ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 96/ मन्त्र 1
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - द्रविणोदा अग्निः शुद्धोऽग्निर्वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स प्र॒त्नथा॒ सह॑सा॒ जाय॑मानः स॒द्यः काव्या॑नि॒ बळ॑धत्त॒ विश्वा॑। आप॑श्च मि॒त्रं धि॒षणा॑ च साधन्दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । प्र॒त्नऽथा॑ । सह॑सा । जाय॑मानः । स॒द्यः । काव्या॑नि । बट् । अ॒ध॒त्त॒ । विश्वा॑ । आपः॑ । च॒ । मि॒त्रम् । धि॒षणा॑ । च॒ । सा॒ध॒न् । दे॒वाः । अ॒ग्निम् । धा॒र॒य॒न् । द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स प्रत्नथा सहसा जायमानः सद्यः काव्यानि बळधत्त विश्वा। आपश्च मित्रं धिषणा च साधन्देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः। प्रत्नऽथा। सहसा। जायमानः। सद्यः। काव्यानि। बट्। अधत्त। विश्वा। आपः। च। मित्रम्। धिषणा। च। साधन्। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणःऽदाम् ॥ १.९६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 96; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाऽग्निशब्देन विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ।
अन्वयः
ये देवा द्रविणोदामग्निं धारयँस्ते सर्वाणि कार्याणि च साधँस्तेषामापश्चाध्यापनादीनि कर्माणि मित्रं धिषणा हस्तक्रियया सिध्यन्ति यो मनुष्यः सहसा प्रत्नथा प्राचीन इव जायमानो विश्वा काव्यानि सद्यो बडधत्त यथावद्दधाति स विद्वान् सुखी च भवति ॥ १ ॥
पदार्थः
(सः) (प्रत्नथा) प्रत्नः प्राचीन इव (सहसा) बलेन (जायमानः) प्रादुर्भवन् (सद्यः) शीघ्रम् (काव्यानि) कवेः कर्माणि (बट्) यथावत् (अधत्त) दधाति (विश्वा) विश्वानि (आपः) प्राणाः (च) अध्यापनादीनि कर्माणि (मित्रम्) सुहृत् (धिषणा) प्रज्ञा (च) हस्तक्रियासमुच्चये (साधन्) साध्नुवन्ति साधयन्ति वा (देवाः) विद्वांसः (अग्निम्) परमेश्वरं भौतिकं वा (धारयन्) धारयन्ति (द्रविणोदाम्) यो द्रव्याणि ददाति तम्। अत्रान्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति विच् ॥ १ ॥
भावार्थः
नहि मनुष्यो ब्रह्मचर्य्येण विद्याप्राप्त्या विना कविर्भवितुं शक्नोति न च कवित्वेन विना परमेश्वरं विद्युतं च विज्ञाय कार्याणि कर्त्तुं शक्नोति तस्मादेतन्नित्यमनुष्ठेयम् ॥ १ ॥
हिन्दी (2)
विषय
अब नव ऋचावाले छानवें सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द से विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ।
पदार्थ
जो (देवाः) विद्वान् लोग (द्रविणोदाम्) द्रव्य के देनेहारे (अग्निम्) परमेश्वर वा भौतिक अग्नि को (धारयन्) धारण करते-कराते हैं, वे सब कामों को (साधन्) सिद्ध करते वा कराते हैं, उनके (आपः) प्राण (च) और विद्या पढ़ाना आदि काम (मित्रम्) मित्र (धिषणा, च) और बुद्धि हस्तक्रिया से सिद्ध होती हैं, जो मनुष्य (सहसा) बल से (प्रत्नथा) प्राचीनों के समान (जायमानः) प्रकट होता हुआ (विश्वा) समस्त (काव्यानि) विद्वानों के किये काव्यों को (सद्यः) शीघ्र (बट्) यथावत् (अधत्त) धारण करता है, (सः) वह विद्वान् और सुखी होता है ॥ १ ॥
भावार्थ
मनुष्य ब्रह्मचर्य्य से विद्या की प्राप्ति के विना कवि नहीं हो सकता और न कविताई के विना परमेश्वर वा बिजुली को जानकर कार्य्यों को कर सकता है, इससे उक्त ब्रह्मचर्य्य आदि नियम का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये ॥ १ ॥
विषय
शक्ति , स्नेह व बुद्धि
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब हम ज्ञानयुक्त धन को धारण करते हैं तब धन के द्वारा हम आवश्यक साधनों को जुटानेवाले होते हैं और ज्ञान के कारण उन साधनों का कभी दुरुपयोग नहीं करते । सुप्रयुक्त होते हुए ये सुधन हममें शक्ति उत्पन्न करते हैं । इस (सहसा) = शक्ति से (सः) = वे प्रभु (जायमानः) = हमारे अन्तः करणों में प्रादुर्भूत होते हैं । निर्बल , प्रभु का दर्शन नहीं कर सकता ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’ ।
२. प्रादुर्भूत होते हुए ये प्रभु (सद्यः) = शीघ्र ही (प्रत्नथा) = पुरातन काल की भाँति , जैसे कि सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु ने अग्नि आदि के हृदय में वेदज्ञान का प्रकाश किया , उसी प्रकार (बट्) = सचमुच (विश्वा काव्यानि) = सब वेदरूप काव्य को - क्रान्तदर्शी ज्ञान को - वस्तुतत्त्व को स्पष्ट करनेवाले ज्ञान को (अधत्त) = स्थापित करते हैं ।
३. वस्तुतः (आपः च) = शरीर में रेतः कणों के रूप में रहनेवाले ये जल (मित्रम्) = स्नेह की भावना , द्वेष की भावना से ऊपर उठना (धिषणा च) = और बुद्धि साधन - इस ज्ञान को सिद्ध करते हैं । प्रभु से दिये जानेवाले इस ज्ञान को सिद्ध करने के लिए आवश्यक है कि हम [क] रेतः कणों का रक्षण करें , [ख] द्वेषादि की वृत्तियों से ऊपर उठे और [ग] बुद्धि को धारणवती बनाएँ ।
४. इन आपः , मित्रं व धिषणा) = को सिद्ध करनेवाले (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष ही (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (धारयन्) = धारण करते हैं , जो प्रभु (द्रविणोदाम्) = सब द्रव्यों के देनेवाले हैं । प्रभु ही सब द्रव्यों को प्राप्त कराके हमें उन्नत करनेवाले हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - बल को धारण करने से ही प्रभु का दर्शन होता है । प्रभु हमारे हृदयों में ज्ञान के प्रकाश को स्थापित करते हैं । वे ही अग्नि व द्रविणोदा हैं ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अग्नी शब्दाच्या गुणांच्या वर्णनाने या अर्थाची पूर्व सूक्ताबरोबर संगती आहे हे जाणले पाहिजे. ॥
भावार्थ
ब्रह्यचर्याने विद्या प्राप्त केल्याशिवाय कवी (बुद्धिमान) बनू शकत नाही व काव्या (ज्ञाना)शिवाय परमेश्वर व विद्युत यांना जाणून कार्य करू शकत नाही. त्यासाठी वरील ब्रह्मचर्य इत्यादी नियमाचे अनुष्ठान सदैव करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That is Agni, light and fire of life, instantly rising as ever with power and force for the devotee. He bears the strength, vision and wisdom of the world and helps the dedicated person to realise the values of life with waters, energy, intelligence and friendship in the society. The devas, divinities of nature and humanity dedicate themselves to Him, lord giver of universal wealth, and bear on the fire of yajna from generation to generation.
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