ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 8
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पूर्वो॑ देवा भवतु सुन्व॒तो रथो॒ऽस्माकं॒ शंसो॑ अ॒भ्य॑स्तु दू॒ढ्य॑:। तदा जा॑नीतो॒त पु॑ष्यता॒ वचोऽग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्वः॑ । दे॒वाः॒ । भ॒व॒तु॒ । सु॒न्व॒तः । रथः॑ । अ॒स्माकम् । शंसः॑ । अ॒भि । अ॒स्तु॒ । दुः॒ऽध्यः॑ । तत् । आ । जा॒नी॒त॒ । उ॒त । पु॒ष्य॒त॒ । वचः॑ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वो देवा भवतु सुन्वतो रथोऽस्माकं शंसो अभ्यस्तु दूढ्य:। तदा जानीतोत पुष्यता वचोऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्वः। देवाः। भवतु। सुन्वतः। रथः। अस्माकम्। शंसः। अभि। अस्तु। दुःऽध्यः। तत्। आ। जानीत। उत। पुष्यत। वचः। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः शिल्पिभौतिकाग्निकर्माण्युपदिश्यन्ते ।
अन्वयः
हे देवा विद्वांसो यूयं येनाऽस्माकं पूर्वो रथो दूढ्यो भवतु पूर्वो दूढ्यं शंसश्चाभ्यस्तु तद्वच आजानीत। उतापि तेन स्वयं पुष्यताऽस्मान् पोषयत च। हे अग्ने परशिल्पिन् ! सुन्वतस्तवास्याग्नेर्वा सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ८ ॥
पदार्थः
(पूर्वः) प्रथमः सुखकारो (देवाः) विद्वांसः (भवतु) (सुन्वतः) सुखाभिषवकर्त्तुः (रथः) विमानादियानम् (अस्माकम्) शिल्पविद्याजिज्ञासूनाम् (शंसः) शस्यते यः सः (अभि) आभिमुख्ये (अस्तु) (दूढ्यः) अनधिकारिभिर्दुःखेन ध्यातुं योग्यः। अत्र दुरुपपदाद् ध्यैधातोर्घञर्थे कविधानमिति कः प्रत्ययः। दुरुपसर्गस्योकारादेश उत्तरपदस्य ष्टुत्वञ्च पृषोदरादित्वान्। (तत्) विद्यासुशिक्षायुक्तम् (आ) (जानीत) (उत) अपि (पुष्यत) अन्येषामपीति दीर्घः। (वचः) वचनम् (अग्ने, सख्ये०) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। हे विद्वांसो येन प्रकारेण मनुष्येष्वात्मशिल्पव्यवहारविद्याः प्रकाशिता भूत्वा सुखोन्नतिः स्यात्तथा प्रयतध्वम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (2)
विषय
अब शिल्पी और भौतिक अग्नि के कामों का उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे (देवाः) विद्वानो ! तुम जिससे (अस्माकम्) हम लोग जो कि शिल्पविद्या को जानने की इच्छा करनेहारे हैं, उनका (पूर्वः) प्रथम सुख करनेहारा (रथः) विमानादि यान (दूढ्यः) जिनको अधिकार नहीं है, उनको दुःखपूर्वक विचारने योग्य (भवतु) हो तथा उक्त गुणवाला रथ (शंसः) प्रशंसनीय (अभि) आगे (अस्तु) हो, (तत्) उस विद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त (वचः) वचन की (आ, जानीत) आज्ञा देओ (उत) और उसी से आप (पुष्यत) पुष्ट होओ तथा हम लोगों को पुष्ट करो। हे (अग्ने) उत्तम शिल्पविद्या के जाननेहारे परमप्रवीण ! (सुन्वतः) सुख का निचोड़ करते हुए (तव) आपके वा इस भौतिक अग्नि के (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) दुःखी कभी न हों ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। हे विद्वानो ! जिस ढङ्ग से मनुष्यों में आत्मज्ञान और शिल्पव्यवहार की विद्या प्रकाशित होकर सुख की उन्नति हो, वैसा यत्न करो ॥ ८ ॥
विषय
उत्तम शरीर रथ
पदार्थ
१. प्रकृति के ये सूर्यादि देव जब शरीरस्थ चक्षु आदि देवांशों के अनुकूल होते हैं तब मनुष्य स्वस्थ होता है - उसका शरीररूप रथ सुदृढ़ होता है । इसी बात को इस प्रकार कहते हैं कि हे (देवाः) = सूर्यादि देवो ! (सुन्वतः) = शरीर में सोम = [वीर्य] - शक्ति का अभिषव [उत्पादन] करनेवाले, यज्ञमय जीवनवाले पुरुष का (रथः) = यह शरीररूप रथ (पूर्वः भवतु) = सर्वोत्कृष्ट हो, अपना ठीक प्रकार से पूरण करनेवाला हो । इस शरीर - रथ में किसी प्रकार की कमी न हो । २. (अस्माकम्) = हमारा (शंसः) = प्रभु के गुणों का शंसन (दूढ्यः) = दुष्ट बुद्धिवाले लोगों को भी (अभ्यस्तु) = अभिभूत करनेवाला हो । हमारी उपासना का प्रभाव दुर्बुद्धि लोगों को भी सुबुद्धि बनानेवाला हो । 'शंसः' शब्द का अर्थ उपदेश भी होता है । अपने शरीररूप रथ को ठीक बनाकर यदि हम उपदेश दें तो वह दुर्बुद्धियों को भी प्रभावित करनेवाला हो । रोगाक्रान्त निर्बल शरीरवाले पुरुष का उपदेश भी प्रभावरहित ही होता है, क्योंकि उसकी शारीरिक स्थिति उसके वचनों का पोषण नहीं कर रही होती । ३. हे देवो ! हमारे (तत् वचः) = उस उपदेशात्मक वचन को (आजानीत) = आप ज्ञान से परिपूर्ण करो (उत) = और (पुष्यत) = उसको शक्तिशाली बनाओ । यह उत्तम प्रभाव पैदा करनेवाला हो । हमारे वचन ज्ञान देनेवाले हों और उसे भी प्रभावजनक रूप में । हे (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो ! इस प्रकार ज्ञान का प्रसार करते हुए (वयम्) = हम (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में (मा रिषाम) = हिंसित न हों ।
भावार्थ
भावार्थ = हमारा शरीररूप रथ उत्कृष्ट हो । हमारा उपदेश दुर्बुद्धियों को सुबुद्धियुक्त बनानेवाला हो । हमारे वचन ज्ञान व शक्ति से भरे हों । प्रभु की मित्रता में हम चलें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे विद्वानांनो! माणसात आत्मज्ञान व शिल्पविद्या ज्याप्रकारे प्रकट होऊन सुख वाढेल असा प्रयत्न करा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Scholars of science and technology, may the chariot of the man of yajnic project be the first and foremost, the same as ours, so admirable, yet difficult for the ill-intentioned even to understand. Therefore, know the word, the secret of it, feed it with more research and knowledge, grow and let us grow too. Agni, lord of light, power and speed, may we never suffer any misery, injury or onslaught from anywhere under your friendship and protection.
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