रिया कल्याणमयी हो, [ग] हमारा धन उत्तम प्रजा व शक्तियों के विकास से युक्त हो ।
विषय
अग्नि का भी वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अदिते ) अखण्ड ! नाशरहित परमेश्वर ! अचार्य, एवं अखण्ड शासन वाले बलवान् ! राजन् ! ( त्वं ) तू ( सुद्रविणः ) उत्तम ऐश्वर्यवान् है। तू ( यस्मै ) जिस को ( सर्वताता ) समस्त कार्यों में ( अनागास्त्वम् ) पापरहितता, शुद्ध आचारण का ( ददाशः ) उपदेश प्रदान करता है और ( यं ) जिस को तू ( शवसा ) बल से और ज्ञान पत्र से ( चोदयसि ) सन्मार्ग में चलाता है वह ( प्रजावता ) उत्तम पुत्र पौत्रों से युक्त, ( राधसा ) ऐश्वर्य से युक्त होजाता है । हे राजन् ! विद्वन् ! प्रभो ! हम भी ( ते ) तेरे दिये ( शवसा ) ज्ञान, बल और ( प्रजावता राधसा ) प्रजा से समृद्ध ऐश्वर्य से युक्त ( स्याम ) हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स ऋषिः॥ छन्दः–१, ४, ५, ७, ९, १० निचृज्जगती । १२, १३, १४ विराड् जगती । २, ३, १६ त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्या माणसाच्या अंतःकरणात ईश्वर धर्मशीलता प्रकट करतो त्याला विद्वानांची संगती आवडते व त्याला सर्व प्रकारचे धन मिळते. त्याच्या अंगी चांगल्या गुणांचा उद्भव होऊन तो सदैव सुखी होतो. त्यामुळे हे कार्य आम्हीही सदैव करावे. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of divine wealth of existence, power imperishable, whoever the person you bless with purity and sinlessness in all the affairs of life, whoever you inspire with noble courage and valour, he begets good children and a happy family and obtains abundant wealth of the world. Lord of wealth and generosity, we pray, bless us with that same wealth and good fortune.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) May we be certainly among those persons O immortal Imperishable God, to whom Thou O Possessor of beautiful wealth art pleased to grant sinlessness in all dealings, in health and wealth and whom Thou wilt quicken with glorious strength (physical and spiritual) and with good progeny.(2) It is also applicable to a great scholar who makes people sinless and strong. He regards himself as immortal and Imperishable Atma (Soul).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अदिते) विनाशरहित = Imperishable. दो-प्रवखण्डने नञ् (सर्वताता) सर्वतातौ सर्वस्मिन् व्यवहारे अत्र सर्वदेवात् तातिल् ( भ्रष्ट० ४.४.१४२ ) इति सूत्रेण सर्वशब्दात् तातिल् प्रत्ययः । सुपां सुलुक् इति सप्तम्याडादेश: = In all dealings. (शवसा) शरीरात्मबलेन = With physical and spiritual power,
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The man to whom God manifests in his soul sinlessness, urging him to be so, he being fond of association with learned persons enjoys happiness, having obtained all kind of wealth and noble virtues. Therefore we should also do likewise.
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