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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    व॒धैर्दु॒:शंसाँ॒ अप॑ दू॒ढ्यो॑ जहि दू॒रे वा॒ ये अन्ति॑ वा॒ के चि॑द॒त्रिण॑:। अथा॑ य॒ज्ञाय॑ गृण॒ते सु॒गं कृ॒ध्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒धैः । दुः॒ऽशंसा॑न् । अप॑ । दुः॒ऽध्यः॑ । ज॒हि॒ । दू॒रे । वा॒ । ये । अन्ति॑ । वा॒ । के । चि॒त् । अ॒त्रिणः॑ । अथ॑ । य॒ज्ञाय॑ । गृ॒ण॒ते॒ । सु॒ऽगम् । कृ॒धि॒ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वधैर्दु:शंसाँ अप दूढ्यो जहि दूरे वा ये अन्ति वा के चिदत्रिण:। अथा यज्ञाय गृणते सुगं कृध्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वधैः। दुःऽशंसान्। अप। दुःऽध्यः। जहि। दूरे। वा। ये। अन्ति। वा। के। चित्। अत्रिणः। अथ। यज्ञाय। गृणते। सुऽगम्। कृधि। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सभासेनाशालाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ।

    अन्वयः

    हे अग्ने सभासेनाशालाध्यक्ष विद्वन् ! स त्वं दूढ्यो दुःशंसान्दस्य्वादीनत्रिणो मनुष्यान् वधैरपजहि ये शरीरेणात्मभावेन वा दूरे वान्ति केचिद्वर्त्तन्ते तानपि सुशिक्षया वधैर्वाऽपजहि। एवं कृत्वाऽथ यज्ञाय गृणते पुरुषाय वा सुगं कृधि तस्मादीदृशस्य तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (वधैः) ताडनैः (दुःशंसान्) दुष्टाः शंसा शासनानि येषां तान् (अप) निवारणे (दूढ्याः) दुष्टधियः। पूर्ववदस्य सिद्धिः। (जहि) (दूरे) (वा) (ये) (अन्ति) अन्तिके (वा) पक्षान्तरे (के) (चित्) अपि (अत्रिणः) शत्रवः (अथ) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यज्ञाय) क्रियामयाय यागाय (गृणते) विद्याप्रशंसां कुर्वते पुरुषाय (सुगम्) विद्यां गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यस्मिन् कर्मणि (कृधि) कुरु (अग्ने) विद्याविज्ञापक सभासेनाशालाऽध्यक्ष (सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    सभाद्यक्षादिभिः प्रयत्नेन प्रजायां दुष्टोपदेशपठनपाठनादीनि कर्माणि निवार्य दूरसमीपस्थान् मनुष्यान् मित्रवन् मत्वा सर्वथाऽविरोधः संपादनीयः येन परस्परं निश्चलानन्दो वर्धेत ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सभा, सेना और शाला आदि के अध्यक्षों के गुणों का उपदेश किया है ।

    पदार्थ

    हे सभा, सेना और शाला आदि के अध्यक्ष विद्वान् ! आप जैसे (दूढ्यः) दुष्ट बुद्धियों और (दुःशंसान्) जिनकी दुःख देनेहारी सिखावटें हैं, उन डाकू आदि (अत्रिणः) शत्रुजनों को (वधैः) ताड़नाओं से (अप, जहि) अपघात अर्थात् दुर्गति से दुःख देओ और शरीर (वा) वा आत्मभाव से (दूरे) दूर (वा) अथवा (अन्ति) समीप में (ये) जो (केचित्) कोई अधर्मी शत्रु वर्त्तमान हों, उनको (अपि) भी अच्छी शिक्षा वा प्रबल ताड़नाओं से सीधा करो। ऐसे करके (अथ) पीछे (यज्ञाय) क्रियामय यज्ञ के लिये (गृणते) विद्या को प्रशंसा करते हुए पुरुष के योग्य (सुगम्) जिस काम में विद्या पहुँचती है, उसको (कृधि) कीजिये, इस कारण ऐसे समर्थ (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) मत दुःख पावें ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    सभाध्यक्षादिकों को चाहिये कि उत्तम यत्न के साथ प्रजा में अयोग्य उपदेशों के पढ़ने-पढ़ाने आदि कामों को निवार के दूरस्थ मनुष्यों को मित्र के समान मान के सब प्रकार से प्रेमभाव उत्पन्न करें, जिससे परस्पर निश्चल आनन्द बढ़े ॥ ९ ॥

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    विषय

    दुःशंसों का दूरीकरण

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (दुःशंसान्) = जुआ, शिकार आदि व्यसनों का उज्ज्वल शब्दों में चित्रण करके औरों को व्यसनों में फंसानेवाले (दूढ्यः) = दुर्बुद्धि पुरुषों को (वधैः) = इस प्रकार औरों का वध करने से (अपजहि) = दूर कीजिए [हन् = गति] । प्रसङ्गवश यहाँ राजकर्तव्य का भी संकेत है कि राष्ट्र का अग्रणी राजा ऐसे पुरुषों को वधों के द्वारा दूर कर दे । २. हे प्रभो ! (दूरे वा) = दूर अथवा (अन्ति वा) = समीप (ये के चित्) = जो कोई भी (अत्रिणः) = [अद् भक्षणे] औरों को खा जाने की वृत्तिवाले दस्यु हैं, उन सबको आप वध द्वारा दूर कीजिए । इन दुःशंस लोगों को दूर करके (अथ) = अब (यज्ञाय) = यज्ञमय जीवनवाले, यज्ञ के ही पुतले (गृणते) = उपासक पुरुष के लिए (सुगं कृधि) = मार्ग को सुगमता से आक्रमण करने योग्य कीजिए । राजा का भी यही कर्तव्य है कि दस्युओं को दण्डादि से दूर कर आर्यों के लिए मार्ग को सुगम बनाये । ३. हे (अग्ने) = सबको उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले प्रभो ! (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में (वयम्) = हम (मा रिषाम) = हिंसित न हों । हम आपकी मित्रता में चलते हुए दुःशंस पुरुषों के दबाव में तो आएँ ही नहीं, प्रत्युत उन्हें सुशंस बना पाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ = राष्ट्र से 'दुःशंस, दूढ्य, अत्रि' पुरुष दूर हों, यज्ञीय जीवनवाले प्रभुभक्तों की वृद्धि हो ।

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    विषय

    अग्नि का भी वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! हे नायक ! तू ( दुःशंसान् ) दुःखदायी और दुष्परिणामजनक वचनों को कहने वालों और लोगों को बुरी बात सिखाने वालों को (वधैः) नाना दण्डों से (अप जहि) पीड़ित करके राष्ट्र से दूर कर । ( ये ) जो लोग ( दूरेवा ) दूर देश में और ( अन्ति वा ) समीप मे भी ( के चित् ) कोई भी ( दूढ्यः ) दुष्ट बुद्धियों और दुःखदायी, हीन आचार चरित्रों वाले, ( अत्रिणः ) प्रजा के माल को हड़पजाने वाले, खाऊ लोग हैं उनको नाना दण्डों से दण्डित करके प्रजा से परे हटा । उनको प्रजा में मत रहने दे । ( अथ ) और ( यज्ञाय गृणते ) यज्ञ, परस्पर संत्संग और ज्ञानोपदेश तथा परमेश्वरोपासना आदि कार्यों की वृद्धि के लिये तथा ‘यज्ञ’ अर्थात् उपास्य या पूजा और आदर के योग्य प्रजा पालक राजा और आचार्य के हित के लिये (गृणते) स्तुति-चर्चा और उपदेश करने वाले पुरुष के लिये ( सुगं कृधि ) सुखप्रद साधन उपस्थित कर। हम ( तवसख्ये मा रिषाम) तेरे मैत्रीभाव में रह कर कभी दुष्ट पुरुषों द्वारा पीड़ित न हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः॥ छन्दः–१, ४, ५, ७, ९, १० निचृज्जगती । १२, १३, १४ विराड् जगती । २, ३, १६ त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सभाध्यक्ष इत्यादींनी उत्तम प्रयत्न करून प्रजेत अयोग्य (दुष्ट) उपदेशाचे अध्ययन, अध्यापनाचे निवारण करून दूर व जवळ असलेल्या माणसांना मित्राप्रमाणे मानून सर्व प्रकारचे प्रेमभाव उत्पन्न करावेत, ज्यामुळे परस्पर निश्चल आनंद वाढेल. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    With punishments and even with the thunderbolt, strike away, even eliminate, the despicable, evil intentioned and those who are enemies of the society whether they be far away or lurking close by. Clear the path for the dedicated who chant and work in faith for the yajna of development and progress. Agni, lord of light, knowledge and progress, may we never suffer any set back, injury or defeat under your guidance and friendship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the Chiefs of the Assembly, army and educational institutions are taught in the Ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Agni (President of the Assembly, army or the educational institution) strike away with thy weapons of wisdom (in the case of Acharyas) or the other fatal arms those of evil speech and intellect, malicious devouring demons be they near or far. Make a good path for him who praises knowledge and wisdom and tries to attain them, performing practical Yajna (benevolent act). May we not suffer any harm in thy friendship.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वधैः) ताडनै: = By chastisement or weapons. (अत्रिणः) = Devouring foes. (गृणते) विद्याप्रशंसां कुर्वते पुरुषाय = For a person who praises wisdom or knowledge. (अग्ने) विद्याविज्ञापक सभासेनाशालाध्यक्ष = Giver of knowledge-the President of the Assembly, Chief of the army or educational institution.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The Presidents of the Assembly and other chiefs should remove all bad discourses, evil reading and teaching leading to un-righteousness, should create harmony and friendship among all subjects whether they are far or near, taking them all as friends, so that abiding bliss may grow more.

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