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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वि॒शां गो॒पा अ॑स्य चरन्ति ज॒न्तवो॑ द्वि॒पच्च॒ यदु॒त चतु॑ष्पद॒क्तुभि॑:। चि॒त्रः प्र॑के॒त उ॒षसो॑ म॒हाँ अ॒स्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒शाम् । गो॒पाः । अ॒स्य॒ । च॒र॒न्ति॒ । ज॒न्तवः॑ । द्वि॒ऽपत् । च॒ । यत् । उ॒त । चतुः॑ऽपत् । अ॒क्तुऽभिः॑ । चि॒त्रः । प्र॒ऽके॒तः । उ॒षसः॑ । म॒हान् । अ॒सि॒ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विशां गोपा अस्य चरन्ति जन्तवो द्विपच्च यदुत चतुष्पदक्तुभि:। चित्रः प्रकेत उषसो महाँ अस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विशाम्। गोपाः। अस्य। चरन्ति। जन्तवः। द्विऽपत्। च। यत्। उत। चतुःऽपत्। अक्तुऽभिः। चित्रः। प्रऽकेतः। उषसः। महान्। असि। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरसभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ।

    अन्वयः

    हे अग्ने तवास्य विशां यद्ये गोपा जन्तवोऽक्तुभिरुषसश्चरन्ति। ये द्विपच्चोतापि चतुष्पच्चरन्ति यश्चित्रः प्रकेतो महांस्त्वमसि तस्य तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (विशाम्) प्रजानाम् (गोपाः) रक्षका गुणाः (अस्य) जगदीश्वरस्य सृष्टौ सभाद्यध्यक्षस्य राज्ये वा (चरन्ति) प्रवर्त्तन्ते (जन्तवः) मनुष्याः (द्विपत्) द्वौ पादौ यस्य। अत्र द्विपच्चतुष्पदित्युभयत्र द्विपाच्चतुष्पादाविति भवितव्येऽयस्मयादित्वाद्भसंज्ञा भत्वात् पादः पदिति पद्भावः। (च) अपादः सर्पादयोऽपि (यत्) ये (उत्) अपि (चतुष्पत्) चत्वारः पादा यस्य (अक्तुभिः) प्रसिद्धैः कर्मभिर्मार्गैः प्रसिद्धाभी रात्रिभिर्वा (चित्रः) अद्भुतगुणकर्मस्वभावः (प्रकेतः) प्रज्ञापकः (उषसः) दिवसान् (महान्) (असि) अस्ति वा (अग्ने) विज्ञापक (सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रा श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैः किल यस्य परमेश्वरस्य सभाध्यक्षस्य विदुषो वा महत्त्वेन कार्य्यजगदुत्पत्तिस्थितिभङ्गा जायन्ते तस्य मित्रभावे कर्मणि वा कदाचिद्विघ्नो न कर्त्तव्यः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर और सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में करते हैं ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) उत्तम सुखों के समझानेवाले सभा आदि कामों के अध्यक्ष ! आपके राज्य में वा उत्तम सुखों का विज्ञान करानेवाले (अस्य) इस जगदीश्वर की सृष्टि में (विशाम्) प्रजाजनों के (यत्) जो (गोपाः) पालनेहारे गुण वा (जन्तवः) मनुष्य (चरन्ति) विचरते हैं वा (अक्तुभिः) प्रसिद्ध कर्म, प्रसिद्ध मार्ग और प्रसिद्ध रात्रियों के साथ (उषसः) दिनों को प्राप्त होते हैं वा जो (द्विपत्) दो पगवाले जीव (च) वा पगहीन सर्प आदि (उत) और (चतुष्पत्) चौपाये पशु आदि विचरते हैं तथा जो (चित्रः) अद्भुत गुणकर्मस्वभाववान् (प्रकेतः) सब वस्तुओं को जनाते हुए जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष आप (महान्) उत्तमोत्तम (असि) हैं, उन (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) बेमन कभी न हों ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिस जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष विद्वान् के बड़प्पन से जगत् की उत्पत्ति, पालना और भङ्ग होते हैं, उसके मित्रपन वा मित्र के काम में कभी विघ्न न करें ॥ ५ ॥

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    विषय

    उस गोप की गाएँ

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = प्रभो ! आप ही (विशां गोपाः) = सब प्रजाओं के रक्षक हो । प्रजाएँ गौएँ हैं और आप उनके गोप हो । २. (अस्य) = इन आपकी ही (अक्तुभिः) = प्रकाश की किरणों से (द्विपत् च) = जो दो पाँवोंवाले (जन्तवः) = प्राणी हैं (उत) = और (यत्) = जो (चतुष्पत्) = चार पाँवोंवाले प्राणी हैं, वे सब (चरन्ति) = अपने - अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं । वस्तुतः दो पाँववाले पक्षियों व चार पाँववाले पशुओं में प्रभु की ही वासना [Instiret] के रूप में दी हुई ज्योति काम करती है । उस वासना से काम करते हुए वे पशु - पक्षी अपने मार्ग पर ठीक चलते जाते हैं । मधुमक्षिका आदि में प्रभु का दिया हुआ यह (चित्रः प्रकेतः) = अद्भुत ज्ञान स्पष्ट दिखता है । ३. हे प्रभो ! उषा भी आती है और अन्धकार को दूर करती है, आप (उषसः महान् असि) = उस उषा से भी महान् हो । वह बाह्य अन्धकार को दूर करती है, आप हृदयस्थ अन्धकार को दूर करनेवाले हैं । हे प्रभो ! (वयम्) = हम (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में (मा रिषाम) = हिंसित न हों । आपसे प्रकाश प्राप्त करके हम ठीक मार्ग पर चलते हुए कल्याण को सिद्ध करनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभु गोप हैं, हम उनकी गौएँ । प्रभु का दिया हुआ प्रकाश अद्भुत है, उस प्रकाश में हम हिंसित नहीं होते ।

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    विषय

    अग्नि का भी वर्णन ।

    भावार्थ

    (अस्य) इस सभापति, राजा और विद्वान् के राज्य में (विशां गोपाः ) प्रजाओं के रक्षक पुरुष और ( द्विपत् च ) दोपाये, भृत्य, कर्मकर आदि ( यत् उत ) और जो (चतुष्पद) चौपाये ( जन्तवः ) सब जन्तु (अक्तुभिः) प्रकट चिह्नों या गुणों सहित होकर ( चरन्ति ) विचरें । अर्थात् राजपुरुषों, भृत्यों के भी शरीरों पर उनके भिन्न २ विभाग का चिह्न, पदक आदि हो, और पशुओं पर भी चक्र, शूल आदि का चिह्न हो । हे ( अग्ने ) राजन् ! ( चित्रः ) पूजा आदर सत्कार करने योज्य ( प्रकेतः ) उत्तम ज्ञानवान् होकर ( उषसः महान् ) सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और गुणों से महान् सामर्थ्य वाला है । (तव सख्ये मा रिषाम) तेरे मित्र भाव में हम कभी पीड़ित न हों। परमेश्वरपक्ष में—परमेश्वर के बनाये दोपाये, चौपाये तथा अन्यान्य सभी प्राणी ( विशां गोपाः ) प्रजाओं के रक्षा करने हारे होकर ही विचरते हैं । परमेश्वर पूज्य, अद्भुत सामर्थ्यवाला, महान् है । उसके प्रेम भाव में हम कभी पीड़ित न हों । इति त्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः॥ छन्दः–१, ४, ५, ७, ९, १० निचृज्जगती । १२, १३, १४ विराड् जगती । २, ३, १६ त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी ज्या जगदीश्वराच्या (किंवा सभाध्यक्ष विद्वानाच्या) महानतेमुळे जगाची उत्पत्ती, स्थिती व नाश होतो त्याचे मित्रत्व सोडू नये किंवा विघ्न आणू नये. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni is people’s protector. By the rays of this Agni’s light, living creatures, bipeds such as humans, quadrupeds such as cows, and others move around days and nights.$Agni, various and brilliant you are, greater than the dawn and the days. Lord of light and action, may we never suffer misery in your company and friendship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of God and the President of the Assembly are taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O God Thy attributes which are preservers of all people spread around and both bipeds aad quadrupeds are enlivened by Thy illustrious acts. Thou art wonderful great illuminator of the world and far superior to night and dawn over which Thou rulest as Sovereign. Let us not suffer any harm in Thy friendship O Supreme leader. (2) The Mantra is also applicable to the President of the Assembly who should be the preserver of all and in whose rule, all bipeds and quadrupeds should feel happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अस्य) जगदीश्वरस्य सृष्टौ सभाद्यध्यक्षस्य राज्ये वा = In the universe of God or the rule of the President of the Assembly. (अक्तुभिः) प्रसिद्ध कर्मभियोर्गे: प्रसिद्धाभिः रात्रिभिर्वा = By illustrious acts or ways or nights.. (अंजु व्यक्तिस्राक्षरण गति कान्तिषु ) अक्तुरिति रात्रिनाम (निघ० १. ७)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should never give up the true friendship of God who is the cause of the creation, sustenance and dissolution of the world on account of His Greatness. They should also have friendship with the President of the Assembly whose duty it is to protect all.

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