ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 16
स त्वम॑ग्ने सौभग॒त्वस्य॑ वि॒द्वान॒स्माक॒मायु॒: प्र ति॑रे॒ह दे॑व। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । सौ॒भ॒ग॒ऽत्वस्य॑ । वि॒द्वान् । अ॒स्माक॑म् । आयुः॑ । प्र । ति॒र॒ । इ॒ह । दे॒व॒ । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वमग्ने सौभगत्वस्य विद्वानस्माकमायु: प्र तिरेह देव। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठसः। त्वम्। अग्ने। सौभगऽत्वस्य। विद्वान्। अस्माकम्। आयुः। प्र। तिर। इह। देव। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.९४.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे देवाऽग्ने येन त्वयोत्पादिता विज्ञापिता मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उतापि द्यौर्नोऽस्मान् मामहन्तां तदस्माकं सौभगत्वस्यायुरिह स विद्वांस्त्वं प्रतिर ॥ १६ ॥
पदार्थः
(सः) (त्वम्) (अग्ने) जीवनैश्वर्य्यप्रद परमेश्वर रोगनिवारणायौषधप्रद वा (सौभगत्वस्य) सुष्ठुभगानामैश्वर्याणामयं समूहस्तस्य भावस्य (विद्वान्) सकलविद्याप्रापकः परिमितविद्याप्रदो वा (अस्माकम्) (आयुः) जीवनं ज्ञानं वा (प्र) (तिर) सन्तारय (इह) कार्यजगति (देव) सर्वैः कमनीय (तत्) (नः) (मित्रः) प्राणः (वरुणः) उदानः (मामहन्ताम्) वर्द्धन्ताम्। व्यत्ययेनात्र शपः श्लुः। (अदितिः) उत्पन्नं वस्तुमात्रं जनित्वं कारणं वा (सिन्धुः) समुद्रः (पृथिवी) भूमिः (उत) अपि (द्यौः) विद्युत्प्रकाशः ॥ १६ ॥
भावार्थः
मनुष्यैः परमेश्वरस्य विदुषां चाश्रयेण पदार्थविद्यां प्राप्य सौभाग्यायुषी इह संसारे प्रयत्नेन वर्धनीये ॥ १६ ॥अत्रेश्वरसभाध्यक्षविद्वदग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥।इति चतुर्नवतितमं सूक्तं द्वात्रिंशत्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतमहाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते ऋग्वेदभाष्ये प्रथमाष्टके षष्ठोऽध्यायः पूर्त्तिमगात् ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (देव) सभों को कामना के योग्य (अग्ने) जीवन और ऐश्वर्य्य के देनेहारे जगदीश्वर ! जो (त्वम्) आपने उत्पन्न किये वा रोग छूटने की ओषधियों को देनेहारे विद्वान् जो आपने बतलाये (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) उत्पन्न हुए समस्त पदार्थ (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) विद्युत् का प्रकाश हैं वे (नः) हम लोगों को (मामहन्ताम्) उन्नति के निमित्त हों (तत्) और वह सब वृत्तान्त (अस्माकम्) हम लोगों को (सौभगत्वस्य) अच्छे-अच्छे ऐश्वर्य्यों के होने का (आयुः) जीवन वा ज्ञान है (इह) इस कार्य्यरूप जगत् में (सः) वह (विद्वान्) समस्त विद्या की प्राप्ति करानेवाले जगदीश्वर आपका प्रमाणपूर्वक विद्या देनेवाला विद्वान् तुम दोनों (प्रतिर) अच्छे प्रकार दुःखों से तारो ॥ १६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर और विद्वानों के आश्रय से पदार्थविद्या को पाकर इस संसार में सौभाग्य और आयुर्दा को बढ़ावें ॥ १६ ॥इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष, विद्वान् और अग्नि के गुणों का वर्णन है, इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥इस अध्याय में सेनापति के उपदेश और उसके काम आदि का वर्णन है, इससे इस छठे अध्याय के अर्थ की पञ्चमाध्याय के अर्थ के साथ एकता समझनी चाहिये ॥यह श्रीमान् संन्यासियों में भी जो आचार्य्य श्रीयुत महाविद्वान् विरजानन्द सरस्वती स्वामीजी उनके शिष्य दयानन्द सरस्वती स्वामीजी के बनाये संस्कृत और आर्य्यभाषा से शोभित अच्छे प्रमाणों से युक्त ऋग्वेद-भाष्य के प्रथमाष्टक में छठा अध्याय समाप्त हुआ ॥
विषय
सुन्दर दीर्घ जीवन
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = अग्नणी प्रभो ! (देव) = सब - कुछ देनेवाले व प्रकाशमय प्रभो ! (सौभगत्वस्य विद्वान्) = सौभाग्य व सौन्दर्य को सम्यक् जानते हुए (सः त्वम्) = वे आप (अस्माकम्) = हमारी (आयुः) = आयु को (इह) = यहाँ (प्रतिर) = खूब ही बढ़ा दीजिए । आपकी कृपा से हमारा जीवन सब सौभगों से पूर्ण व दीर्घ हो । २. आपसे दिये हुए (तत्) = उस (नः) = हमारे सुन्दर दीर्घजीवन को (मित्रः) = मित्र, (वरुणः) = वरुण, (अदितिः) = अदिति, (सिन्धुः) = सिन्धु, (पृथिवी) = पृथिवी (उत) = और (द्यौः) = द्युलोक (मामहन्ताम्) = [पूजयन्तु, रक्षन्तु] पूजित करें व आदरणीय बना दें । इन देवों के द्वारा वह जीवन सुरक्षित हो । 'मित्र' स्नेह का देवता है, 'वरुण' द्वेषनिवारण का । जीवन का सौन्दर्य स्नेह व निद्वेषता की अपेक्षा करता ही है । 'अदिति' स्वास्थ्य की देवता है । बिना स्वास्थ्य के सौन्दर्य और दीर्घता सम्भव ही नहीं । 'सिन्धुः' [स्यन्दते] बहनेवाले जल शरीर में सोमकण हैं । इनके रक्षण से ही स्वास्थ्य बना रहता है । ये ही पृथिवी अर्थात् शरीर को तथा द्यौः = मस्तिष्क को शक्ति व ज्योति देते हैं । सुन्दर जीवन के लिए 'सशक्त शरीर व दीप्त मस्तिष्क' दोनों की आवश्यकता है एवं मित्रादि देव हममें निवास करके सुन्दर एवं दीर्घजीवन का रक्षण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = मित्रादि देवों की स्थिति से हमारा जीवन सुन्दर व दीर्घ हो ।
विशेष / सूचना
विशेष = सूक्त के आरम्भ में कहा है कि इस जीवनयात्रा में प्रभुस्तवन ही हमारा रथ हो [१] । हमारा दारिद्र्य का कष्ट दूर हो [२] । हम प्रज्ञा व कर्म को सिद्ध करें [३] । यज्ञादि उत्तम कर्मों से ही प्रभु - प्राप्ति होती है [४] । इस संसार में प्रभु गोप हों और हम उसकी गौएँ [५] । वे प्रभु ही प्रशास्ता व पोता हैं [६], प्रकाशमय हैं [७] । देवों की अनुकूलता से हमारा शरीररूप रथ सुन्दर हो [८] । दुःशंस पुरुष हमसे दूर हों [९] । हमारे इन्द्रियाश्व आरोचमान व वायु वेगवाले हों [१०] । प्रभुस्तवन सोमरक्षण का साधन है [११] । प्राणापान की अनुकूलता अत्यन्त आवश्यक है [१२] । वे प्रभु ही देवों के देव हैं [१३] । वे ही सब रत्न व द्रविणों को देते हैं [१४] । प्रभुकृपा से हमारा जीवन निरपराध हो [१५] । मित्रादि देव हमारे जीवन को सुन्दर बनाएँ [१६] । इस सुन्दर जीवन के लिए हम दिन - रात को किस प्रकार बिताएँ - इस बात का उल्लेख अगले सूक्त में है -
विषय
अग्नि का भी वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानप्रकाशक ! विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! परमेश्वर ! हे ( देव ) ज्ञानप्रद ! सुखप्रद ! विद्याप्रकाशक ( त्वम् ) तू ( विद्वान् ) सब कुछ जानने हारा है । हमारे ( सौभगत्वस्य ) उत्तम ऐश्वर्यों के स्वामित्व और( आयुः ) जीवन और ज्ञान (इह) इस लोक, इस जन्म और इस राष्ट्र में ( प्र तिर) खूब बढ़ा । में और ( नः ) हमें ( मित्रः ) प्राण, (वरुणः) अपान तथा दिन और रात्रि, सूर्य और मेघ, ( अदितिः ) अविनाशी कारण, ( सिन्धुः ) सागर या नदी गण, ( पृथिवी ) पृथिवी (उत) और (द्यौः) विद्युत्, या महान् आकाश ये सब भी ( नः ) हमें ( तत् ) वह परम सुख सौभाग्य प्रदान करें और बढ़ावें । इति द्वात्रिंशो वर्गः॥ इति पष्ठोऽध्यायः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स ऋषिः॥ छन्दः–१, ४, ५, ७, ९, १० निचृज्जगती । १२, १३, १४ विराड् जगती । २, ३, १६ त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी परमेश्वर व विद्वानांचा आश्रय घेऊन पदार्थविद्या प्राप्त करून या जगात सौभाग्य व आयुष्य वाढवावे. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and wealth of the world, lord and giver of all good fortune, honour and glory of life, give us a happy and full life here and let it thrive and prosper. The same may Mitra, prana energy, Varuna, udana energy, Aditi, Mother Nature, the sea, the earth, the heaven and the skies support, strengthen and promote. The same, lord Agni, giver of life, bless and let us cross the seas of existence with grace divine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God desired by all, Giver of life's prosperity, Thou who knowest how to grant happiness, prolong our prosperous life and augment our knowledge here. May the Mitra (Prana) Varuna (Udana) Aditi (all objects that are produced) Ocean, earth, the light or electricity, may all created by Thee increase our strength and happiness. (2) The Mantra is also applicable to a highly learned person who should give the knowledge of all objects to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
आयुः) जीवनं ज्ञानं वा = Life or knowledge. (देव) सर्वैः कमनीय = Desired by all. (मित्र:) प्राण: = Prana (Vital breath). (वरुण:) उदान: = Udana. (अदितिः) उत्पन्नं वस्तुमात्रं कारणं वा = All created objects. (द्यौ:) विद्युत्प्रकाशो वा = Electricity or light.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should increase their good fortune, prosperity and life by taking shelter in good and highly learned persons, acquiring the knowledge Physical science and being industrious in this world.
Translator's Notes
The word देव is derived from दिवु-क्रीडाविजिगीषा व्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदकान्ति गतिषु । Here the meaning कान्ति-कामना or desire has been taken. For the meaning of मित्रः as प्राण : see प्राणोमित्रम् (जैमिनीयोप० ब्रा० ३.३ ) and Shatapath 8. 4. 2. 6 प्राणो वै० मित्रः (शत० ८. ४.२.६ ) For the meaning of Varuna as Udana see. प्रारणोदानौ वै मित्रावरुणौ । शत० १.८. ३. १२ प्राणोदानी मित्रावरुणौ । शत० ३.२.२. १३ This hymn is connected with the previous hymns as there is mention of the attributes of God, President of the Assembly, learned persons and fire as in that hymn. Here ends the commentary on the ninety fourth (94th) hymn and 32rd Verga of the first Mandala of the Rigveda.
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